क्या मेडिकल क्वारेंटाइन भी वास्तव में ‘सूतक’ ही है?

अजय बोकिल

जिस देश ने दुनिया को ‘क्वारेंटाइन’ जैसा शब्द दिया, उसने शायद ही सोचा होगा कि कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी से उसी देश में चीन के बाद सबसे ज्यादा लोगों की मौतें होंगी और लगभग पूरे देश को क्वारेंटाइन में जाना पड़ेगा। यूरोप में इटली कोरोना से सर्वाधिक प्रभावित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जानलेवा कोरोना वायरस आज दुनिया के 166 देशों में पहुंच चुका है। विश्व में कुल 195 देश हैं। पूरी दुनिया में इससे 2 लाख 7 हजार से अधिक लोग संक्रमि‍त हो चुके हैं और 8 हजार 657 लोगों की मौत हो चुकी है।

पूरे विश्व की एक बड़ी आबादी क्वारेंटाइन की गिरफ्त में है। इसका दूसरा पक्ष भी है। कोरोना की दहशत के बरक्स दुनिया भर में लोग क्वारेंटाइन को अपने ढंग से एंज्‍वॉय भी कर रहे हैं। ‘लव इज क्वारेंटाइन’ जैसे गेम लोकप्रिय हो रहे है। विश्व संचार क्रांति के पहले की दुनिया को महसूस करने और उसमें जी सकने की कोशिश कर रहा है। इधर अपने देश में एक बहस यह भी चल पड़ी है कि क्वारेंटाइन को हिंदी और भारतीय भाषाओं में क्या कहा जाए? हालांकि हिंदी में इसके लिए ‘संगरोध’ जैसा बेजान सा शब्द है, जो क्वारेंटाइन के भाव को अभिव्यक्त नहीं करता।

यूं तो वैश्विक महामारियां पहले भी दुनिया में फैलती रही हैं। इनमें इलाज के अभाव में लाखों लोग अपनी जानें गंवाते रहे हैं। यही महामारियां चिकित्साशास्त्र के सामने नई चुनौतियां भी खड़ी करती रही हैं और मनुष्य की जिजीविषा इन रोगों का कारण और निदान भी खोजती रही है। ज्ञात इतिहास में पहली वैश्विक महामारी 6ठी शताब्दी में यूरोप के (आज के तुर्की) बिजेंटाइन साम्राज्य के कुस्तुंतुनिया में प्लेग के रूप में फैली थी। इसका प्रकोप इतना विनाशकारी था कि यूरोप, एशिया और अफ्रीका महाद्वीप में करीब 5 करोड़ लोग इससे मारे गए थे। यहां तक कि मरने के लिए भी कोई व्यक्ति बाकी नहीं रहा था।

‘क्वारेंटाइन’ शब्द को जन्म भी एक महामारी ने दिया। 15 वीं सदी में यूरोप में ‘काली मौत’ नामक महामारी फैली। यह वास्तव में एक तरह का प्लेग ही था, जो 800 साल बाद फिर उभरा था, जिसने यूरोप में करोड़ों लोगों की जानें लीं। तब लोगों में ऐसी महामारियों से लड़ने की कोई वैज्ञानिक जानकारी अथवा जागरूकता नहीं थी। सो, इटली के तटवर्ती वेनिस शहर के निवासियों ने वहां बाहर से आने वाले नाविकों को इस महामारी से दूर रखने के लिए एक नया तरीका ईजाद किया। उन्होंने प्रवा‍सी खलासियों को 40 दिन तक उन्हीं के जहाजों में नजरबंद कर दिया। इस नियम को पुरानी वेनिशियन बोली में ‘त्रेंतिनो’ कहा जाता था और जिन लोगों का विलगीकरण (मराठी में क्वारेंटाइन का पर्याय) किया जाता था, उन्हें ‘क्वारां‍तीनो’ कहा जाता था। बाद में पश्चिम में इस प्रथा को (अंग्रेजी में) क्वारेंटाइन कहा जाने लगा।

दुनिया में एक और भयानक महामारी लंदन का भयंकर प्लेग मानी जाती है। 1665 में फैली इस महामारी से लंदन की 1 लाख आबादी साफ हो गई थी। इसके कुछ पहले इंग्लैंड ने ऐसी बीमारियों के शिकार लोगों को अलग रखने का कानून बनाया था। एक अन्य वैश्विक महामारी चेचक की है, जिसने दुनिया में लाखों लोगों की जानें लीं। इसकी पहचान पहली वायरस जनित बीमारी के रूप में हुई और 18 वीं सदी में यूरोप में डॉक्‍टर एडवर्ड जेनर ने इसका टीका तैयार किया। इसी तरह एक अन्य भयावह वैश्विक महामारी हैजा (कॉलरा) है। 19 वीं सदी के मध्य में फैली इस महामारी ने लाखों लोगों को अपना शिकार बनाया। एक ब्रिटिश डॉक्‍टर जॉन स्नो ने इसका गंभीर अध्ययन कर बताया कि यह महामारी दूषित पानी पीने के कारण फैलती है।

जहां तक भारत की बात है तो हम वैश्विक महामारियों की चपेट में उस ढंग से कम ही आए हैं जैसे कि अन्य देश। भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा मौतें हैजे से ही हुई हैं, जिसका सर्वाधिक प्रकोप 19 वीं सदी में अलग-अलग समय पर हुआ। हमारी लोक स्मृति में महा‍मारियों से ज्यादा अकाल बसे हुए हैं। यहां फैली महामारियां भी स्थानीय स्तर (एंडेमिक्स) की ज्यादा रही हैं। इसका कारण शायद भारतीय समाज में निजी जीवन में शुद्धता और शुचिता का आग्रह भी हो सकता है।

इसके अलावा बड़े पैमाने पर एक दूसरे से संपर्क में न आना भी है। इसके मूल में संचार साधनों का अभाव, स्थानीय धर्म सम्प्रदाय, रीति रिवाजों के प्रति आग्रह, बाहरी लोगों से दूरी, जातीय अस्पृश्यता और मध्य युग में समुद्र पार यात्रा करने को पाप मानना भी कारण हो सकता है। आधुनिक इतिहास में केवल स्वाइन फ्लू ही ऐसी वैश्विक महामारी है, जिसने भारत को प्रभावित किया। 2009 में फैली इस महामारी ने भारत में 1035 लोगों की जानें लीं। यह रोग एच1 एन1 वायरस से फैलता है। अभी भी इसका असर दिखाई पड़ता है।

बहरहाल पूरा भारत इन दिनों कोरोना वायरस से जूझ रहा है। हालांकि हमारे यहां अभी भी तुलनात्मक रूप से इसका असर कम है। फिर भी धीमी गति से ही सही कोरोना वायरस कोविद- 19 अपना रंग दिखा रहा है। देश में चार मौतें इसी महामारी से हो चुकी हैं। ऐसे में सरकार अपने ढंग से इसे रोकने के हर संभव उपाय कर रही है। कोरोना के हर संदिग्ध को क्वारेंटाइन में रखा जा रहा है। संचार साधनों पर बंदिश लगाई जा रही है। लोगों को यथासंभव घरों में ही रहने और सामाजिक जमावड़े से बचने के लिए कहा जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह ऐहतियाती कार्रवाई भी पैनिक (दहशत) फैलाने की हद तक है।

एक अर्थ में यह ठीक भी है, लेकिन हमारे पास विकल्प भी सीमित हैं। क्योंकि फिलहाल बचाव ही कोरोना का इलाज है। इस बीच एक दिलचस्प बहस यह चली है कि ‘क्वारेंटाइन’ जैसे भारी-भरकम और कुछ हद तक आतंकित करने वाले शब्द को किस देसी निगाह से देखा और समझा जाए? अमूमन क्वारेंटाइन जैसा शब्द भारत में विज्ञान और चिकित्साशास्त्र की किताबों में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है। हमारे यहां ‘अछूत’ बनाने की अमानवीय परंपरा रही है। लेकिन क्वारेंटाइन जैसा ऐहतियाती प्रयोग कम ही हुआ है।

मराठी लेखिका अलकनंदा साने ने क्वारेंटाइन का समानार्थी शब्द ‘सूतक’ सुझाया है। यानी ‘कोरोना सूतक।‘ गरुड़ पुराण के अनुसार सनातन धर्म में ‘सूतक’ वह समयावधि है, जब कोई शुभ कार्य प्रतिबंधित होता है। सूतक’ के प्रभाव में आने वाले व्यक्ति या परिवार को एक खास समयावधि के लिए कोई भी शुभ कार्य और धार्मिक गतिविधि में भाग लेने की मनाही होती है। ‘सूतक’ जन्म के समय लगता है और मृत्यु पर यह ‘पातक’ कहलाता है। सूतक से बाहर निकलने के लिए शुद्धिकरण जरूरी है। कई लोगों की निगाह में यह अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता है। लेकिन इसके पीछे मूल भावना व्यक्ति को शेष सामाजिक गतिविधि से अलग-थलग करने की है।

आधुनिक संदर्भ में इसकी व्याख्या संक्रमण से बचाव के उपाय के रूप में की जा सकती है। क्वारेंटाइन के पीछे कुछ इसी तरह का भाव है। धार्मिक आडबंर को हटा दें तो शुद्धिकरण भी वास्तव में ‘सेनिटाइजेशन’ ही है। वैसे किसी व्यक्ति को क्वारेंटाइन में भेजने और किसी को आइसोलेशन (पृथक्करण) में रखने में भी फर्क है। आइसोलेशन तब होता है, जब किसी रोगी में रोग पता चल जाता है, जबकि क्वारेंटाइन केवल संदिग्ध के लिए होता है। जरूरी नहीं‍ कि वह कोरोना से ग्रस्त ही हो।

यहां मुद्दा केवल उस भाव बोध का है, जो क्वारेंटाइन अथवा सूतक में निहित है, न ‍कि धार्मिक आडंबर को बढ़ावा देने का। हर महारोग और महामारी पूरे समाज के सामने एक नई चुनौती खड़ी करती है। वह हमें एक नए सामाजिक आचार, व्यवहार और भाषिक मंथन की ओर भी धकेलती है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए क्वारेंटाइन जरा नया शब्द और नया भाव है। इसका पर्याय ‘सूतक’ शब्द में है या नहीं, इस पर गंभीर बहस होनी चाहिए। अलबत्ता ‘सूतक’ शब्द में निहित भाव और लोकाचार हमारे लिए अपरिचित नहीं है। उसे नकारात्मक भाव के बजाय व्यावहारिक अर्थ में लिया जाना चाहिए। और फिर कोई नया सुझाव देना ‘पातक’ तो नहीं ही है।

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