गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश में करीब नौ साल पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नाम पर भोपाल में सुशासन एवं नीति विश्लेषण संस्थान स्थापित किया गया था। इसकी कल्पना सुशासन एवं नीति निर्माण के ‘थिंक टैंक’ के रूप में की गई है। यह संस्थान प्रशासन को जन-केन्द्रित और जनोन्मुखी बनाने के लिये मंच उपलब्ध करवाता है।
इस संस्थान की बात इसलिए उठी क्योंकि हाल ही में वहां एक घटना हुई। वैसे संस्थान के लिहाज से तो यह रूटीन मामला था, लेकिन मैंने घटना इसलिए कहा क्योंकि उसके साथ खबर का तत्व भी जुड़ गया। हुआ यूं कि पिछले दिनों मध्यप्रदेश के शिवराजसिंह मंत्रिमंडल के विस्तार के दौरान जो नए राज्य मंत्री बनाए गए हैं, उन सभी को यहां शासन प्रशासन की प्रक्रियाओं की ट्रेनिंग देने के लिए बुलाया गया।
नए मंत्रियों की यह ट्रेनिंग खबर इसलिए बनी क्योंकि, उनकी क्लास राज्य के पूर्व मुख्य सचिव और वर्तमान में राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त आर. परशुराम ने ली। इसी ट्रेनिंग पर केंद्रित एक टीवी चैनल की चर्चा में मैं भी शामिल था। वहां प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता जे.पी.धनोपिया ने सवाल उठाया कि क्या अब मध्यप्रदेश में अफसर मंत्रियों को सिखाएंगे कि कैसे काम करना है? और जब अफसर जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों को ट्रेनिंग देंगे, तो अंदाज लगाया जा सकता है कि प्रदेश में किस तरह का ‘सुशासन’ आएगा। कांग्रेस के इस सवाल पर भाजपा के मीडिया इंचार्ज डॉ. हितेष वाजपेयी का कहना था कि ऐसी ट्रेनिंग कोई नई बात नहीं है। पूर्व मुख्य सचिव को इसलिए बुलाया गया था, ताकि वे पहली बार बने मंत्रियों को सरकारी कामकाज की प्रक्रिया और नियमों आदि के बारे में बता सकें। इस काम के लिए पूर्व मुख्य सचिव से बेहतर व्यक्ति और कौन हो सकता है?
टीवी पर बहस में और भी कई मुद्दे उठे। इसी दौरान डॉ. वाजपेयी ने कहा कि हम यह प्रक्रिया जारी रखेंगे और हो सकता है कि मीडिया के वरिष्ठ लोगों को बुलाकर एक सत्र उनका भी रखा जाए, जो मंत्रियों को बता सकें कि मीडिया के साथ किस तरह संवाद करना है। सवालों के जवाब देते समय क्या सावधानियां रखनी हैं।
डॉ. वाजपेयी के इस सुझाव ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। पहला ख्याल यही आया कि सबसे पहली आवश्यकता भाजपा नेताओं के लिए शायद यही सीखने की है कि वे मीडिया या सार्वजनिक मंचों पर क्या बोलें, किस तरह बोलें और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात कि क्या नहीं बोलें। चाहे केंद्र की दो साल पुरानी मोदी सरकार हो या एक दशक से ज्यादा पुरानी मध्यप्रदेश की शिवराजसिंह सरकार। ये सरकारें विपक्ष के आरोपों के बजाय भाजपा के नेताओं और खुद अपने ही मंत्रियों के बयानों के कारण मुसीबत में पड़ती रही हैं। कभी कभी लगता है कि हर बात पर बुक्का फाड़ने के बजाय ये लोग चुप रहने का हुनर सीख लें, तो इनकी सरकारें ज्यादा अच्छी तरह चल सकती हैं।
अकसर किसी भी बात पर बवाल होने के बाद मीडिया को दोष दिया जाने लगता है। मैं मीडिया को ‘गोमाता’ तो नहीं कहता, लेकिन उसे दोष देने के बजाय मंत्रियों और नेताओं को यह कला सीखनी चाहिए कि क्या बोलना है और कैसे बोलना है। याद कीजिए अटलबिहारी वाजपेयी के उस एक शब्द को, जिसने उस समय की पूरी राजनीति को उधेड़ कर रख दिया था। भारत की राजनीति में वैसी मिसाल मिलना मुश्किल है। घटना गुजरात से जुड़ी है, सांप्रदायिक दंगों के बाद वहां के दौरे पर पहुंचे प्रधानमंत्री वाजपेयी से तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में जब पूछा गया कि राज्य सरकार के लिए आपका क्या संदेश है, तो वाजपेयी ने कहा- राजधर्म का पालन। उस समय वाजपेयी के मुंह से निकला वह ‘राजधर्म’ शब्द आज भारतीय राजनीति का बहुप्रचलित मुहावरा बन चुका है। ऐसा लगता है कि आज के मंत्रियों और नेताओं को ‘राजधर्म’ से भी ज्यादा ‘शब्दधर्म’ का पालन करना सिखाया जाना चाहिए।
एक और मुद्दा जो मैंने उस बहस में उठाया और जिसे भाजपा प्रवक्ता ने मेरी व्यंग्योक्ति कहकर टाल दिया, उस पर भी विचार होना जरूरी है। मेरा सुझाव था कि जिस तरह पूर्व प्रशासनिक अफसरों व अन्य विशेषज्ञों को बुलाकर नियम प्रक्रिया आदि की जानकारी नए मंत्रियों को दिलवाई जा रही है, क्या उसी तरह एकाध सत्र राज्य के पूर्व लोकायुक्तों का भी कराया जाएगा? ऐसा इसलिए ताकि वो नए मंत्रियों को बता सकें कि भ्रष्टाचार किस किस तरह किया जाता है और उससे वे कैसे बचें या उसे वे कैसे रोकें? (या भ्रष्टाचार से जुड़े और भी मुद्दे जिन्हें नए मंत्रियों के संज्ञान में लाना वे जरूरी समझते हों…)
जैसा कि मैंने कहा, उस बहस में तो मेरा यह सुझाव हंसी में टाल दिया गया, लेकिन आप मेरे इस सुझाव पर क्या कहते हैं, बताइएगा जरूर।