सुनो रे माई के लालो! तुमको नौकरी करनी है या नहीं?

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गिरीश उपाध्‍याय

ऐसा लगता है कि या तो इनको मालूम नहीं है कि ये क्‍या कर रहे हैं। या फिर ये पक्‍की बात है कि इनको सब मालूम है कि ये क्‍या कर रहे है.. और ये कर भी इसलिए नहीं रहे हैं कि इनको कुछ करना है। दरअसल इन्‍हें खुद को कुछ करते हुए दिखाना है, इसलिए ये करने जैसा कुछ-कुछ कर रहे हैं।

है ना मजेदार पहेली… सुनकर गश आ गया होगा। आना भी चाहिए। वो पहेली ही क्‍या जो सामने वाले को चक्‍कर में न डाल दे, उसे गश न आ जाए। और मेरा इरादा भी यही है कि या तो आप गश खाकर गिर पड़ें या फिर आपका दिमाग चकरघिन्‍नी हो जाए। यह चार पांच लाइन का घुमावदार पैराग्राफ मैंने पटका ही इसलिए है कि आपका दिमाग भेरू हो जाए और आप इन्‍हीं लाइनों में अटक जाएं। क्‍योंकि यदि आप होश हवास में रहे तो सवाल पूछ सकते हैं कि बारिश के दिनों में प्रदेश के कई शहर बदहाल हैं और ये सरकार और इस सरकार के जिम्‍मेदार/गैर जिम्‍मेदार विभाग आखिर कर क्‍या रहे हैं?

अब आप तो हर बात में हंसने लगते हैं। गंभीरता नामकी तो चीज ही नहीं है आप में। अब जिम्‍मेदार के साथ गैर जिम्‍मेदार नत्‍थी करने में हंसने जैसी क्‍या बात है भला? किसी भी घटना-दुर्घटना, कर्म-अकर्म के लिए कोई विभाग जिम्‍मेदार होता है और कोई जिम्‍मेदार नहीं होता। चाहें तो इसे एक उदाहरण से समझ लें- मान लीजिए सड़क के गड्ढों की चपेट में आकर कोई यात्री बस पलट जाए और उसमें कई लोग हताहत हो जाएं। आप इसके लिए ज्‍यादा से ज्‍यादा सड़क बनाने से संबंधित विभाग को या परिवहन विभाग को दोषी ठहरा सकते हैं, इसके लिए स्‍वास्‍थ्‍य विभाग को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता ना? तो एक हुए जिम्‍मेदार विभाग और दूसरे हुए गैर जिम्‍मेदार, यानी वो जो उस दुर्घटना के लिए जिम्‍मेदार नहीं है। (इससे ज्‍यादा सोदाहरण व्‍याख्‍या मैं नहीं कर सकता, मानना हो तो मानो नहीं तो…)

वैसे हम बात कर रहे थे कुछ लोगों के कुछ कुछ करने की। तो बात राजधानी से ही शुरू करते हैं। वो कहते हैं ना हाथी के पांव में सबका पांव, वैसे ही राजधानी की दुर्दशा में पूरे प्रदेश की दुर्दशा ! तो बारिश से हुई बदहाली के बाद राजधानी का नगर निगम और राजधानी के अफसरान रोज खबरें छपवा रहे हैं कि उन लोगों को नोटिस जारी किए जा रहे हैं, जिन्‍होंने नाले नालियों पर अतिक्रमण किए हुए हैं। भारी बारिश के दौरान शहर से पानी की निकासी में रोड़ा बने इन अतिक्रमणों को बख्‍शा नहीं जाएगा।

अच्‍छा… जब भी अफसर ऐसी बातें करते हैं, लोग हंसने लगते हैं। उनको भी पता है ये सारी बातें ऐं वें ही हो रही हैं, होना जाना कुछ है नहीं। इसलिए वे संजीदा होने के बजाय ऐसी अफसर भभकियों के मजे लेने लगते हैं। (वैसे मूल कहावत गीदड़ भभकी की है, लेकिन अपने मोहल्‍ले में तो सभी शेर होते हैं, इसलिए ज्‍यादा रिस्‍क लेना ठीक नहीं है)

मैंने जब ये नोटिस-फोटिस वाले बयान पढ़े तो मैं इन अफसरों के भविष्‍य को लेकर चिंतित हो गया। तत्‍काल मुझे ईसा याद आए, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्‍होंने खुद को सूली पर लटकाने वालों के लिए कहा था- हे ईश्‍वर इन्‍हें माफ करना,ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे हैं। मुझे लगा या तो ये अफसर भी नहीं जानते कि ये क्‍या कह रहे हैं या फिर इन्‍होंने अखबारादि पढ़ना बंद कर दिया है।

और इसीलिए, इन मासूम अफसरों की आजीविका की खातिर, व्‍यापक अफसरहित में, यह बताना जरूरी है कि ऐसा कोई भी नोटिस तैयार करने से पहले ये सारे लोग साल छह महीनों के अखबारों का अध्‍ययन कर लें। उसमें देख लें कि संवेदनशील सरकार माई-बाप ने खुद अपने श्रीमुख से कब-कब, क्‍या-क्‍या कहा है। यदि वे ध्‍यान से देखेंगे तो उन्‍हें करीब करीब सारे अखबारों में यह बयान सुनहरे अक्षरों में चमकता हुआ मिल जाएगा कि ‘’जो जहां है वह वहीं रहेगा, मेरे जीते जी कोई माई का लाल उसे नहीं हटा सकता।‘’

तो बेहतर होगा ये अफसर न तो माई का लाल बनने की कोशिश करें और न माइकल बनने की। पानी का क्‍या है वो तो हर साल आता है। एक साल नहीं आया तो दूसरे साल आ जाएगा। शहर का क्‍या है वह हर साल ऐसे ही बरबाद होता है। एक साल नहीं होगा तो दूसरे साल हो जाएगा। नाले का क्‍या है वह तो सूखता बहता रहता है। एक साल उफान पर तो दूसरे साल ऐसा लगेगा मानो वहां चूहा भी न मूता हो। कहने का आशय यह कि ये सब बातें तो आनी जानी हैं, कभी कम कभी ज्‍यादा। जो अटल है, जो ध्रुव सत्‍य है वो है पांच साल में आने वाला चुनाव और चुनाव में मिलने वाले वोट। जिन मासूम या अतिउत्‍साही अफसरों अथवा माई के लालों को यह पता नहीं वे जान लें कि वोट भी इन्‍हीं नालों से बहकर आते हैं। आप की मंशा भले ही उफनते नालों के पानी का निकास सुगम बनाने की हो, लेकिन गलती से भी आप यह कर बैठे तो वोटों का उफान कैसे आएगा?

और इसीलिए आप मेरे इस प्रश्‍न को, नेक सलाह मानते हुए सोचें कि- आपको नौकरी करनी है या नहीं…?

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