जाने माने आर्थिक विश्लेषक परंजयगुहा ठाकुरता बुधवार को जब एनडीटीवी पर सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष सुमित मजूमदार से सवाल कर रहे थे कि क्या आज अरुण जेटली द्वारा पेश किया गया मोदी सरकार का बजट Anti Rich (अमीर विरोधी) है तो वे नरेंद्र मोदी के उद्देश्य को ही पूरा कर रहे थे। परंजय गुहा ठाकुरता सरकार समर्थक विश्लेषक नहीं हैं, उन्हें आमतौर पर सरकार की नीतियों के कटु आलोचक के रूप में जाना जाता है। वे बजट जैसे आर्थिक दस्तावेज में सकारात्मक के बजाय नकारात्मक चीजें खोज खोज कर लाते और उन पर अपनी राय देते रहे हैं।
बजट के तत्काल बाद जब प्रतिक्रिया देने के लिए सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष सुमित मजूमदार आए और उन्होंने बजट को (सीआईआई के पंरपरागत स्टैंड की तर्ज पर) संतुलित बताया तो ठाकुरता ने एंकर से इजाजत मांगी कि वे भी मजूमदार से एक सवाल पूछना चाहते हैं। और ठाकुरता ने क्या पूछा? उन्होंने सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष यानी कॉरपोरेट के प्रतिनिधि से सवाल किया कि वर्ष 2017-18 के बजट में जितना ध्यान खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दिया गया है और कॉरपोट को कोई खास फायदा नहीं मिला तो क्या वे मानते हैं कि यह बजट Anti Rich है? मजूमदार ने जवाब दिया कि- ‘’ऐसा कहना ठीक नहीं है। यह बात सही है कि कॉरपोरेट को कुछ ज्यादा नहीं मिला है लेकिन इसके बावजूद यह बहुत संतुलित बजट है।‘’
मुझे लगता है ठाकुरता और मजूमदार का यह संवाद मोदी सरकार की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जो सरकार Pro Rich का धब्बा लेकर सत्ता में आई थी, यह सवाल उस सरकार की छाती पर एक चमचमाता तमगा चस्पा करता है।
दरअसल मोदी चाहते भी यही हैं कि उनकी खुद की और एनडीए सरकार की छवि Pro Poor बने ना कि Pro Rich… ऐसे में यदि कोई दो कदम और आगे जाकर कहता है कि मोदी सरकार Anti Rich है तो यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की तरह है। मोदी 2014 में जब लोकसभा चुनाव का प्रचार कर रहे थे तो उन पर आरोप ही यही लगता था कि वे कॉरपोरेट के हिमायती हैं। कहा जाता था कि उनके आने के बाद भाजपा की नहीं बल्कि अंबानियों और अडाणियों की सरकार चलेगी। सरकार बनने के शुरुआती एक साल के दौरान भी यह जुमला रह रहकर उछलता रहा।
खुद पर Pro Rich या Pro Corporate होने का यह टैग हटाने की मोदी ने हरसंभव कोशिश की। और इसके लिए उन्होंने सालाना बजट को माध्यम बनाया। आप याद करें, पिछले बजट को भी किसानों, गरीबों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बजट कहा गया था। उसमें तो मध्यम वर्ग तक को कोई खास राहत नहीं मिली थी, जो आयकर में छूट की पूरी उम्मीद लगाए बैठा था।
इस बार नोटबंदी की पृष्ठभूमि में, अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने के अंदशों के बीच, सरकार के लिए बहुत जरूरी हो गया था कि वह ऐसा कोई भी संदेश न जाने दे जिससे उसकी छवि Pro Rich की बने। सरकार यह अच्छी तरह जानती थी कि नोटबंदी के कारण पैदा हुई मुश्किल, लोगों में सिर्फ यह धारणा पैदा करके ही कम की जा सकती हैं कि यह सरकार धन्नासेठों और कालेधन वालों पर नकेल कस रही है।
नवंबर 2016 से लेकर अब तक नोटबंदी की तमाम राजनीतिक व मीडियाजन्य आलोचनाओं के बावजूद सरकार यदि किसी खंभे पर सिर टिका सकी है तो वह गरीब गुरबों में पनपी यह धारणा ही है कि मोदी ने नोटबंदी करके मोटी और काली तिजारी वालों की वॉट लगा दी। सरकार वास्तविकता में Anti Rich हो या न हो लेकिन वह चाहेगी ही चाहेगी कि उसकी छवि तो कम से कम ऐसी बने कि वह Anti Rich है। और जब परंजयगुहा ठाकुरता ने ठीक इसी शब्द का इस्तेमाल करते हुए सीआईआई जैसे संगठन के पूर्व मुखिया से सवाल किया तो आप तय मानिये कि मोदी का तीर निशाने पर बैठा है।
नोटबंदी के विपरीत असर को न्यूट्रल करने के लिए सरकार ने इस बार न सिर्फ गरीब गुरबों की तरफ ध्यान केंद्रित रखा है बल्कि अपेक्षाकृत ज्यादा रोना धोना करने वाले मध्यम वर्ग के मुंह में भी आयकर से राहत का लॉलीपाप ठूंस दिया है। यानी ग्रामीण वोटर्स के साथ ही उसने छोटे शहरों और कस्बों से लेकर महानगरों तक में रहने वाले उस वर्ग का भी मुंह बंद करने का जतन किया है जो सोशल मीडिया पर कुछ ज्यादा ही उछलकूद करता है। यह वर्ग टीवी की टीआरपी से लेकर बाजार की सेहत तक का रिमोट कंट्रोल है।
बची खुची कसर जेटली ने राजनीतिक दलों के चंदे पर लगाम कस कर पूरी कर दी। एक बड़े वर्ग में इस घोषणा का भी वही असर होगा जो नोटबंदी का हुआ था। जिस तरह नोटबंदी को, भ्रष्टाचारियों और कालेधन वालों का रुपया रातोंरात बरबाद करने वाला मास्टर स्ट्रोक माना गया, उसी तरह राजनीतिक चंदाखोरी पर लगाम भी किसी सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं आंकी जाएगी।
शायद सरकार की रणनीति भी यही है कि वह रॉबिन हुड भले न बन पाए लेकिन लोगों में उसकी छव जरूर रॉबिन हुड जैसी बने। जेटली का ताजा बजट मुझे तो यही संकेत दे रहा है।
आगे बात करेंगे बजट और सरकार की चुनौतियों की…