हाल ही में दो खबरों ने मुझे बहुत विचलित किया। वैसे हम लोगों की स्थिति भी उन डॉक्टरों जैसी होती है जो मरीज के दुख-दर्द से ‘इम्यून’ हो जाते हैं। मरीज का दर्द से कराहना या बीमारी अथवा दुर्घटना से किसी की मौत हो जाना उनके लिए वैसा भावनात्मक या ‘संवेदनशील’ मामला नहीं होता जैसा खुद मरीज या उसके परिजनों के लिए होता है।
इसी तरह हम मीडिया के लोग भी इतनी सारी खबरों के साथ खेल चुके होते हैं कि कई बार बड़ी से बड़ी खबर भी हममें वैसी संवेदना नहीं जगा पातीं। हम उस घटना को सिर्फ खबर के एंगल से देखकर रह जाते हैं। हालांकि मेरा मानना है कि एक पत्रकार में यदि घटनाओं और सूचनाओं के प्रति मानवीय संवेदना नहीं है तो वह अपने पेशे के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता।
जिन खबरों का मैंने जिक्र किया उनमें से एक खबर मैंने सुबह स्थानीय अखबार में पढ़ी और दूसरी खबर मुझे इंटरनेट पर देखने को मिली। ये खबरें इंसान और इंसानी फितरत से ही घिन पैदा करने वाली हैं।
पहली खबर उत्तरप्रदेश से है। इसमें कहा गया है कि पीलीभीत टाइगर रिजर्व के आसपास रहने वाले लोग मुआवजा पाने के लालच में अपने बुजुर्गों को जंगल में भेज रहे हैं ताकि वे शेर का शिकार बन जाएं और उनकी मौत पर परिजन सरकार से मुआवजे की मोटी रकम हासिल कर सकें। नियमानुसार टाइगर रिजर्व में होने वाली ऐसी मौतों पर कोई मुआवजा नहीं मिलता लेकिन लाश यदि जंगल से बाहर के मैदानी इलाके में मिले तो परिवार को अच्छी खासी राशि मुआवजे के रूप में मिलती है।
इस खबर का स्रोत वन्यप्राणी अपराध नियंत्रण ब्यूरो (WCCB) से जुड़े किन्हीं कलीम अतहर की एक रिपोर्ट को बताया गया है। अतहर ने इस इलाके में शेरों के हमले के कारण होने वाली मौतों का अध्ययन किया और उनका मानना है कि लोग मुआवजे के चक्कर में अपने घर के बुजुर्गों को शेर का निवाला बनवा रहे हैं। ब्यूरो ने अतहर की रिपोर्ट को आगे कार्रवाई के लिए नैशनल टाइगर कंनर्वेशन अथॉरिटी के पास भेजने का फैसला किया है।
रिपोर्ट में इशारा किया गया है कि लोग इन बुजुर्गों को जंगल में भेजते हैं और जब वे शेर का शिकार बन जाते हैं तो जंगल से उनकी लाश उठाकर टाइगर रिजर्व के बाहर मैदानी इलाके में पटक दी जाती है। नियम यह है कि रिजर्व क्षेत्र में तो ऐसी मौत पर कोई मुआवजा नहीं मिलेगा लेकिन मैदानी क्षेत्र में किसी व्यक्ति के वन्यप्राणी द्वारा मारे जाने पर पांच लाख रुपए का मुआवजा दिया जाता है। दावा किया गया है कि इसी राशि के चक्कर में लोग अपने बुजुर्गों के साथ अमानवीयता की पराकाष्ठा वाला व्यवहार कर रहे हैं।
मुझे लगता है कि मीडिया को इस मामले की तह तक जाना चाहिए। जिस व्यक्ति ने WCCB को रिपोर्ट दी है उसकी कितनी प्रामाणिकता है इसका भी पता लगाना बहुत जरूरी है। यह यकीन करने को मन तैयार ही नहीं होता कि कोई सिर्फ चंद रुपयों के लिए अपने परिजनों को शेर का निवाला बनने के लिए जंगल में धकेल देगा। यह बात ठीक है कि समाज के मानवीय मूल्यों में भारी गिरावट आई है और विभिन्न मौतों के एवज में मोटा मुआवजा देकर सरकारों ने एक नई अपसंस्कृति समाज में पैदा की है, लेकिन ऐसे मामले अपवादस्वरूप तो हो सकते हैं पर वे लोगों की आदत बन जाएं ऐसा संभव नहीं है।
इस खबर को देश के तमाम बड़े अखबारों ने जारी किया है, लेकिन ऐसी खबरें जारी किए जाने और उनमें निष्कर्ष के तौर पर अनुमान लगाने से पहले तमाम बातों का परीक्षण करना बहुत जरूरी है। ऐसे मामलों में अतिरिक्त सावधानी बरती जानी चाहिए। यह कोई सामान्य सड़क दुर्घटना की रिपोर्टिंग नहीं हैं। यह मानवीय मूल्यों, भावनाओं, संवेदनाओं और सबसे ऊपर इंसानी रिश्तों से जुड़ा मामला है। इसलिए यदि ऐसी घटनाएं हो रही हैं तो यह बहुत ही गंभीर मामला है और यदि इस बारे में दी गई रिपोर्ट प्रामाणिक नहीं है तो और भी गंभीर, बल्कि आपराधिक कृत्य है।
दूसरी खबर भी ऐसे ही मानवीय मूल्यों से जुड़ी है। इंडिया टुडे की वेबसाइट के मुताबिक आंध्रप्रदेश में अनंतपुर जिले के कृष्णापुरम कस्बे में तीन बेटियों के पिता राम सुब्बारेड्डी ने अपनी दो बेटियों और पत्नी की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि दोनों बेटियों का एमबीए में दाखिला होने के बाद उनकी पढ़ाई के लिए वह फीस नहीं देना चाहता था। परिजनों के अनुसार बेटियों की पढ़ाई के लिए पति पत्नी में अकसर झगड़ा होता था। घटना के बाद सुब्बारेड्डी ने खुद भी जहर खाकर जान दे दी। अब परिवार में इकलौती लड़की बची है जो बीएससी की पढ़ाई कर रही है।
ऐसी घटनाएं कहीं भी हों, पूरे समाज के माथे पर कलंक का टीका हैं। कारण जो भी रहा हो, लेकिन क्या ये घटनाएं साबित नहीं करतीं कि देश के विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ने के दावे और बेटियों की पढ़ाई के लिए घोषित तमाम सारी योजनाएं असलियत में या तो खोखली हैं या उनका लाभ जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं पा रहा।
एक तरफ ऐसी योजनाओं के प्रचार प्रसार पर ही करोड़ों रुपयों का फूंक दिया जाना और दूसरी तरफ चंद रुपयों के एवज में दो जरूरतमंद बच्चियों सहित पूरे परिवार का तबाह हो जाना साबित करता है कि कथनी और करनी में कितना अंतर है। यहां समाज भी अपने गुनाह से बरी नहीं हो सकता। सुब्बारेड्डी के जो परिजन आज मीडिया से यह कह रहे हैं कि बच्चियों की फीस के लिए परिवार में अकसर कलह होता था, क्या वे खुद आगे आकर अपने अंशदान या सहयोग से उन बच्चियों को नहीं पढ़ा सकते थे?
प्रश्न वही संवेदना का है। सरकार हो या समाज, संवेदनशील होने का बिल्ला छाती पर चिपकाना और बात है और हकीकत में संवेदनशील होना और बात… हम केवल कहने भर को आदमी हैं, असल में तो हम आदमखोर हो चले हैं…
wah wah