कोई अगर अक्षर बनाना सीख जाए तो क्या आप उसे पढ़ा लिखा कह देंगे?
यह सवाल आपको थोड़ा उलझन में डाल सकता है। वैसे इसके दो जवाब हैं। सरकार का जवाब ‘हां’ में होगा और पढ़ी लिखी बिरादरी का ‘ना’ में।
ठीक ऐसा ही मामला सेहत का है। कोई किसी भी तरह अपना पेट भर ले या किसी का, किसी भी तरह से पेट भर दिया जाए, तो क्या आप उसे पोषित कहेंगे? यहां भी वही दुविधा और वैसे ही जवाब हैं। सरकार कहेगी ‘हां’ और डाक्टरों या सेहत से जुड़े विशेषज्ञ कहेंगे ‘कतई नहीं’।
हमारा हरा भरा मध्यप्रदेश, पिछले कई सालों से शिक्षा और सेहत दोनों क्षेत्रों में इन्हीं सवालों और इन्हीं जवाबों के बीच झूल रहा है। सरकार अ,आ,इ,ई सिखाकर या टेढ़े बांके तरीके से ‘क म ला’ लिख लेने को महिला का साक्षर होना मान लेती है (ऐसा केवल महिलाओं के मामले में ही नहीं है, पुरुष भी ऐसे ही साक्षर माने जाते हैं, फर्क सिर्फ इतना होता है कि वे क म ला नहीं बल्कि गो पा ल या ऐसा ही कोई नाम लिख लेते हैं।)
इसी तरह राशन की दुकानों से रुपए, दो रुपए किलो अनाज, चावल आदि देकर और मध्याह्न भोजन में इंसान के खाने लायक बताया जाने वाला, कोई भी खाद्य पदार्थ परोस कर यह मान लिया जाता है कि ‘पोषण’ हो गया।
जबकि न तो ‘क म ला’ या ‘गो पा ल’ लिखने वाली बहन जी या भाई जी पढ़े लिखे कहे जा सकते हैं और न ही राशन दुकान से गेहूं चावल उठाने वाले अथवा मध्याह्न भोजन में पका-अधपका खाने वाले ‘पोषित’माने जा सकते हैं।
जिसे स्वास्थ्य की परिभाषा में ‘पोषण’ कहा जाता है, उसका मतलब पेट भरना नहीं, बल्कि शरीर के लिए आवश्यक उन सारे या अधिकांश पोषक तत्वों की उपलब्धता है, जो अच्छी सेहत या कुपोषण दूर करने के लिए आवश्यक हैं। चूंकि इस दिशा में कम और पेट भरने पर ध्यान ज्यादा है, इसलिए मध्यप्रदेश में कुपोषण का स्तर भी कई दशकों से चिंता का विषय बना हुआ है।
ऐसा नहीं है कि ये कोई नई बात है और ये तथ्य पहली बार सामने आ रहे हैं। हर साल तीन-चार रिपोर्टें ऐसी आ जाती हैं, जो कुपोषण और सेहत से जुड़े मसलों पर वे ही चेतावनियां देती नजर आती हैं, जो स्वास्थ्य से जुड़े अनेक सरकारी या गैर सरकारी संगठन दशकों से देते आ रहे हैं।
हाल ही में मध्यप्रदेश के एक चर्चित गैर सरकारी संगठन विकास संवाद ने पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया द्वारा तैयार की गई ‘इंडिया हेल्थ रिपोर्ट’ के मध्यप्रदेश से संबंधित तथ्यों को मीडिया से साझा किया। यह ताजी रिपोर्ट भी कमोबेश वही बातें कह रही है, जो हर बार सरकारी तंत्र की दीवारों से टकरा कर लौटती रही हैं।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य के तमाम मानकों पर प्रदेश की स्थिति अच्छी नहीं है। बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और जन स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर लगाता गिरता जा रहा है। राज्य में 42.8 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं, यानी किसी न किसी रूप में कुपोषण का शिकार हैं। यह संख्या देश के कुल कम वजन के बच्चों का 8.8 प्रतिशत है। इस हिसाब से प्रदेश में हर 11 में से एक बच्चा कम वजन का है। यह कुपोषण बच्चों के बढ़ने की गति को भी प्रभावित कर रहा है और वे ठिंगने रह जा रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक हर 15 में से 1 बच्चे की ऊंचाई औसत से कम है। इन दोनों बातों का प्रमुख कारण यह है कि बच्चों व उनकी माताओं को उचित पोषण, साफ पानी और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं।
बच्चों और महिलाओं की सेहत के लिए काम करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठन यूनीसेफ के मप्र के प्रभारी मुखिया अनिल गुलाटी कहते हैं कि बच्चों की असामयिक मौतों में से 45 प्रतिशत ऐसी होती हैं जो कहीं न कहीं उनके पोषण की समस्या से जुड़ी होती हैं। चूंकि शिशु मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश का रिकार्ड अच्छा नहीं है, इसलिए बच्चों के पोषण पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
इस रिपोर्ट में ध्यान देने वाली बात शिक्षा और जागरूकता से जुड़ी है। शिक्षा के लिहाज से देखें तो राज्य में 15 से 49 वर्ष के आयु वर्ग की 23.2 प्रतिशत महिलाएं ही ऐसी हैं, जिन्होंने जिन्होंने दस वर्ष या उससे अधिक समय तक स्कूल में शिक्षा पाई है। यही वह उम्र है जिसके बीच लड़कियों का विवाह होता या करा दिया जाता है। यानी विवाह करने वाली 75 प्रतिशत से अधिक लड़कियां अपनी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पातीं। इसका सीधा असर उनके रहन सहन और खुद के एवं अपने बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण पर पड़ता है। इसी तरह सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि 20 से 24 वर्ष के आयु वर्ग में 30 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं जिनका विवाह 18 वर्ष की उम्र पूरी होने से पहले कर दिया गया। बच्चों के कुपोषित होने के पीछे, लड़कियों का वयस्क होने से पहले ही विवाह हो जाना भी एक बड़ा कारण है।
निश्चित रूप से किसी भी राज्य के लिए ये अच्छे संकेत नहीं हैं। एक ओर जब मध्यप्रदेश अपने शरीर से बीमारू होने का चोला उतार रहा है, तो ऐसे उपाय भी कर लिए जाएं कि इन ‘काले संकेतकों’ के दाग भी धुल जाएं।
गिरीश उपाध्याय