क्या इसलिए कि वो महज कोयला खान में फंसे मजदूर हैं?

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अजय बोकिल

क्या अजब देश है? एक तरफ गगनयान से अंतरिक्ष में भारतीयों को भेजने की तैयारी और यथा संभव उसका राजनीतिक लाभ लेने की जमावट तो दूसरी ओर देश के ही सुदूर पूर्व के राज्य मेघालय की एक कोयला खदान में फंसे 15 खनिकों को हादसे के बीस दिन बाद बचाना तो दूर हमारा तं‍त्र यह तक पता नहीं कर सका है कि वो खान मजदूर जिंदा भी हैं या नहीं?

और तो और इस भीषण हादसे की तरफ देश का ध्यान भी तब गया, जब 26 दिसंबर को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपील की कि वे मेघालय के इन खनिकों को बचाएं। मेघालय में एनपीपी-भाजपा गठबंधन की सरकार है। जब राजनीतिक हलकों में इस हादसे की गूंज हुई तब सारा प्रशासन हरकत में आया। तब तक हादसे के 10 दिन बीत चुके थे।

इस पूरे बचाव कार्य का अपडेट यह है कि खदानों से पानी ही नहीं निकाला जा सका है, लिहाजा गोताखोर भी खनिकों (जिनके जीवित होने की संभावना नहीं के बराबर है) तक भी नहीं पहुंच सके हैं। इससे भी क्षुब्ध करने वाली बात यह है कि गरीब मजदूरों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। तब जाकर राहत कार्य और तेज हुआ। इतना सब कुछ होने के बाद भी नतीजा लगभग सिफर है।

पूर्वोत्तर के इस छोटे से राज्य मेघालय के हिल डिस्ट्रिक्ट में कोयले के भंडार हैं। भारतीय खनिज मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक मेघालय में करीब 2.4 मिलियन टन कोयला भरा पड़ा है। जहां यह हादसा हुआ है, वह क्सान नामक जगह पूर्वी जयंतिया हिल डिस्ट्रिक्ट में पड़ती है। इनमें से ज्यादातर अवैध खदाने हैं। ये खदाने कोल माफिया चलाता है।

अवैध खनन का यह कारोबार वहां इसलिए भी फल फूल रहा है, क्योंकि वैध खनन पर कोर्ट के आदेश से पाबंदी है। राज्य सरकार इसे हटवाने की कोशिश कर रही है। मेघालय सरकार को करीब 7 सौ करोड़ का राजस्व कोयला खनन से ही मिलता है। भारी बेरोजगारी के कारण स्थानीय और नेपाली युवा जान पर खेल कर भी इन अवैध कोयला खदानों में काम करते हैं।

13 दिसंबर को उस दिन भी हमेशा की तरह कोयला खनन का काम चल रहा था, लेकिन अचानक पास की लाइतिएन नदी में बाढ़ आई और इन खदानो में पानी भर गया। इस 370 फीट गहरी खदान के भीतर उस वक्त 15 खनिक फंसे थे। उनका क्या हाल हुआ होगा, इसकी कल्पना से भी दिल कांप जाता है।

शुरू में तो इस खबर को मीडिया में कोई तवज्जो नहीं मिली। बाद में राष्ट्रीय स्तर पर मुददा उठा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनरॉड संगमा ने केन्द्र से मदद के लिए दिल्ली दौड़ धूप की तो राहत कार्य बड़े पैमाने पर शुरू हुआ। ओडिशा के फायर फाइटर्स, एनडीआरएफ के गोताखोर, आर्मी और नेवी के विशेषज्ञ भी बचाव कार्य के लिए पहुंचे।

इतना सब होने के बाद भी परिणाम कुछ खास नहीं है। क्योंकि जो बचाव के लिए पहुंचे, उनके पास पर्याप्त उपकरण नहीं थे। थे तो उनके उपयोग की स्थितियां नहीं थी। शर्मनाक बात यह है कि खदानों में भरा पानी निकालने के लिए हाई पॉवर पम्प का जुगाड़ करने में ही काफी वक्त निकल गया। जैसे तैसे पम्प मिले तो भीतर खदान में केवल एक ही पम्प लगाया जा सका।

अभी भी हादसे वाली खदान के आसपास से पानी निकालने का क्रम जारी है। बदनसीब खनिकों तक पहुंचना तो दूर की कौड़ी ही है। इतना जरूर हुआ है ‍कि मीडिया और कोर्ट में मामला जाने के बाद राहत कार्य में तेजी आई है। हालांकि बचाव का काम तेज न होने पाने के कुछ तकनीकी कारण भी हैं।

इनमें पहला तो यह है कि ये कोयला खदाने ‘रेट होल’श्रेणी की हैं। रेट होल खदाने वास्तव में क्षैतिजाकार खदाने होती हैं। ये बहुत संकरी होती हैं। इनमें एक बार में एक ही व्यक्ति प्रवेश कर सकता है। सुरक्षा के भी खास इंतजाम नहीं होते। एनजीटी ने ऐसी खदानों पर चार साल पहले ही प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन मेघालय तक शायद उसकी आवाज नहीं पहुंची। उधर खदान में फंसे खनिकों के परिजनों का धैर्य भी टूटता जा रहा है।

कुछ लोग इस हादसे की तुलना 1975 में हुई भीषण चासनाला खान दुर्घटना से कर रहे हैं, जब कोयला खान में फंसे 370 मजदूरो को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। लेकिन तब से अब बहुत कुछ सबक लिया गया है, ऐसा नहीं लगता। मेघालय की कोयला खान में मजदूरों की जान समय पर न बचा पाने के पीछे भी कई तर्क और तकनीकी कारण हैं।

असल सवाल यह है ‍कि एक कोयला खान में 15 लोग जिंदा दफन होने की स्थिति में हों, लेकिन बाकी देश में उसको लेकर कोई खास रोष या आक्रोश न दिखे। सबसे बड़ी अदालत को सरकार से पूछना पड़े कि इतनी इंसानी जानों को बचाने के लिए आपने अब तक किया क्या है? चाहे केन्द्र की सरकार हो या राज्य सरकार चिट्ठी पत्री और आदेश निर्देशों को ही बचाव कार्य का प्रमाण मान बैठी हैं।

मीडिया भी मंदिर-मस्जिद पर बहस कराकर खुश है। क्योंकि आका खुश हैं। बाकी सारे देश के माथे पर उतनी भी शिकन नहीं आई कि जितनी की पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने पर होती है। जीते जी 15 मजदूरों का इस तरह मौत के आगोश में चले जाना हमने शायद नियति मानकर स्वीकार कर लिया है कि ऐसे हादसे तो होते ही रहते हैं। उनसे क्या विचलित होना?

हमारी यह सोच और मानसिकता क्या साबित करती है? आखिर इतनी संवेदनहीनता किसलिए है? क्या इसलिए कि वो महज मजदूर थे, गाय इत्यादि नहीं थे, क्या इसलिए ‍‍कि उनका जीना वंदे मातरम् जितनी कीमत भी नहीं रखता था, क्या इसलिए कि पेट के लिए इतना खतरा उठाने वालों की हैसियत राफेल के कथित भ्रष्टाचार अथवा सबरीमाला मंदिर में प्रवेश से भी बहुत कम थी? क्या इसलिए कि उन मजदूरों को बचा लेने से कोई वोट बैंक‍ सिद्ध नहीं हो सकता था? क्या इसलिए कि उनकी कोई ट्रेड यूनियन नहीं थी? क्या इसलिए कि उनकी (संभावित) मौत किसी का सिंहासन नहीं हिला सकती थी?

याद करें कि दो माह पूर्व थाइलैंड की एक गुफा में फंसे बच्चों को बचाने के लिए पूरी दुनिया एकजुट हो गई थी और उन सभी बच्चों को सकुशल बचा भी लिया गया था। इस पुण्य कार्य में भारत ने भी हाई पॉवर पम्प देकर मदद की थी। लेकिन उफ,  हम हमारे मेघालय के बदनसीब 15 मजदूरों के साथ हुए हादसे के तीन हफ्ते बाद भी केवल 3 हेलमेट ही खोज सके हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि हमारा पूरा सिस्टम ही जड़ और स्वार्थों की ऊर्जा से चलने वाला है। ऐसा नहीं है कि खनिकों को खोजने वाले मेहनत नहीं कर रहे, लेकिन अपने ही सहोदरो को बचाने की अपेक्षित तड़प और जुनून कहीं दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी मनोदशा में हम अं‍तरिक्ष में सशरीर विचरण कर भी आएं तो उसका हासिल क्या है? दो मिनट सोचिए?

(सुबह सवेरे से साभार)

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