संक्रमण समय में नहीं, मनुष्य में होता है..

एकांत और कलाकार 3

(इस बार युवा कलाकर मनीष पुष्कले की ‘करुणा डायरी’ के संपादित अंश)

प्रत्यक्ष : 25 मार्च 20
आधुनिक संचार क्रांति ने अवसाद और मृत्यु के इस काल में बाहर से जुड़े रहने के लिए संप्रेषण की नई तकनीकें विकसित कर ली हैं। इन साधनों की अनुपस्थिति में विश्वयुद्ध की यंत्रणाओं से पूर्ववर्ती जन-जीवन कितना अवसादग्रस्त हुआ होगा, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आधुनिक यंत्रों से लैस आज का समाज अपने इस प्रत्यक्ष अनुभव के बावजूद उस दौर की उन मनःस्थितियों को नहीं समझ सकता जो जीवन में अनिश्चितताओं के पूर्ण स्थापन और संभावनाओं के पूर्ण स्थगन से प्रगट होती हैं। उस दौर के समाज ने अपनी उम्मीदों और हताशाओं के परस्पर संघर्षों के बावजूद कई कालजयी चित्रों, कविताओं और साहित्य से हमें परिष्कृत किया है, लेकिन, क्योंकि तकनीकी विकास ने 21वीं शताब्दी के इस काल की उद्विग्नता और संदिग्धार्थता को 20वीं शताब्दी की अनिश्चितताओं और अवसादों के समक्ष मानसिक तौर से कम यंत्रणाप्रद बना दिया है, इसलिए यह संभव है कि यह काल परिष्कार की दृष्टि से निष्पत्ति को क्षीण करे। यह खुलापन हमें मुबारक हो।

आविष्कार : 29 मार्च 20
याद रहे, कि नए संक्रमणों से बचने के लिए नए टीकों का आविष्कार होता है और नए युद्ध के लिए नए हथियारों का। एक में मनुष्य आविष्कार के पहले मरता है और दूसरे में उसके बाद। जो युद्ध से बचे रहेंगे, वे संक्रमण से मारे जायेंगे और जो संक्रमण से बचेंगे, उन्हें युद्ध में जीना होगा। हथियारों की हठ और विषाणुओं के विष के अलावा अगर मनुष्य में निर्मिति की कोई अलग संभावना बचेगी तो वह सिर्फ कला में ही होगी। लेकिन इसी बीच यह भी सुना है कि शल्यप्रक्रिया में सफलतापूर्वक स्थापना के बाद अब रोबोटिक-आर्ट पर गहन शोध हो रहा है। जब मनुष्यार्जित ज्ञान और उसकी कल्पनाशीलता उसके ही अस्तित्व का विलोम हो चुकी होगी, तब हम अपना दर्द इसलिए नहीं देख सकेंगे क्योंकि विलोमीकरण और विलोपीकरण की महान परस्परता में महीन चूक की भी कोई संभावना नहीं बचेगी।

अखबार : 2 अप्रैल 20
वैसे तो सबसे पहले मुझे समझाया गया था कि इस संक्रमित समय में अखबार नहीं लेना है। बाद में चेतावनी भी मिली। लेकिन, क्योंकि समझाइशें और चेतावनियाँ सिर्फ मुझ पर ही प्रक्षेपित की गई थीं। अतः अख़बारवाला अभी तक हर सुबह सकुशल अपना फर्ज‍ निभा जाता है। हर सुबह रबड़ में क़ैद कागज़ का यह असहाय पुंगा अपनी मुक्ति के लिए मेरा इंतज़ार करता हुआ जमीन पर धराशायी-सा पड़ा जरूर मिलता है। लेकिन इस क़ैद में वह कभी-भी अपने चारों खानों को चित नहीं होने देता।

मेरे कर-कमलों से हर सुबह उसकी मुक्ति का उपक्रम मेरे हाथों से उसकी इस जिजीविषा का सम्मान तो है ही लेकिन उसके साथ वह मेरे ऊपर प्रक्षेपित की गईं, उन समझाइशों और चेतावनियों का जवाब भी है, जो बताता है कि अखबार में संक्रमण नहीं बल्कि उसकी खबर होती है, और यह भी, कि संक्रमण समय में नहीं मनुष्य में होता है। इस तरह से ‘सत्य के प्रयोग’ के साथ दिन की शुरुआत में ही यह प्रमाणित हो जाता है कि जब तक खबर मिलती रहे तब तक संक्रमण और हम, दोनों अपने-अपने पृथक स्थानों पर सुरक्षित हैं।

यह क्षण इस संज्ञान का भी है कि खबर और खबरदार की पारस्परिक आत्मीयता में उनकी आपसी अंतर्निर्भरता का बड़ा स्थान होता है। आज के दौर में इस सम्बन्ध के टूटने का मतलब है कि संक्रमण ने खबरदार को विस्थापित कर दिया है। खबरदार अब खुद की खबर का नायक बन गया है। क्योंकि, मैं अभी खबर नहीं हुआ हूँ, इसलिए दिन के बाकी प्रहरों में दूसरों की खबर लेने के पहले स्वयं को खबरदार करना इसलिए अति-आवश्यक मानता हूँ ताकि हम उन प्रहरों में दूसरों के सूक्ष्म प्रहारों से खुद को बचा सकें। इस तरह अखबार का निश्चेत पुंगा अपनी मुक्ति के अहसास में सूर्य के सामने अपना सर उठाते हुए अंततः मेरे सत्य का सूक्ष्म प्रहरी बन ही जाता है।

अवसर : 4 अप्रैल 20
बाहर कोरोना का तनाव है। लेकिन मेरे घर के भीतर वह ना कर पाने का तनाव है जिसे सभी मित्र बड़ी रुचि से अपने-अपने यहाँ कर रहे हैं। हालांकि मेरे तनाव का मुख्य कारण मैं स्वयं ही हूँ, लेकिन उसके चलते आज इस बात पर मैं कामना से भिड़ गया कि अगर उसने वर्षों से रोजाना के उत्स की तरह चली आ रही साफ़-सफाई की जिद या रस्म को न पाला होता तो आज मेरे स्टूडियो में भी बे-मौसम दिवाली होती। इस काल में मैं भी निस्तेज पड़ चुके अटाले को बाहर फेंक सकता था और स्टूडियो की अनेक बेतरतीब उपस्थितियों को सुलझाकर रख सकने की तरकीबों की सोच में झुलस सकता था।

लेकिन अपनों की नज़रअन्दाजी और स्वयं की शिथिल दूरदर्शिताओं के चलते मुझे उस अभियान को छेड़ सकने का सुख और अवसर नहीं मिल सका, जो मेरे अनेक मित्रों को इस कोरोना काल में नसीब हो रहा है। सभी अपने स्टूडियो को ऐसे साफ़ कर रहे हैं जैसे बालों में से जुएँ निकाल रहे हो। मैं जानता हूँ कि ऐसे मौके अक्सर नहीं आते। यह वैशाख में कार्तिक का अवसर है, जिसकी अमावस्या बेहद लम्बी है। मेरी इस बेतुकी और अजीब बहस पर कामना का कहना है कि कोरोना का इलाज फिर भी संभव है, लेकिन मेरा नहीं। मेरा अणु-अणु उसके इस तंज में विष से भर गया है, लेकिन, फिर भी मन में इस बात की शान्ति है कि इन मित्रों के स्टूडियो की साफ़-सफाई को देखकर अब कभी कोई आगंतुक उनसे भी पूछ सकता है कि ‘आजकल काम क्यों नहीं करते?’

लेकिन, साथ में इस बात की चिंता भी है कि इस अलगाव से उनके कपाल से क्रिएटिव खुजली का पतन न हो जाए..? अब उन्हें यह कैसे समझाऊँ कि जुएँ और वायरस में वैसा ही अंतर है जैसा अपनों की नजरअंदाजी और मेरी दूरदर्शिता में। अंत में इस बात का सुखद अहसास है कि शायद अब मेरे मित्र मुझे बेहतर समझ सकेंगे. निःसंदेह ही उनकी स्पष्टता और साफ़गोई की सफ़ेदी से मेरे धूसर पार्श्व झिलमिला उठेंगे।

(राकेश श्रीमाल की फेसबुक वॉल से ली गई मूल सामग्री के सुबह सवेरे में प्रकाशित संपादित अंश)

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