गिरीश उपाध्याय
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कुछ नई शुरुआत की थीं, उनमें एक पहल जनता से सीधे संवाद की भी थी जिसे उन्होंने ‘मन की बात’ नाम दिया था। यह सिलसिला 3 अक्टूबर 2014 यानी सरकार बनने के पांच महीने बाद से ही शुरू हो गया था, जो हर माह अनवरत है। 31 जुलाई को नरेंद्र मोदी ने इस कार्यक्रम के तहत 22 वीं बार देश की जनता से सीधे बात की।
मन की बात के 22 वें संस्करण के प्रसारण के बाद सोशल मीडिया कह रहा है कि इस कार्यक्रम से अब लोगों का मोहभंग होने लगा है। सोशल मीडिया पर इस कार्यक्रम को लेकर जो सबसे बड़ी ‘आपत्ति’ ली जा रही है वो यह कि प्रधानमंत्री इसमें जाने कौन कौन से विषयों पर बात करते हैं लेकिन वे न महंगाई पर बात करते हैं, न अच्छे दिनों पर, न उन्होंने गोमांस के मुद्दे पर हुए दादरी कांड की बात की थी और न ही गोरक्षा के मुद्दे को लेकर गुजरात के ऊना में हुई दलितों की पिटाई पर वे कुछ बोल रहे हैं। जब देश के सामने खड़े ज्वलंत मुद्दों पर प्रधानमंत्री को कुछ बोलना ही नहीं है तो फिर इस एकतरफा संवाद का अर्थ ही क्या है।
दरअसल मन की बात के मामले को मैं दो तरह से देखता हूं। अगर कंटेंट और प्रस्तुति की प्रभावशीलता के लिहाज से देखें तो यह जरूर लगता है कि शुरुआत के कुछ एपीसोड को छोड़ दें, तो अब यह कार्यक्रम श्रोताओं को बांधे रखने में सफल नहीं हो रहा है। अब का तो मुझे पता नहीं लेकिन शुरुआती दौर में यह भी हुआ था कि भाजपा शासित राज्यों में तो ‘मन की बात’ गांव चौपालों में सरकारी स्तर पर रेडियो या टीवी की व्यवस्था कर लोगों को सुनवाई गई थी।
इस कार्यक्रम के प्रति लोगों की उत्सुकता के पीछे मोदी सरकार से बंधी उम्मीदों का भी बहुत बड़ा हाथ था। लोग सरकार के हर कार्यक्रम को नई नजर और नए उत्साह से देख रहे थे। लेकिन जैसे जैसे सरकार से लोगों की उम्मीदें कमजोर पड़ीं, मन की बात जैसे कार्यक्रमों का प्रभाव भी कमजोर पड़ता नजर आया। यह धारणा मध्यम वर्ग और उससे ऊपर के वर्ग में अधिक है। यही वो वर्ग भी है जो कथित सोशल मीडिया पर सक्रिय रहता है। इस वर्ग की अपनी अलग महत्वाकांक्षाएं और अपेक्षाएं हैं और इसकी प्रतिक्रियाएं इन्हीं महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं से संचालित होती हैं।
लेकिन इसके विपरीत देश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो स्मार्ट फोन से चिपकी सोशल मीडिया की दुनिया से अलग जिंदगी बसर करता है। उसके पास न तो वाट्सएप, फेसबुक या ट्विटर देखने का साधन है और न ही उसके पास इतनी फुर्सत है कि वह बार बार होने वाली टन्न की आवाज के साथ सारे काम छोड़कर यह देखने में लग जाए कि वाट्सएप पर कौनसा नया संदेश आया है।
इस बात को जरा दूसरे ढंग से समझिए। आज भले ही बिना बात के चपर चपर करने वाले या बेसिर पैर की कमेंट्री करने वाले रेडियो जॉकी के साथ दर्जनों एफएम आ गए हों, लेकिन गांव देहात के करोड़ों लोगों में व्यापक पहुंच सिर्फ आकाशवाणी या विविध भारती की ही है। चूंकि हम अपने स्मार्ट फोन में सिमटी दुनिया को ही पूरी दुनिया समझने का भ्रम पाले हुए हैं इसलिए शायद हम यह भी मान लेते हैं कि, ये जो कुछ एफएम पर आ रहा है सारे लोग वही पसंद कर रहे होंगे।
लेकिन ऐसा नहीं है। गांव देहात में आज भी आपको पचास साल पुराने गीतों की फरमाइश करने वाले बड़ी संख्या में मिल जाएंगे। आज भी आकाशवाणी के पास हजारों लाखों की संख्या में चिट्ठियां आती हैं। आज जब हमारे लिए हाथ से लिखी चिट्ठी कोई अनजान से चीज हो गई है, उसी दौर में विविध भारती के उद्घोषक पत्र लिखने वाले श्रोताओं को यह सलाह देते मिल जाएंगे कि बारिश के दिनों में श्रोतागण उन्हें स्याही वाले पेन से लिखी चिट्ठियां न भेजें, क्योंकि पानी लगने के कारण स्याही धुल जाती है और पत्र पढ़ना मुश्किल हो जाता है।
यह संदर्भ मैंने इसलिए दिया क्योंकि मोदी अपने मन की बात इसी आकाशवाणी पर प्रसारित करते हैं। इसके कमजोर या नीरस होने की जो खबरें हम शहरों में पढ़ रहे हैं, वे स्मार्ट फोन का उपयोग करने वाली और एफएम रेडियो सुनने वाली पीढ़ी लिख रही है। मैं यह नहीं कहता कि पूरा देश मंत्रमुग्ध होकर मोदीजी की हर बात पर भरोसा कर रहा होगा। राजनीतिक दृष्टिकोण से इस कार्यक्रम की समीक्षा अलग तरह से की जा सकती है। लेकिन संचार का विद्यार्थी होने के नाते मैं चाहूंगा कि इस कार्यक्रम के असर का वास्तविक आकलन तभी हो सकता है जब गांव देहात में कोई तथ्यात्मक और विश्वसनीय सर्वे हो।
ध्यान दीजिए, मोदी ने मन की बात के सबसे ताजा एपीसोड में इसी गांव देहात को ध्यान में रखकर बाढ़ की, डेंगू बुखार की, बीमार होने पर दवाई का डोज पूरा और समय पर लेने की, दवाई के पत्ते पर छपने वाली लाल लकीर की, गर्भवती माताओं व नवजात की सेहत और सुरक्षा की, डॉक्टरों से महीने में एक बार गांवों में जाकर निशुल्क सेवा देने की बात की है। और परंपरा से अलग जाते हुए इस बार 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से दिए जाने वाले अपने भाषण के लिए लोगों से सुझाव मांगे हैं। जाहिर है ये विषय सनसनीखेज नहीं है। क्या इसलिए तो मन की बात कमजोर नहीं लग रही?