अजय बोकिल
लगता है ‘आडवाणी हो जाना’ अब राजनीति के साथ साहित्यिक मुहावरा भी बनने जा रहा है। क्योंकि ‘आडवाणी हो जाने’ में इतने भाव, परिस्थितियां और परिणाम छुपे हुए हैं कि हिंदी तो क्या समूचा भारतीय साहित्य उसकी ज्यादा दिन उपेक्षा नहीं कर सकता। इस थ्योरी की पुष्टि इसी बात से हो जानी चाहिए कि आम आदमी पार्टी के (बागी) नेता कवि कुमार विश्वास ने यूपी के इटावा में आयोजित कवि सम्मेलन में कहा कि मैं और (समाजवादी पार्टी के नेता) शिवपालसिंह दोनों अपनी अपनी पार्टी में आडवाणी हो गए हैं। मतलब कि दोनों की हालत घर में रहकर भी बेघर जैसी है। दोनो शक के धूसर दायरों में अपने सियासी वजूद के लिए जी तोड़ संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन मंजिल पास आकर भी दूर चली जाती है।
पहले इस बात को समझना जरूरी है कि कुमार विश्वास ने आखिर ऐसा क्यों कहा? अमूमन बरसों तक मंच लूटने वाले हिंदी कवि कुमार विश्वास ने जब आम आदमी पार्टी ज्वाइन कर राजनीति में प्रवेश किया था, तब देश को लगा था कि ‘पागल और दीवाना सा’ लगने वाला मीठे गले का यह कवि सियासत में नया रस पैदा करेगा। कुमार को भी लगा कि राजनीति में कवियों की कमी है। यह उनके आने से यह पूरी हो सकेगी। कुछ नया करने के संकल्प और सिर पर सफेद टोपी पहले कुमार देश को कुछ समय के लिए क्रांतिकारी लगने लगे थे। लगा था कि देश की दशा दिशा और तासीर बदलेगी। इसी जोश में उन्होंने राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा और खेत रहे। कुछ समय बाद ‘आप’ की टोपी भी उनके सिर से गायब दिखी।
कुमार अपनी बात काव्यात्मक ढंग से कहते हैं लेकिन अरविंद केजरीवाल इसका अभिधात्मक अर्थ ले लेते हैं। उनकी राजनीतिक निष्ठा संदिग्ध हो जाती है। लिहाजा कुमार की पतंग हर उस मुंडेर पर कट जाती है, जहां से उनका राजनीतिक कॅरियर उड़ान भरने को होता है। वर्तमान में वो सत्ता के महल के सामने लगी म्युनिसिपालिटी की बेंच पर बैठकर राजपथ के आते-जाते राहगीरों को हसरत भरी निगाहों से तकते रहते हैं।
दूसरा सवाल यह कि कुमार ने ‘आडवाणी’ होने में शिवपाल को अपना ‘भिड़ू’ क्यों माना? शिवपालसिंह यादव समाजवादी पार्टी के उस खेमे में हैं, जिसे खुद पार्टी ही अपना नहीं मानती। कभी सपा सरकार में बैक सीट ड्राइविंग करने वाले शिवपाल का राजनीतिक ग्राफ बड़े भैया मुलायमसिंह के आशीर्वाद से शुरू होकर उन्हीं के स्वस्तिवाचन पर ठहर गया है। यूपी विधानसभा चुनाव में सपा के सफाए के बाद शिवपाल के पास शिव आराधना के अलावा कोई खास काम नहीं बचा है। हालांकि कुमार और शिवपाल के राजनीतिक ग्राफ और उमर में अंतर होने के बाद भी समानता यह है कि दोनो खाली बैठे हैं और दोनों के कभी भी भाजपा ज्वाइन करने की हवाएं हर मौसम में चलती रहती हैं। अलबत्ता कुमार लोगों का मनोरंजन भी कर सकते हैं, लेकिन शिवपाल देसी अखाड़े के आदमी हैं।
लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति का एक बेहद सम्मानित नाम हैं। उन्हें राजनीति का जीवित तपस्वी माना जाता है। संघ के प्रचारक से लेकर देश के उपप्रधानमंत्री तक के पदों को उन्होंने सुशोभित किया। उन्होंने हिंदुत्व की अपने ढंग से बौद्धिक व्याख्या की। जीवन में जितनी यात्राएं कीं, उससे ज्यादा यात्राएं निकालीं जैसे कि राम रथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा, भारत सुरक्षा यात्रा और अंतिम जनचेतना यात्रा। अपनी सुदीर्घ देश सेवा के लिए वे पद्मविभूषण से विभूषित हुए। उनकी यह साधना अब मार्गदर्शक मंडल में विराम ले चुकी है।
अब प्रश्न उठता है कि कुमार ने खुद की और शिवपाल की तुलना आडवाणी से करने का दुस्साहस क्यों किया? दोनों तो आडवाणी की परछाईं भी नहीं है। इन दोनों के जमा खातों में मौजूद उपलब्धियां भी आडवाणी की तुलना में नगण्य ही हैं। इसके बावजूद कुमार को अपने ‘आडवाणी हो जाने’ का गिल्ट है तो इसका कारण वह त्यक्त भाव है, जो शिखर तक लाकर आपको एकांत में धकेल देता है। आडवाणी की कुल तपस्या का अंतिम फल मार्गदर्शक मंडल रहा है। जबकि उनकी साधना का वांछित फल प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति बनने के रूप में होना चाहिए था। उन्हें मिला भी तो ऐसा बेदरोदीवार का घर कि जिसमें रहना भी न रहने जैसा ही है।
यह स्थिति निर्मम राजनीतिक प्रतिशोध का जमीनी सच है तो यह परिस्थिति किसी त्रासद साहित्यिक आख्यान के लिए उर्वर प्लॉट है। यह निरीह आत्मसमीक्षा का थोपा गया क्षण है, जिसे आडवाणी खामोश रहकर भोग रहे हैं। यद्यपि उनके जीवन में यह महापड़ाव भी लंबे संघर्ष और वैभव को जीने के बाद आया है। उधर कुमार और शिवपाल भी खुद को ‘आडवाणी केटेगरी’ में मान रहे हैं तो शायद इसलिए कि सहानुभूति भी कभी-कभी सत्ता की राहों के जंग लगे तालों को खोल देती है। कुमार को शायद लगता है कि कहीं कोई कविता की पंक्ति ही चाबी का काम कर जाए।
(सुबह सवेरे से साभार)