लोकसभा चुनाव 2019 के लिहाज से भारतीय जनता पार्टी की संभावनाओं को टटोलने और पार्टी कैडर को सक्रिय करने के इरादे से देश के दौरे पर निकले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मध्यप्रदेश के तीन दिन के दौरे पर भोपाल में हैं। उनकी यात्रा के कैलेंडर में मध्यप्रदेश 19वां राज्य है।
अब यह तो किसी को भी बताने की जरूरत नहीं है कि भाजपा में अमित शाह के होने का क्या मतलब है। भाजपा के तो वे खैर राष्ट्रीय अध्यक्ष ही हैं, लेकिन भारतीय राजनीति को भी अमित शाह ने अपनी ‘विशिष्ट कार्यशैली’ से नई परिभाषा दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं वर्षगांठ पर ‘करेंगे और करके रहेंगे’ का नारा तो अब दिया है लेकिन अमित शाह ने तो जिस दिन से कुर्सी संभाली है उसी दिन से वे ‘करेंगे और करके रहेंगे’ के नारे पर अमल कर रहे हैं। बल्कि यह कहना और ज्यादा ठीक रहेगा कि राजनीतिक लिहाज से उनका नारा है ‘जीतेंगे और जीतकर रहेंगे।’
और इस नारे पर शाह ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद अमल किया हो ऐसा भी नहीं है। गुजरात में उन्होंने नरेंद्र मोदी का सहयोगी रहते जो भी किया हो, लेकिन चुनाव प्रबंधक की उनकी खास पहचान अध्यक्ष बनने से पहले, उत्तरप्रदेश के प्रभारी महामंत्री के रूप में ही स्थापित हो गई थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को उत्तरप्रदेश से अभूतपूर्व सफलता दिलाने के बाद पार्टी अध्यक्ष पदभार संभालकर उन्होंने उस भूमिका को न सिर्फ पुख्ता किया है बल्कि उसका व्यापक विस्तार भी किया है। यह नई राजनीति का दौर है जिसका एकमात्र लक्ष्य जीत और सिर्फ जीत है। इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद के बीच कोई भेद नहीं। जहां जो तरीका फिट बैठे उसे अपनाते हुए जीत हासिल करना…
चूंकि शाह का वर्तमान दौरा 2019 के लोकसभा चुनाव की मैदानी तैयारी के लिहाज से है। जाहिर है भारतीय जनता पार्टी अगले आम चुनाव तक ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर लेना चाहती है जहां उसके लिए कोई चुनौती बाकी ही न रहे। इस दृष्टि से 2014 में दिया गया ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा अब विस्तारित होकर ‘विपक्ष मुक्त भारत’ में तब्दील हो गया है। आने वाले समय में हम भारत को यदि ‘विपक्ष मुक्त लोकतंत्र’ के रूप में देखें तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
इस लक्ष्य को पाने में 29 सीटों वाले मध्यप्रदेश की भाजपा की केंद्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका है। 2014 के चुनाव में भाजपा ने इनमें से 27 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस को सिर्फ दो ही सीटों से संतोष करना पड़ा था। इस तरह केंद्र में मोदी सरकार के बनने में मध्यप्रदेश का अहम योगदान था। राज्य से कांग्रेस की दो सीटें भी पार्टी की न होकर व्यक्तिगत रूप से कमलनाथ (छिंदवाड़ा) और ज्योतिरादित्य सिंधिया (गुना) की थीं। बाद में 2015 में झाबुआ में भाजपा सांसद दिलीपसिंह भूरिया के निधन के कारण हुए उपचुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने विजय हासिल कर प्रदेश में कांग्रेस के लोकसभा सांसदों की संख्या बढ़ाकर तीन कर दी थी। अब अगले चुनाव में पार्टी चाहेगी कि उसका पिछले चुनाव वाला प्रदर्शन बरकरार रहे। बल्कि कोशिश तो यह होगी कि आज की तारीख में जो तीन सीटें कांग्रेस के पास हैं वे भी उससे छीन ली जाएं।
मध्यप्रदेश को पार्टी की केंद्रीय राजनीति में अच्छा खासा महत्व मिला हुआ है। राज्य से लोकसभा के तीन सांसद केंद्रीय मंत्री हैं जिनमें विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, शहरी एवं ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर और स्वास्थ्य राज्य मंत्री फग्गनसिंह कुलस्ते शामिल हैं। लोकसभा अध्यक्ष का पद भी मध्यप्रदेश के ही खाते में है और इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन इस पद पर हैं। राज्यसभा सदस्य के तौर पर मध्यप्रदेश से पांच मंत्री केंद्र में रहे हैं इनमें थावरचंद गेहलोत, प्रकाश जावड़ेकर, एम.जे. अकबर अभी शामिल हैं। पहले मध्यप्रदेश के ही कोटे से सांसद रहीं नजमा हेपतुल्ला और अनिल माधव दवे भी केंद्रीय मंत्री थे।
मध्यप्रदेश भाजपा को इसलिए भी रास आता रहा है क्योंकि यहां पार्टी का संगठन काफी मजबूत स्थिति में है। पिछले करीब 14 सालों (दिसंबर 2003) से यहां भाजपा की सरकार है और पिछले करीब 12 साल (नवंबर 2005) से एक ही व्यक्ति शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में पार्टी मानती है कि यहां उसके लिए कोई चुनौती नहीं है। कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष (कांग्रेस) उसकी इस राह को और आसान बनाता है। इसीलिए भाजपा ने मध्यप्रदेश को कई योजनाओं और राजनीतिक रणनीतियों के लिए अपनी प्रयोगस्थली भी बनाया हुआ है।
मध्यप्रदेश के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी आठ बार मध्यप्रदेश की यात्रा पर आ चुके हैं। इनमें से तीन बार तो उन्होंने राष्ट्रीय स्तर की योजनाओं या कार्यक्रमों को यहां से लांच किया। इनमें नई फसल बीमा योजना, ग्रामोदय से भारत उदय अभियान और जरा याद करो कुर्बानी जैसे अभियान शामिल हैं।
यानी शाह चाहेंगे कि मध्यप्रदेश इस बार 2018 के विधानसभा चुनाव में तो विपक्ष का सफाया करे ही, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यहां से सौ फीसदी सीटें पार्टी को मिलें। तीन दिन के प्रवास में शाह का मुख्य जोर इसी की रणनीति तैयार करने और फीडबैक जुटाने पर होगा।
वैसे तो इस ‘खीर’ के लिए दूध, चावल, मेवे सब तैयार हैं, बस कुछ कंकर हैं जिनकी चिंता करनी जरूरी है। और सबसे बड़ा कंकर गवर्नेंस का है। भ्रष्टाचार के मामलों में मध्यप्रदेश ने पिछले कुछ सालों में बहुत नाम कमाया है। देखना होगा शाह इस बारे में भी पार्टी के कर्ताधर्ताओं से कुछ पूछते पाछते हैं या नहीं। प्रदेश सरकार और भाजपा ने उनके लिए बहुत अच्छे तोहफे की प्लानिंग की थी लेकिन कुछ कंकर वहां भी आ गिरे हैं। चाहा यह गया था कि हाल ही में जो नगरीय चुनाव हुए हैं उनमें सौ फीसदी जीत का तोहफा शाह को दिया जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं सका है। कुल 43 नतीजों में से 25 भाजपा के 15 कांग्रेस के और तीन निर्दलियों के खाते में गए हैं। भाजपा ने दो सीटों खोई हैं और कांग्रेस ने 6 सीटें हासिल की हैं। सिर्फ और सिर्फ जीत चाहने वाले शाह को ऐसे नतीजे कतई मंजूर नहीं होंगे।