सोमवार को मैंने कश्मीर में इंटरनेट पर पाबंदी और धारा 144 लागू किए जाने के तौर तरीकों को लेकर 10 जनवरी को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अवधारणात्मक पक्ष की बात की थी। कई तरह की दलीलों और तहरीरों से भरा 130 पेज का यह फैसला कानूनी रूप से भी बहुत कुछ कहता है। इसमें न सिर्फ प्रेस की आजादी के बारे में कहा गया है बल्कि बात बात पर सीआरपीसी की धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करने को लेकर भी प्रशासनिक मशीनरी को नसीहतें दी गई हैं।
पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने की आशंका के नाम पर सरकारें ताबड़तोड़ मनमाने ढंग से दो काम कर रही हैं। एक इंटरनेट या मोबाइल नेटवर्क को बंद कर देना और दूसरा धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर देना। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के दौरान उस समय तो हद ही हो गई थी जब 19 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के प्रदेशव्यापी प्रदर्शन के आह्वान को देखते हुए पूरे उत्तरप्रदेश में धारा 144 लागू कर दी गई थी।
कोर्ट ने इस बात पर नाखुशी जाहिर की है कि सरकारें इंटरनेट और मोबाइल सेवाओं को स्थगित कर देती है या धारा 144 के तहत पांच से अधिक लोगों के इकट्ठा होने आदि पर निषेधाज्ञ लागू कर देती हैं लेकिन उन आदेशों को आम जनता के लिए सार्वजनिक नहीं किया जाता। ऐसे में लोगों को पता ही नहीं चलता कि आखिर आदेश में क्या लिखा है, वह क्यों जारी किया गया है और वह कब तक लागू रहेगा।
इस विसंगति को दूर करने के लिए कोर्ट ने आदेश दिया है कि भविष्य में जब भी इंटरनेट या मोबाइल सेवाएं स्थगित की जाएं या फिर निषेधाज्ञा लागू की जाए तो उसका स्पष्ट आदेश आम जनता के लिए सार्वजनिक किया जाए ताकि उससे प्रभावित होने वाले लोग, उस मजमून के आधार पर, आदेश को हाईकोर्ट में या उचित फोरम पर चुनौती दे सकें। ऐसा करके कोर्ट ने सरकारों या स्थानीय प्रशासनों द्वारा जारी किए जाने वाले ऐसे आदेशों को न्यायालय में चुनौती देने की प्रक्रिया को और अधिक आसान बना दिया है।
कोर्ट ने यह भी कहा है कि संचार सेवाओं को स्थगित करने का कोई भी आदेश अनिश्चितकालीन नहीं हो सकता। वह अस्थायी और किसी निश्चित अवधि के लिए होगा और उस वांछित अवधि के बाद उसे बढ़ाया नहीं जा सकता। आदेश लागू रहने की दशा में एक रिव्यू कमेटी गठित करना होगी जो परिस्थितियों का आकलन कर आदेश को जारी रखने या न रखने की समीक्षा करेगी।
इसी तरह धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करने को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने बहुत स्पष्ट दिशानिर्देश दिए हैं। उसने कहा है कि धारा 144 जहां निदानात्मक है वहीं वह एहतियातन भी है। इसका उद्देश्य कानून के पालन में लगे लोगों के लिए निर्बाध रूप से काम करने लायक स्थितियां निर्मित करने के साथ ही उन्हें होने वाली किसी भी तरह की शारीरिक हानि से बचाना है। पर यह उपाय ‘आपातकालीन’ स्थितियों के लिए ही है। इसे तथ्यों के आधार पर ही लागू किया जाए और लागू करने के आदेश से स्पष्ट रूप से यह महसूस हो कि फैसला करते समय दिमाग का समुचित इस्तेमाल किया गया है।
कोर्ट ने बहुत साफ साफ कहा है कि निषेधाज्ञा का उपयोग वैधानिक रूप से अपना मत या विरोध प्रकट करने वालों तथा किसी भी लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल करने वालों को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता। इसे लागू करने का आदेश देने वाले मजिस्ट्रेट के लिए जरूरी है कि वह अधिकारों और प्रतिबंधों के बीच आनुपातिकता के सिद्धांत के तहत संतुलन बनाए और हस्तक्षेपकारी कदम कम से कम उठाए। निषेधाज्ञा का बार बार लगाया जाना अधिकारों का दुरुपयोग माना जाएगा।
कोर्ट ने सबसे महत्वपूर्ण बात जो कही है वो यह है कि वह इंटरनेट के माध्यम से बोलने और अभिव्यक्त करने, कोई भी वृत्ति या व्यापार संचालित करने आदि को भी संविधान के अनुच्छेद 19 (1) और अनुच्छेद (1) (जी) के तहत संरक्षित माना जाएगा। इन पर लागू होने वाला कोई भी प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) और (6) के अनुरूप ही होगा। कोर्ट ने संविधान के जिस अनुच्छेद 19 का जिक्र किया है उसमें अभिव्यक्ति की आजादी सहित नागरिकों को कई अधिकार दिए गए हैं।
कोर्ट के इस फैसले से कुछ बातें सरकारों और प्रशासनों के लिए स्पष्ट हो जानी चाहिए। पहली तो यह कि वे मनमाने ढंग से और अनिश्चितकाल के लिए लोगों की ऐसी किसी गतिविधि को प्रतिबंधित नहीं कर सकते जिसका संबंध उनके रोजमर्रा के जीवन को संचालित करने वाली गतिविधियों से हो। इसमें इंटरनेट और मोबाइल सेवा जैसी सेवाओं को शामिल कर कोर्ट ने नागरिकों के अधिकार को और अधिक विस्तृत और मजबूत बनाया है।
लेकिन जैसाकि मैंने सोमवार को कहा था, अब लोगों की भी जिम्मेदारी है कि वे कोर्ट की भावना के अनुरूप ऐसा कोई व्यवहार न करें जो सुरक्षा और आजादी के संतुलन को बिगाड़ने वाला हो। कोर्ट जब यह कहता है कि वह इंटरनेट के जरिये बोलने और स्वयं को अभिव्यक्त करने को मौलिक अधिकार की श्रेणी में मानता है तो वह आपकी अभिव्यक्ति की आजादी का न सिर्फ सम्मान कर रहा है बल्कि उसे और मजबूत बनाते हुए उसमें सत्ता के हस्तक्षेप को कम कर रहा है।
पर इस अधिकार का मतलब यह भी नहीं है कि इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हम चाहे जो कहने और करने लगें। कोर्ट ने तो इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आजादी को आज मौलिक अधिकारों के समकक्ष माना है, लेकिन हमने तो इसे कब का अपना अधिकार मान लिया है। और न सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति का बल्कि दूसरे के अपमान का या दूसरे को लांछित और प्रताडि़त करने का हथियार भी बना डाला है।
आजादी एक ऐसा शब्द है जो हमें मनुष्य होने की गरिमा प्रदान करता है। इस गरिमा का मूल तत्व है मनुष्यता या इंसानियत। यदि हमने सिर्फ कथित आजादी को चुना और इंसानियत को तिलांजलि दे दी तो यकीन जानिए ऐसे किसी भी अधिकार का समाज में कोई मोल नहीं रह जाएगा। अंतत: वह समाज में विष बेल का ही काम करेगा। जैसाकि अधिकतर मामलों में इन दिनों हो रहा है।