अजय बोकिल
क्या मुद्दों का भी कोई आकार प्रकार या चेहरा होता है? ये सवाल जेहन में इसलिए आया कि अमूमन इस देश में बहस के मुद्दे या तो सेक्युलर होते हैं या फिर राष्ट्रवादी। सेक्युलर मुद्दे ज्यादातर ‘निराकार’ किस्म के होते हैं, लेकिन राष्ट्रवादी मुद्दे ‘साकार’ स्वरूप के। इस फौरी निष्कर्ष का आधार महाराष्ट्र के एक बड़े हिंदूवादी नेता संभाजी भिडे की यह मांग (या आग्रह) है कि अयोध्या के राम मंदिर में स्थापित होने वाली भगवान राम की प्रतिमा मूंछों वाली हो न कि बिना मूंछों वाली।
भिडे ने कहा कि ‘अगर आप इस भूल (भगवान राम की मूंछविहीन मूर्ति) की गलती नहीं सुधारते हैं, तो भगवान राम के मेरे जैसे भक्तों के लिए इस मंदिर का कोई अर्थ नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि भगवान राम के चेहरे का इस रूप में चित्रण दरअसल कलाकारों की गलती है, जिसे अब सुधारा चाहिए। शुरू में लगा कि भिडे का यह बयान अगंभीर है। लेकिन जल्द ही इसने चिंगारी पकड़ ली।
भिडे की मांग को खारिज करते हुए अयोध्या स्थित राम मंदिर के मुख्य पुजारी सत्येंद्रदास ने स्पष्ट किया कि कहीं भी राम, कृष्ण और शिव की मूर्ति की मूंछें नहीं हैं। क्योंकि तीनों देवताओं को षोडष वर्षीय (सोलह वर्ष) का माना गया है। ये देवता जब तक धरती पर रहेंगे, सोलह साल के ही रहेंगे। अर्थात ये तीनों देवता किशोरवयीन हैं और युवावस्था की दहलीज पर है, यह स्पष्ट तौर पर मूंछें उगने के पहले की अवस्था है। पुजारी सत्येन्द्र दास ने तंज किया कि अगर राम-लक्ष्मण की कहीं कोई मूंछ वाली प्रतिमा होगी भी तो संभाजी भिडे के कारण होगी।
अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के हाथों भव्य राम मंदिर का शिलान्यास सकुशल सम्पन्न हो जाने के बाद राम भक्तों ने सोचा था कि चलो अब तो सारे विवाद खत्म। इंतजार है तो भगवान की प्राण प्रतिष्ठा का। लेकिन पुणे के पास सांगली में ‘शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान’ संगठन के प्रमुख संभाजी भिडे ने शिलान्यास के दो दिन पहले एक अप्रत्याशित मुद्दा उछाल दिया।
भिडे ने मीडिया को बताया कि उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर के एक न्यासी गोविंद गिरिजी महाराज से कहा है कि आप मंदिर में राम और लक्ष्मण की जिन मूर्तियों की स्थापना करने जा रहे हैं, वो मूंछ-युक्त होनी चाहिए। हालांकि शुरू में भिडे की बात को किसी ने तवज्जो नहीं दी। लेकिन इसी बहाने भिडे ने एक पुरानी जिज्ञासा को फिर हवा दे दी कि हिंदुओं और उससे जुड़े कुछ धर्मों में अधिकांश देवताओं की प्रतिमाएं श्मश्रुविहीन (बिना मूंछ के) ही क्यों होती हैं और असुरों को अमूमन मूंछ वाला ही क्यों दर्शाया जाता है? क्या यह भी देवासुर-संग्राम का कोई एंगल है या इसके पीछे केवल कलाकार की कल्पना है अथवा कोई द्विजत्व का भाव? या फिर मूंछों से कोई एलर्जी या पूर्वाग्रह है?
पहले संभाजी भिडे की बात। शिवाजी-संभाजी के परम भक्त भिडे 86 वर्ष के हैं। वो भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में आरोपी थे, लेकिन तत्कालीन फडणवीस सरकार ने उन पर से केस वापस ले लिया था। कहते हैं कि संभाजी पहले आरएसएस में थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपने अलग श्री शिव प्रतिष्ठान संगठन की स्थापना की। यह संगठन उग्र हिंदुत्व का पैरोकार है। इसके अनुयायी ‘धारकरी’ कहलाते हैं। संभाजी पैरों में चप्पल नहीं पहनते। विवादों से उनका पुराना नाता है।
पिछले साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासंघ की बैठक में अपने भाषण में यह कहना कि ‘भारत ने दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध दिए हैं’ भिडे को नागवार गुजरा था। उन्होंने कहा कि दुनिया में शांति चाहिए तो उसे शिवाजी-संभाजी महाराज के विचारों की आवश्यकता होगी। इसी तरह भिडे ने नासा द्वारा चंद्रमा पर भेजे अंतरिक्षयान की सफलता की असल वजह उसे ‘एकादशी के दिन भेजा जाना’ बताया था।
लेकिन इन सब से ज्यादा महत्वपूर्ण है खुद संभाजी का बड़ी-बड़ी मूंछें रखना। वो इसे दबंगई और वीरता का प्रतीक मानते हैं। शायद इसीलिए उन्होंने राम-लक्ष्मण की प्रतिमाओं को भी मूंछयुक्त बनाने की मांग की है। जबकि आम तौर पर सनातन हिंदू देवता बिना दाढ़ी-मूंछ के ही होते या रचे जाते हैं। इसी रूप में उनकी आराधना की जाती है। अब सवाल यह है कि हिंदू देवताओं का वास्तविक स्वरूप क्या है? अगर वो सगुण और मानव रूप में हैं तो दाढ़ी-मूंछ के इस प्राकृतिक मानवीय गुण से विलग क्यों हैं? जब प्राचीन ऋषि मुनि भी अमूमन बड़ी दाढि़यां और मूंछें रखते थे तो उनके आराध्य देवताओं को इससे छूट कैसे मिली?
यहां जवाब हो सकता है कि सनातन धर्म में देवताओं का स्वरूप भी वास्तव में उनको रूपाकार देने वालों की कल्पना का ही परिणाम है। क्योंकि स्वर्ग जाकर देवताओं की हुबहू तस्वीर लेकर कोई धरती पर लौटा हो, इसकी जानकारी नहीं है। इसलिए कलाकार को जो देवत्व के योग्य लगा, वही स्वरूप रच दिया।
यहां दिलचस्प सवाल यह भी है कि मनुष्य खासकर पुरुष समुदाय में मूंछे रखना मर्दानगी और शौर्य का प्रतीक है। लेकिन मूंछधारी असुरों का दमन करने वाले देवता मूंछों से परहेज करते हैं, ऐसा क्यों? जो मनुष्य के लिए शौर्य का प्रतीक है वह देवताओं के लिए क्यों नहीं है? इसका कोई तार्किक जवाब शायद ही हो। एक तर्क यह है कि देवता कण-कण में सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं, इसलिए उनका मूंछ रखना न रखना बराबर है।
वैदिक काल में आर्य यज्ञ में प्राकृतिक शक्तियों का आव्हान करते थे। इसलिए देवताओं के स्वरूप निर्धारण सवाल ही नहीं था। बाद में जब मूर्तिपूजा का चलन शुरू हुआ तो देवताओं को मनुष्याकृतियों में ही सृजित किया जाने लगा। हो सकता है दाढ़ी-मूंछ न रखना धार्मिक आस्था की दृष्टि से भी सुदर्शन, शुचिता और श्रेष्ठत्व का प्रतीक माना गया हो या फिर इस मामले में समाज के उस वर्ग के हितों का खासतौर पर ध्यान रखा गया हो, जिनकी आजीविका ही दाढ़ी-मूंछ बनाना है।
इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि जब देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण शुरू हुआ, तब तक इस देश में केश कर्तन कला का विकास हो चुका था और वह लोगों की जरूरत बन गई थी। अब विचारणीय मुददा यह कि देवताओं की प्रतिमा को मूंछयुक्त बनाने अथवा मूंछविहीन रखने से लोगों की आस्था पर क्या फर्क पड़ेगा?
मूंछें फिदा होने का कारण तो हो सकती हैं, लेकिन समर्पण का आधार नहीं हो सकती। जन मान्यता है कि देवता अलौकिक शक्तियां हैं। इसलिए उनका मानवीय स्वरूप क्या है, कैसा है, यह सब गौण है। जो स्वयं सृष्टि का संचालक और संहारक हो, उसकी मूंछें हों न हो, इससे अंतर क्या पड़ना है? अलबत्ता कुछ जगह त्रिदेव में से ब्रह्मा और शंकर की मूंछवाली प्रतिमाएं मिलती हैं, लेकिन भगवान विष्णु की शायद ही कोई प्रतिमा या चित्र मूंछवाला नजर आए। इस अर्थ में मूंछे या दाढ़ी रखना अरुचिकर हो सकता है। वह सौंदर्य की उस परिभाषा में भी फिट नहीं बैठता, जिसके तहत देवताओं को सर्वदा सौंदर्य, पौरुष व सर्वशक्तिमान होने का प्रतिमान ही होना चाहिए।
भिडे खुद मूंछें रखें, उसे शौर्य का प्रतीक मानें, इसमें कोई बुराई नहीं है। हालांकि वो दाढ़ी नहीं रखते हैं, जिसका मूंछों के साथ नैसर्गिक रिश्ता है। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दोनों को समान महत्व देते हैं। वैसे हर पुरुष को यह अधिकार है कि वह मूंछों की अपनी नैसर्गिक पहचान को न सिर्फ कायम रखे बल्कि उसे अपने हिसाब से बढ़ने दे। अनियंत्रित मूंछों का भी अपना रौब होता है। लेकिन भिडे का यह आग्रह कि भगवान राम की प्रतिमा में भी पौरुष का यही स्वरूप परिलक्षित हो, दुराग्रह ज्यादा लगता है।
क्योंकि सनातन देवता मूंछें न रखकर भी उस शौर्य और संहार को अंजाम दे देते हैं, जिनके लिए कई इंसानों को मूंछें रखना और उन्हें संवारना मजबूरी बन जाता है। कुछ मामलों में मूंछें किसी धार्मिक विश्वास को भी प्रतिबिम्बित करती हैं, लेकिन उनका न होना किसी कमतरी का द्योतक नहीं है। अगर हम पुराणों की दशावतार थ्योरी को बारीकी से समझें तो विष्णु के (मत्स्य, कच्छप और वराह को छोड़कर) चार अवतार वामन, राम, कृष्ण और बुद्ध मूंछ विहीन हैं। बाकी नरसिंह भगवान, परशुराम और यहां तक कि संभावित अवतार कल्कि भी मूंछवाले ही चित्रित गए हैं।
इसका क्या अर्थ निकाला जाए? क्या भविष्य सिर्फ मूंछ वालों का ही है? क्या संभाजी भिडे भविष्य के संकेतों की ओर इशारा कर रहे हैं या फिर आने वाला वक्त सचमुच सिर्फ मूंछ वालों का ही है?