राकेश अचल
आजकल देश-दुनिया में दो ही लोगों की पूछ-परख है, ये हैं ‘लार्ड’ और ‘माय लार्ड’। दोनों में तमाम समानताएं हैं और दोनों में अनेक असमानताएं। पहली समानता तो ये है कि दोनों के आगे आपको हाथ जोड़ना पड़ते हैं, सर झुकाना पड़ता है, सुनवाई से पहले बाकायदा फीस अदा करना पड़ती है। दोनों ऊंचे आसन पर बैठते हैं, दोनों पतित पावन होते हैं। दोनों को चढ़ावा पसंद है, लेकिन इसका स्वरूप अलग-अलग होता है।
असमानता ये है कि एक सहज सुलभ हैं और दुसरे दुर्लभ। एक मुस्कराते रहते हैं और दूसरे सदैव गंभीर बने रहते हैं। एक अपनी टेबिल पर लकड़ी का हथौड़ा ठोकते रहते हैं और दूसरे हमेशा वरदायी मुद्रा में अपना हाथ ऊपर किये रहते हैं। दोनों तक पहुँचने के लिए माध्यम की जरूरत होती है। एक को पुजारी लगता है तो दूसरे के यहां ये काम वकील करते हैं। वैसे सीधे पैरवी की सुविधा भी दोनों के यहां है।
‘लार्ड’ और ‘माय लार्ड’ निष्पक्ष होते हैं, न्यायप्रिय होते हैं, नीर-क्षीर विवेक से काम करते हैं। दोनों पापियों को सजा और दीन-दुखियों को न्याय तथा संरक्षण प्रदान करते हैं। दोनों के ठिकाने मंदिर कहे जाते हैं। दोनों के बिना समाज का काम नहीं चलता। दोनों अपनी प्रतिष्ठा को लेकर चिंतित रहते हैं, दोनों की प्रतिष्ठा को कोई आंच न आये इसलिए क़ानून का छाता लगाकर रहते हैं। दोनों की निंदा करने पर सजा और अर्थदंड का प्रावधान है। दोनों की निंदा आदमी को भारी पड़ती है। दोनों को आदमी ने पूज्य माना है।
हमारे मनसुख कहते हैं कि ‘लार्ड’ तो आदिकाल से हैं, लेकिन ‘माय लार्ड’ हमने खुद बनाये हैं। हमारे यहां आजादी से पहले अंग्रेजों का शासन था, उन्होंने ही ‘मायलॉर्ड’ को पैदा किया, वरना इससे पहले हमारे यहां राजा और बादशाह ही न्याय के देवता होते थे। उससे पहले न्याय के देवता या देवी की आँखों पर पट्टी बाँधने का भी चलन नहीं था। हमारे यहां भी देवता को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है और अंग्रेजों के यहां भी, लेकिन हमने अंग्रेजों के ‘माय लार्ड’ को बदला नहीं।
मनसुख पुरानी पीढ़ी के आदमी हैं इसलिए नॉलेजफुल माने जाते हैं। अक्सर पते की बात करते और सुनते हैं। उन्हें किसी की निंदा करना पसंद नहीं है लेकिन अपने आसपास वे निंदकों का जमावड़ा हर समय लगाते रहते हैं। कहते हैं- निंदकों को घर के आसपास ही आंगन में कुटी बनाकर रखना चाहिए, क्योंकि निंदक ही बिना साबुन-पानी का खर्च कराये व्यक्ति के स्वभाव को शुद्ध कर देते हैं।
लेकिन समस्या ये है कि आज के समाज में निंदकों के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। मनसुख की सबसे बड़ी पीड़ा यही है। वे कहते हैं-”आप देख रहे हैं कि निंदकों की उपेक्षा की वजह से देश में साबुन-पानी का खर्च कितना बढ़ गया है? अब तो साबुन-पानी के साथ ‘सेनेटाइजर’ भी लगने लगा है।
‘सो तो है’ हमने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। संक्षिप्त इसलिए क्योंकि अब हमें भी निंदकों से डर लगने लगा है। देश में निंदा करना अपराध जो हो गया है! हमारे सहारनपुर वाले अशांत भूषण का नाम तो आपने सुना ही होगा, आजकल ‘मायलॉर्ड’ की निंदा कर फंस गए हैं। ‘माय लार्ड’ ने उन्हें निंदा का दोषी तो मान ही लिया है, अब सजा सुनाना भर बाक़ी रह गया है।
भादों के महीने में उमस से परेशान मनसुख ने अंगोछे से अपना पसीना पोंछा और फिर बोले- ‘यार पंडित! ये हो क्या रहा है? हम न्याय के देवताओं को अंग्रेजी पैटर्न पर कब तक ‘माय लार्ड’ कहते रहेंगे? हमने राष्ट्रपति को महामहिम कहना बंद कर दिया है तो क्या ये मायलॉर्ड शब्द नहीं त्याग सकते?’ मनसुख की आँखों में प्रश्नाकुलता झलक रही थी।
‘नहीं..नहीं.. ये ठीक नहीं है। अंग्रेज हमारे लिए जो छोड़ गए हैं उनमें ये ‘मायलॉर्ड’ शब्द भी है, इंग्लैंड में ‘माय लार्ड’ (जो कि एक सम्मान सूचक शब्द है) का प्रयोग जज, पादरी व अन्य गणमान्य व्यक्तियों के सम्मान में किया जाता है। हम अंग्रेजों के जमाने के क़ानून इस्तेमाल कर रहे हैं तो इस शब्द को कैसे छोड़ सकते हैं” मैंने मनसुख को समझाते हुए कहा। लेकिन उनका समाधान नहीं हुआ।
मनसुख गांधीवादी आदमी हैं, कहते हैं कि ‘हमें हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं देना चाहिए’। हमने उन्हें बताया कि-‘आप देख रहे हैं न, बेंगलूरु में क्या हुआ? ईशनिंदा की एक हरकत की वजह से पूरा शहर हलकान हो गया,कितने निर्दोषों को अपनी जान गंवाना पड़ी? क्या आप इसको ठीक मानते हैं?’
‘बिलकुल नहीं… बिलकुल नहीं…’ मनसुख लगभग अकुलाकर बोले। उन्होंने कहा- ‘ये गलत बात है, आपको किसी दूसरे के ईश की निंदा करने का हक नहीं है। आप अपने ईश की निंदा कर सकते हैं, आपका ईश बड़ा उदार है। हल्की-फुल्की निंदा से नाराज या आहत नहीं होता। आप उसकी किसी भी मुद्रा की तस्वीर, प्रतिमा गढ़ सकते हैं। कोरोनाकाल में उसके चेहरे पर मास्क लगा सकते हैं, कोरन्टाइन कर सकते हैं। लेकिन दूसरे के ईश के साथ ऐसा करने की मुमानियत है, तो है, उसे माना जाना चाहिए” मनसुख ने बिना रुके अपना भाषण उड़ेल दिया।
‘यही तो मैं कहता हूँ कि ‘जब ईश यानि ‘लार्ड’ की निंदा बर्दाश्त नहीं है ठीक वैसे ही ‘माय लार्ड’ की निंदा को भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता’ मैंने अपना ज्ञान बघार लगाकर मनसुख के सामने परोस दिया। मनसुख मेरी बात सुनकर संतुष्ट होने के बजाय भड़क गए। बोले-
‘वाह भई वाह! लार्ड और माय लार्ड में कोई अंतर ही नहीं है? लार्ड हमें बनाते हैं और माय लार्ड को हम बनाते हैं, इसलिए उन्हें निंदा सहने की आदत होना चाहिए और तब तो बिलकुल होना चाहिए जब वे अपने मंदिर के बाहर की गतिविधियों के लिए निंदा का पात्र बनाये गए हों।”
ऐसा कैसे हो सकता है’ मैंने प्रतिप्रश्न किया।
‘क्यों नहीं हो सकता?’ मनसुख ने भी जवाबी फायर झोंक दिया
‘बस नहीं हो सकता, ये क़ानून सम्मत नहीं है’ मैंने चिढ़कर कहा
‘तो क़ानून बदल दीजिये, क़ानून आखिर बनाता कौन है, हम ही तो बनाते हैं, हमने ही तो ‘माय लार्ड’ की निंदा का निषेध करने वाला क़ानून बनाया है, अगर ये विसंगतिपूर्ण है तो इसमें संशोधन किया जा सकता है” मनसुख ने जैसे कोई आधिकारिक वक्तव्य दे दिया हो।
अब मनसुख को कौन समझाये कि अशांत भूषण के प्रति हमारी भी सहानुभूति है। लेकिन हम डरपोक लोग हैं, कैसे उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो सकते हैं? हम कोरोना के खिलाफ तो जंग छेड़ सकते हैं, सड़क चलते लोगों से छेड़छाड़ कर सकते हैं लेकिन ‘माय लार्ड’ को नहीं छेड़ सकते क्योंकि हम क़ानूनप्रिय आदमी हैं और क़ानून हमें ‘मायलॉर्ड’ को न घर के भीतर निंदा करने की इजाजत देता है और न बाहर। माय लार्ड फिर चाहे किसी मंहगी मोटर सायकल पर सवारी करते फोटू खिंचवाएं या रिटायर होते ही राज्य सभा में चले जाएँ। ये उनका विवेक है और विवेक को चुनौती नहीं दी जा सकती।’
लम्बी बहस के बावजूद हम भी मनसुख को उसी तरह नहीं समझा सके जिस तरह अशांत भूषण ‘माय लार्ड’ को। देश में अशांत भूषणों की संख्या हमसे हमेशा ज्यादा रही है और लोकतंत्र बहुमत के आधार पर चलता है, लेकिन हमारी कानूनी संरचना में बहुमत नहीं साक्ष्य और परिस्थितिजन्य साक्ष्य चलते हैं, ये हर अशांत भूषण को समझना चाहिए। हमने मनसुख को लगभग चेतावनी भरे शब्दों में समझाने की कोशिश की, लेकिन वे कहाँ समझने वाले थे, भनक गए।
बोले- ‘भुगतियेगा आप भी अशांत भूषण की तरह, सच को सच कहने से जो भी कतराएगा समाज का दोषी होगा, अशांत भूषण दोषी नहीं है, उसका समर्थन किया जाना चाहिए’ मनसुख ने तमतमाते हुए कहा।
‘तो आप कीजिये समर्थन! मैं तो कानून के खिलाफ जाने से रहा ‘ मैंने अपना फैसला सुनते हुए कहा।‘
‘आप अनाड़ी हैं, अनपढ़ हैं कुछ नहीं जानते,’मायलॉर्ड’ के फैसले के खिलाफ अपील का प्रावधान है, अशांत भूषण उसका इस्तेमाल करेगा और मुझे उम्मीद है कि जब तमाम मायलॉर्ड एक साथ बैठेंगे तो विवेकपूर्ण निर्णय ही लेंगे’ मनसुख ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा।
अपनी न्यायपालिका के प्रति मनसुख का भरोसा देखकर मेरा सीना गर्व से फुकने (गुब्बारे) की तरह फूल गया, मस्तक मंदिर के पांचवें शिखर की तरह उन्नत हो गया। आज देश में जब कार्यपलिका, विधायका और खबरपालिका पर से सबका भरोसा उठ चुका है तब न्यायपालिका पर तो भरोसा कायम रहना जरूरी है। देश का आम आदमी मनसुख की ही तरह सोचता है। हमारे मायलार्ड्स को भी मनसुख का मन टटोलना चाहिए। मनसुख मंहगी फीस अदा कर कोई याचिका नहीं लगा सकता, वो तो बेचारा चार आने की सिन्नी लार्ड के दरबार में चढ़ाकर न्याय की आस करता है, क्योंकि जानता है कि लार्ड माय लार्ड की तरह नाराज नहीं होते। उन्हें चाहे जितनी खरी-खोटी सुना लीजिये वे अपने भक्तों को क्षमा कर ही देते हैं, वे दीनदयाल हैं, विघ्नहर्ता हैं… तभी तो कहते हैं-
‘दीन दयाल बिरिदु संभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी’
देखते जाइये कि मनसुख का संकट दूर होता है या और बढ़ता है?