गांधी का जिक्र हो और युद्ध और शांति की बात न हो यह कैसे हो सकता है। हथियारों की होड़ के वैश्विक परिदृश्य में युद्ध पिपासा किस कदर बढ़ी है और इसने मानवता और मानव मूल्यों के लिए कैसा संकट खड़ा किया है, इसका बहुत ही तफसील से ब्योरा दिया विकास संवाद के सचिन जैन ने।
सचिन जैन किसी भी विषय को बहुत तार्किक और विश्लेषणपरक तरीके से उठाते हैं। विश्व के आर्थिक परिदृश्य से बात शुरू करते हुए उन्होंने कहा कि चाहे मेक इन इंडिया हो या अमेरिका फर्स्ट, दोनों की जड़ में बेरोजगारी का मुद्दा है। खुले बाजार की नीतियों ने अमेरिका तक के सामने बेरोजगारी का संकट खड़ा कर दिया है। इंग्लैंड यूरोपीय संघ से अलग हो गया है।
इन हालात में गांधी इसलिए याद आते हैं क्योंकि उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकेंद्रीकरण की बात की थी। केंद्रीकरण की व्यवस्था में ताकत की जरूरत होती है और उसे स्थापित करने के लिए युद्ध को हथियार बनाया जाता है। आज पूरी दुनिया में युद्ध की रचना भी आर्थिक नीतियों का बहुत बड़ा आधार है।
2008 में, जब दुनिया में आर्थिक मंदी की बात हो रही थी, तब भी अशांति और हिंसा का आर्थिक प्रभाव 12.4 ट्रिलियन डालर था। अगले सात सालों में यह 2ट्रिलियन डालर बढ़ कर 14.3 ट्रिलियन डालर हो गया।
यह राशि कितनी बड़ी है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इससे भारत में 4.65 लाख मेडिकल कॉलेज खोले जा सकते हैं। भारत के हर गांव को 156 करोड़ रुपए दिए जा सकते हैं। और दुनिया की बात करें तो पूरी दुनिया में 14.30 करोड़ स्कूल खुल सकते हैं।
दुर्भाग्य की बात है कि बुद्ध, महावीर और गांधी का भारत भी हथियारों की दौड़ में पीछे नहीं है। आज हम सबसे ज्यादा हथियार खरीदने वाला देश हैं। दुनिया के हथियार बाजार का 14 प्रतिशत भारत आयात करता है। जबकि सऊदी अरब और चीन 5-5 तथा पाकिस्तान 4 प्रतिशत आयात करता है।
अगर दुनिया में शान्ति स्थापित हो जाए और युद्धों को बंद कर दिया जाए, तो पांच साल में जितना धन बचेगा, उससे पूरी दुनिया की आर्थिक गरीबी मिटाई जा सकती है। इससे दुनिया के लोगों पर से 4.80 अरब रुपए का आर्थिक बोझ घट जाएगा।
आज विकास को सकल घरेलू उत्पाद से नापा जाता है। इसका मतलब तो यह हुआ कि यदि हथियारों की बिक्री बढ़ेगी तो भी सकल घरेलू उत्पाद बढ़ेगा। यानी अच्छे समाज की स्थापना के लिए हमें हथियारों का बाजार बंद करना होगा। और यदि ऐसा किया तो आर्थिक विकास पर गहरा असर पड़ेगा।
सचिन का कहना था कि भारत लगभग 3400 अरब रुपए के हथियार खरीदता है। जब इतने बड़े आर्थिक हित हों, तो शान्ति कैसे हासिल हो? यदि शान्ति हासिल कर ली तो खरबों रुपए का व्यापार बंद न हो जाएगा और इस व्यापार के बंद होने का मतलब है सकल घरेलू उत्पाद में कमी।
सचिन ने बताया कि वर्ष 2016 में दुनिया में घटी हिंसक घटनाओं-युद्धों की लागत 14.3 ट्रिलियन डालर (949000 अरब रूपए) रही। यह पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 12.6 प्रतिशत हिस्सा था। यानी एक मायने में युद्ध व हिंसक घटनाओं पर प्रति व्यक्ति औसतन 1953 डालर (1.30 लाख रुपए) का खर्च आया।
दरअसल आज एक चुनौती यह भी है कि हम यह मानते हैं कि मैं तो हिंसा या किसी की हत्या नहीं कर रहा हूं ना? हम यह महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि हिंसा का माहौल बनाने और किसी के भी साथ हिंसा होने पर चुप रह जाने का मतलब भी हिंसा में शामिल होना ही है।
जब भावनाओं को हिंसा के लिए तैयार किया जा रहा हो और जब स्कूल, स्वास्थ्य और खेती का बजट छीन कर हथियारों की खरीद के लिए दिया जाए, तब भी क्या हमें चुप रहना चाहिए? जो भी इस खर्च पर सवाल उठाता है उसे देशद्रोही और दुश्मन का प्रतिनिधि करार दे दिया जाता है। यह कैसी देशभक्ति है, जिसमें लाखों बच्चों का बीमारी से मरना जायज़ मान लिया जाता है!
लेकिन शायद सचिन बहुत ज्यादा मानवतावादी होकर सोच रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि हथियारों के सौदे पोलिटिकल पार्टियों को राजनैतिक और आर्थिक दोनों तरह से सूट करते हैं। अहिंसा और शांति न तो वोट दिलाती है और न ही नोट। जबकि हिंसा और अशांति में दोनों संभावनाएं भरपूर हैं, दोनों फायदे का सौदा हैं।
सचिन जैन ने दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा सहानुभूति और समानुभूति का उठाया। उन्होंने कहा कि हम समानुभूति को मिटा कर विकास कर रहे हैं। बचपन से ही अव्वल रहने और हर हाल में प्रतिस्पर्धा को जीतने का पाठ पढ़ा रहे हैं। इस पाठ में समानुभूति का तत्व नदारद है।
हम शिक्षा में बच्चों को ‘दूसरे’ के बारे में गहनता से सोचना-विचारना और उसे महसूस करना नहीं सिखाते। हमारे नीति नियंताओं में ‘समानुभूति’ का तत्व खत्म हो चुका है। नीति बनाते समय उन्हें आंकड़े चाहिए अहसास नहीं। वे यह महसूस ही नहीं कर पाते कि उनकी विकास नीति से जो जहर उपज रहा है उससे चिड़िया मर रही है, नदी जहरीली हो रही है और धुंआ बच्चों के फेफड़ों में जम रहा है।
भारत के संविधान में समानुभूति का भाव दिखाई देता है, लेकिन यह संविधान यदि आज बना होता तो उसमें शायद इसका अभाव होता। हमारे लिए किसी और की परिजन के साथ बलात्कार किसी दूसरे के साथ हुआ अपराध है, हम खुद को उसकी पीड़ा से जोड़कर देखने की संवेदना खोते जा रहे हैं।
किसी भी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए, संगठित होकर आतंक का विस्तार कर रहे समूह, बच्चों की हत्याएं और महिलाओं से बलात्कार इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वे इन घटनाओं के शिकार लोगों की पीड़ा को महसूस करने की क्षमता खो चुके हैं।
गांधी इसलिए याद आते हैं क्योंकि वे मानवीय सरोकारों की और मनुष्य से मनुष्य की संवेदना को जोड़े रखने की बात करते हैं। (जारी)