मुझे पूरा तो याद नहीं है लेकिन कई माह पहले सोशल मीडिया पर एक ऑडियो काफी वायरल हुआ था जिसमें मुंबई के किसी संस्थान से एक लड़की महाराष्ट्र के ही किसी गांव के किसान को फोन लगाकर कहती है कि वह अपने बच्चे का एडमिशन उनके संस्थान में कराए। हम बच्चे को स्कॉलरशिप भी देंगे।
किसान उस महिला से कई सवाल पूछता है और यह भी जानना चाहता है कि क्या उसके संस्थान में खेती किसानी सिखाने का भी कोई कोर्स है? लड़की का जवाब होता है नहीं ऐसा तो कोई कोर्स हम नहीं चलाते पर हमारे यहां मौजूद कोर्स यदि आप कराएंगे तो उससे बच्चे की नौकरी लग जाएगी।
किसान जवाब देता है, मैडम आप आठ दस हजार की नौकरी दिलवाओगे, उसमें से आधे तो मुंबई में उसकी खोली (रहने की जगह) के लग जाएंगे, बाकी खाने कपड़े में चले जाएंगे, बाकी जरूरतों के लिए वह क्या करेगा। कैसे खुद को पालेगा और कैसे परिवार की मदद कर पाएगा।
दोनों के बीच बड़ा लंबा संवाद चलता है और अंत में वह किसान उस लड़की को ही ऑफर दे देता है कि आपके पास यदि कुछ बेरोजगार लड़के हों तो हमारे पास भेज दो, हमें खेतों में काम करने के लिए लड़के नहीं मिल रहे। यहां बहुत काम है, हम उन्हें मुंबई से दुगनी पगार तक दे सकते हैं। खर्चा भी यहां ज्यादा नहीं होगा।
वह ऑडियो क्लिप अब मेरे पास उपलब्ध नहीं है, लेकिन यदि आपको उपलब्ध हो तो उसे जरूर सुनिएगा। वह बातचीत हमारी शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की समस्या की बहुत सी परतों को उघाड़ने वाली है। उस बातचीत में आप पाएंगे कि हम किस दिशाहीनता में जी रहे हैं और रोजगार के मुद्दे पर कैसी कैसी विसंगतियां हैं।
दूसरा उदाहरण लीजिए। मैं कई संस्थानों में पत्रकारिता के विद्यार्थियों की मौखिक परीक्षा के लिए जाता रहता हूं। और जो स्थिति मैंने देखी है वह बहुत निराश करने वाली है। मेरा पहला ही सवाल छात्र से यह होता है कि क्या आपने सिलेबस पढ़ा है? आप यकीन नहीं करेंगे कि ज्यादातर छात्रों का जवाब होता है ‘थोड़ा बहुत’ देखा है।
इसके आगे जब उनसे पूछा जाता है कि इस ‘थोड़े बहुत’ में से भी आप वह यूनिट बता दें जो आपने ठीक से पढ़ी हो, मैं उसी में से कुछ सवाल पूछ लूंगा तो छात्र पूरे आत्मविश्वास से कोई एक भी यूनिट ऐसी नहीं बता पाते जिसके बारे में पूछे जाने वाले सवालों का वे अधिकार के साथ जवाब दे सकें। और जब वे निर्धारित पाठ्यक्रम का ही जवाब देने की स्थिति में न हों तो उनसे किसी नवाचार की अपेक्षा करना तो बेमानी ही होता है।
यह स्थिति किसी एक पाठ्यक्रम या संस्थान की हो ऐसा नहीं है, आप अधिकांश जगह पाएंगे कि हालात ऐसे ही हैं। और जब छात्र इन कॉलेजों व संस्थानों से अपना कोर्स पूरा करके निकलते हैं तो उनमें वह आत्मविश्वास नदारद होता है जो उन्हें रोजगार पाने की चुनौतियों का सामना करने और प्रतिस्पर्धा में टिके रहने लायक बनाता है।
इसके दो खतरनाक परिणाम होते हैं। पहला तो यही कि डिग्री या अन्य कोई डिप्लोमा ले लेने के बाद युवा समझने लगता है कि उसे तो अब ‘व्हाइट कॉलर’ जॉब ही चाहिए। और चूंकि वह ऐसे किसी जॉब की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाता इसलिए खारिज कर दिया जाता है।
इस स्थिति का परिणाम क्या होता है यह हमें पिछले दिनों देखने को मिला जब मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश से खबरें आईं कि चपरासी की नौकरी के लिए पीएचडी और पोस्ट ग्रेजुएट स्तर तक के युवाओं ने आवेदन किए। अब जिस नौकरी की बुनियादी जरूरत आठवीं पास हो वहां ऐसे लोगों के आवेदन आ जाने से नियोक्ताओं के सामने भी धर्मसंकट की स्थिति पैदा हो जाती है।
मामले का दूसरा पहलू यह है कि डिग्री हाथ में आ जाने के बाद युवाओं की उम्मीद एक बड़ी राशि वाली नौकरी की रहती है, इसलिए वह छोटे मोटे काम या उम्मीद से कम राशि वाली नौकरी नहीं करते। यहीं आकर समस्या से वह ‘उत्तरप्रदेश–बिहार’ वाला सिरा जुड़ता है। चूंकि इन राज्यों में बेरोजगारी की समस्या और अधिक है और वहां का युवा रोजगार के लिए बड़ी संख्या में दूसरे प्रदेशों में जाने से भी नहीं हिचकता, इसलिए वह कम से कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हो जाता है।
यह स्थिति नियोक्ताओं के लिए बड़ा अवसर लेकर आती है। जब उन्हें कम से कम दाम में काम करने वाले मिल रहे हों तो वे क्यों अधिक वेतन देकर लोगों को रखना चाहेंगे। इसलिए वे भी स्थानीय युवाओं के बजाय अन्य प्रदेशों से आने वाले युवाओं को रोजगार में प्राथमिकता देकर काम पर रख लेते हैं।
कुल मिलाकर हालात बहुत जटिल हैं। इसलिए रोजगार के मुद्दे पर सिर्फ बरोजगारी भत्ते जैसे लॉलीपॉप देने से ही काम नहीं चलने वाला। इसके लिए बहुआयामी दृष्टिकोण के साथ काम करना होगा। मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार के सामने यह काम बहुत चुनौती भरा है। इसके लिए सरकार को न सिर्फ पूरी पारदर्शिता के साथ पुख्ता डाटाबेस तैयार करना होगा बल्कि उसकी सतत मॉनिटरिंग भी करना होगी।
बेहतर होगा कमलनाथ सरकार प्रदेश में रोजगार की स्थिति पर एक श्वेतपत्र लेकर आए। जिसमें प्रदेश में पिछले 15 सालों के दौरान युवाओं को मिले सरकारी रोजगार का तो ब्योरा हो ही, साथ ही इस बात का भी खुलासा हो कि इस अवधि में प्रदेश में कितना निवेश आया, कितने उद्योग धंधे खुले, उनमें कितने लोगों को रोजगार दिया गया और रोजगार पाने वालों में मध्यप्रदेश के लोगों की संख्या कितनी रही।
राज्य के मुख्यमंत्री ने उद्योगों के लिए 70 प्रतिशत रोजगार स्थानीय लोगों को देने की शर्त रखी है। मेरा सुझाव है कि ऐसी ही एक शर्त उन शिक्षण संस्थानों पर भी लगनी चाहिए जो सरकार से सुविधाएं और रियायतें लेकर खड़े किए गए हैं। और शर्त यह कि वे अपने यहां से निकलने वाले युवाओं को एक निश्चित प्रतिशत में रोजगार भी सुनिश्चित करवाएंगे। इससे उन पर शिक्षा और कौशल को गुणवत्तापूर्ण बनाने का दबाव भी बनेगा। अन्यथा वे हमेशा की तरह बेरोजगारों की फौज हर साल निकालते रहेंगे और सरकारें उन युवाओं का गुस्सा झेलती रहेंगी। (समाप्त)