भगवान तो छोड़िये क्या इंसान भी कहलाने लायक है यह!

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डॉ. नीलम महेंद्र

‘’एक अच्छा चिकित्सक बीमारी का इलाज करता है, एक महान चिकित्सक बीमार का– विलियम ओसलर।‘’

मध्यप्रदेश का एक शहर ग्वालियर, स्थान जे.ए.अस्पताल, एक गर्भवती महिला ज्योति 90% जली हुई हालत में रात 12 बजे अस्पताल में लाई गई, उनके साथ उनकी माँ और भाई भी जली हुई हालत में थे। ज्योति और उसकी माँ को बर्न यूनिट में भर्ती कर लिया गया लेकिन उसके भाई सुनील को लगभग दो घंटे तक बाहर ही बैठा कर रखा। उसके बाद जब सुनील का इलाज शुरू किया गया तब तक काफी देर हो चुकी थी और उन्होंने दम तोड़ दिया। जब घरवालों ने इस घटना के लिए समय पर इलाज न करने का आरोप डाक्टरों पर लगाया तो यह ‘ धरती के भगवान’ नाराज हो गए और 90% जली हुई गर्भवती ज्योति को बर्न यूनिट से बाहर निकाल दिया और वह इस स्थिति में करीब 5 घंटे खुले मैदान में पड़ रही। जब एक स्थानीय नेता बीच में आए तो इनका इलाज शुरू हुआ। इससे पहले डाक्टरों का कहना था कि ‘ तू ज्यादा जल गई है… जिंदा नहीं बचेगी… तेरा बच्चा भी पेट में मर गया है …’ ( सौजन्य दैनिक भास्कर)

क्या यही वह सपनों का भारत है जिसके लिए भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव हँसते हुए फाँसी पर झूल गए थे? क्या इसी प्रकार के भारत का स्वप्न राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी ने देखा था? क्या यह भारत विश्व गुरु बन पायेगा?

जिस डॉक्टर को हम ईश्वर का दर्जा देते हैं, जो डॉक्‍टर अपनी डिग्री लेने से पूर्व मानवता की सेवा करने की शपथ लेते हैं, जिनके पास न सिर्फ मरीज अपितु उनके परिजन भी एक विश्वास एक आस लेकर आते हैं उनका इस प्रकार का अमानवीय व्यवहार किस श्रेणी में आता है? क्यों आज चिकित्सा क्षेत्र सेवा न होकर व्यवसाय बन गया है?

आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे बड़े देश भारत में न सिर्फ स्वास्थ्य सेवाएं दयनीय स्थिति में हैं बल्कि जिन हाथों में देश के बीमार आम आदमी का स्वास्थ्य है उनकी स्थिति उससे भी अधिक चिंताजनक है। यह बात सही है कि कुछ डॉक्‍टरों के शर्मनाक व्यवहार के कारण सम्पूर्ण डॉक्टरी पेशे को कटघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए किन्तु यह भी सत्य है कि मुट्ठी भर समर्पित डॉक्टरों के पीछे इन अनैतिक आचरण करने वाले डॉक्टरों को छिपाया भी नहीं जा सकता।

बात अनैतिक एवं अमानवीय आचरण तक सीमित नहीं है। बात यह है कि आज मानवीय संवेदनाओं का किस हद तक ह्रास हो चुका है! जिस डॉक्टर को मरीज की आखिरी सांस तक उसके जीवन की जंग जीतने में साथ देना चाहिए वही उसे मरने के लिए छोड़ देता है! उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारती नहीं है, किसी कार्रवाई का उसे डर नहीं है। एक इंसान की जान की कोई कीमत नहीं है? क्यों आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी आज भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का एक मजबूत ढांचा तैयार नहीं हो पाया? क्यों आज तक हम एक विकासशील देश हैं? क्यों हमारे देश का आम आदमी आज तक मलेरिया और चिकनगुनिया जैसे रोगों से मर रहा है और वो भी देश की राजधानी में! जब श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों ने इन पर विजय प्राप्त कर ली है तो भारत क्यों आज तक एक मच्छर के आगे घुटने टेकने पर विवश है?

अगर प्रति हजार लोगों पर अस्पतालों में बेड की उपलब्धता की बात करें तो ब्राजील जैसे विकासशील देश में यह आंकड़ा 2.3 है, श्रीलंका में 3.6 है, चीन में 3.8 है जबकि भारत में यह 0.7 है। सबसे अधिक त्रासदी यह है कि ग्रामीण आबादी को बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं के लिए न्यूनतम 8 किमी की यात्रा करनी पड़ती है।

भारत सकल राष्ट्रीय आय की दृष्टि से विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है लेकिन जब बात स्वास्थ्य सेवाओं की आती है, इसका बुनियादी ढांचा कई विकासशील देशों से भी पीछे है। अमेरिका जहाँ अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 17% स्वास्थ्य पर खर्च करता है वहीं भारत में यह आंकड़ा महज 1% है। अगर अन्य विकासशील देशों से तुलना की जाये तो बांग्लादेश 1.6%, श्रीलंका 1.8% और नेपाल 1.5% खर्च करता है। ऐसे में हम स्वयं अपनी चिकित्सा सेवा की गुणवत्ता का अंदाजा लगा सकते हैं। भारत एक ऐसा देश है जिसने अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार प्रति 1000 आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए लेकिन भारत इस अनुपात को हासिल करने की दिशा में भी बहुत पीछे है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50% डाक्टरों की कमी है। शायद इसीलिए केंद्र सरकार ने अगस्त 2015 में यह फैसला लिया था कि वह विदेशों में पढ़ाई करने वाले डाक्टरों को ‘ नो ओब्लिगेशन टू रिटर्न टू इंडिया’ अर्थात् एनओआरआई सर्टिफ़िकेट जारी नहीं करेगी जिससे वे हमेशा विदेशों में रह सकते थे।

चिकित्सा और शिक्षा किसी भी देश की बुनियादी जरूरतें हैं और वह हमारे देश में सरकारी अस्पतालों एवं स्कूलों में मुफ्त भी हैं लेकिन दोनों की ही स्थिति दयनीय है। सरकारी अस्पतालों में डाक्टर मिलते नहीं हैं और मिल जाएं तो भी ठीक से देखते नहीं हैं। अगर आपको स्वयं को ठीक से दिखवाना है तो या तो किसी बड़े आदमी से पहचान निकलवाइए या फिर पैसा खर्च करके प्राइवेट में दिखवाइए। आज आए दिन अस्पतालों में कभी किडनी रैकेट तो कभी खून बेचने का रैकेट या फिर बच्चे चोरी करने का रैकेट अथवा भ्रूण लिंग परीक्षण और फिर कन्या भ्रूण हत्या इस प्रकार के कार्य किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार ने कानून नहीं बनाए फिर ऐसी क्या बात है कि न तो उनका पालन होता है और न ही कोई डर है। क्यों सरकारी अस्पतालों की हालत आज ऐसी है कि बीमारी की स्थिति में एक मध्यम वर्गीय परिवार सरकारी अस्पताल में इलाज कराने के बजाय प्राइवेट अस्पताल का महंगा इलाज कराने के लिए मजबूर है । एक आम भारतीय की कमाई का एक मोटा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है। आजादी के इतने सालों बाद भी हमारी सरकार अपने देश के हर नागरिक के स्वास्थ्य के प्रति असंवेदनशील है। जिस आम आदमी की आधी से भी अधिक कमाई और उसकी पूरी जिंदगी अपनी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करते निकल जाती हो उससे आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं। जिन सुविधाओं और सुरक्षा के नाम पर उससे टैक्स वसूला जाता है उसका उपयोग न तो उसके जीवन स्तर को सुधारने के लिए हो रहा हो और न ही देश की उन्नति में , जिस आम आदमी की इस देश से बुनियादी  अपेक्षाएँ  पूरी न हो रही हों वह आम आदमी इस देश की अपेक्षाएँ कैसे पूरी कर पाएगा?

अगर इस देश और इसके आम आदमी की दशा को सुधारना है तो राष्ट्रीय इन्श्योरेन्स मिशन को लागू करने की दिशा में कड़े और ठोस कदम उठाने होंगे।

 

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