भोपाल सेंट्रल जेल से स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) से जुड़े आठ आतंकियों के फरार होने और चंद घंटों के भीतर सभी के पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने की कहानी में कई झोल हैं। इसमें आधी सचाई है, तो आधा फसाना। लिहाजा जो लोग हकीकत बताना चाहते हैं वे इसके आधे हिस्से का उपयोग कर रहे हैं और जो फसाद खड़ा करना चाहते हैं वे अपने हिसाब से फसाने का इस्तेमाल कर रहे हैं। यही वजह है कि इतनी बड़ी घटना, एक राजनीतिक वाद-विवाद प्रतियोगिता में तब्दील हो गई है। इसमें शामिल कुछ उत्साही या दुरुत्साही प्रतिभागी इसके पक्ष में बोल रहे हैं तो कुछ विपक्ष में। सबने अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से अपने पाले तय कर लिए हैं।
श्रेय लेने और ठीकरा फोड़ने की इस होड़ में किसे जीता हुआ माना जाए और किसे पराजित इसका फैसला करना बहुत मुश्किल है। बेहतर होगा यदि हम इस पूरे किस्से को दो हिस्सों में बांटकर देखें और फिर किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करें।
घटना का पहला हिस्सा है उन आठ आरोपियों का जेल से फरार होना। मैं यहां सिर्फ ‘आरोपी’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं। चूंकि आजकल समाज में आतंकवादियों के बहुत ‘हमदर्द’ पैदा हो गए हैं, इसलिए हो सकता है कि इन‘बेचारों’ को आतंकवादी कहने पर बहुत से लोगों के पेट में मरोड़ उठने लगें या उनकी (राजनीतिक) भावनाएं आहत हो जाएं। यदि कहानी कुछ और रही हो तो पता नहीं, पर फिलहाल जो बताया जा रहा है उसके मुताबिक दीवाली की रात भोपाल सेंट्रल जेल में बंद इन आठों आरोपियों ने जेल ब्रेक किया। यानी वे किसी भी मामले में दोषी नहीं रहे हों, तो भी यह काम करके उन्होंने कानून तोड़ा। और ऐसा करने के दौरान उन्होंने वह अपराध भी किया जो भारतीय दंड विधान के तहत सबसे संगीन अपराध है, यानी एक व्यक्ति की हत्या। जेल से भागते समय उन्होंने एक प्रधान आरक्षक का गला रेत डाला। मतलब, वे न तो किसी भजन मंडली के सदस्य थे, जो जेल से बाहर भजन गाने जा रहे हों और न ही वे बाहर निकलकर समाज पर सद्कर्म की पुष्पवर्षा करने वाले थे। वे एक इंसान की हत्या कर जेल से भागे थे।
अब जरा इन लोगों के इतिहास पर नजर डाल लें। जो लोग जेल से भागे उनकी संगीन आपराधिक पृष्ठभूमि रही है। उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं और उनके पकड़े जाने के लिए भारी भरकम इनाम घोषित किए जा चुके थे। इनमें से कई लोग तीन साल पहले खंडवा जेल से फरार होने का कारनामा कर चुके थे। यानी ये आदतन अपराधी थे। जो लोग पुलिस एनकाउंटर को लेकर सवाल उठा रहे हैं, उन्हें भी यह तो मानना ही होगा कि इन लोगों में ‘सुधरने’ जैसा कोई तत्व मौजूद नहीं था। वे अपराध की जिस लाइन पर चल पड़े थे, उसी राह पर आगे बढ़ने की ठान चुके थे।
दूसरी बात, जेल से भागने के बाद वे क्या करते, इसके बारे में दावे से भले ही कुछ न कहा जा सके, लेकिन यह तो पक्का है कि वे साधु तो नहीं ही बनते। वे फिर कोई वारदात करते, फिर किसी नरसंहार की साजिश को अंजाम देते या ऐसी वारदातों को अंजाम देने वाले लोगों और संगठनों से मिलकर उन्हें मजबूत करते। तो क्या हम समाज से ऐसे लोगों के लिए ‘संरक्षण’ की मांग कर रहे हैं जो पहले अपराध करें, पकड़ में आने के बाद जेल जाएं तो जेल से भाग निकलें और फिर अपराध की दुनिया का हिस्सा बनकर समाज पर कहर ढाएं। जेल से भाग निकलने या किसी भी सौदेबाजी के तहत जेल से छूटने वाले क्या करते हैं, या क्या कर सकते हैं, यह जानने के लिए क्या मसूद अजहर का उदाहरण काफी नहीं है?
हां, बिलकुल सही है कि पुलिस चाहती तो इन आठ में से आठों को ही या उनमें से कुछ को जिंदा पकड़ सकती थी। लेकिन क्या उससे इनकी अपराधिक प्रवृत्ति को खत्म किया जा सकता था? निश्चित रूप से देश के हर नागरिक के अपने मानवाधिकार हैं, लेकिन इतना सब कुछ भोग लेने के बाद भी क्या यह देश आतंकवादियों के मानवाधिकारों की बात करने का जोखिम उठा सकता है? आतंकी गतिविधियों में शामिल रह चुके लोगों के समर्थन में कूदने वाले लोग क्या यह गारंटी लेने को तैयार हैं कि ऐसे लोग भविष्य में कोई आपराधिक वारदात नहीं करेंगे?
इस संबंध में कांग्रेस के नेताओं ने बढ़ चढ़कर बयान दिए हैं। उन बयानों पर चर्चा न ही की जाए तो बेहतर है। क्योंकि घटना के बाद कांग्रेस के नेता खुद ही तय नहीं कर पा रहे हैं कि उन्हें ‘स्टैण्ड’ क्या लेना है। दिग्विजयसिंह परंपरागत रूप से अलग लाइन लेते हुए पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठा रहे हैं, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया पुलिस एक्शन का समर्थन कर रहे हैं। कमलनाथ तीसरी ही लाइन लिए हुए हैं। इसलिए कांग्रेस के बयानों या उसके विरोध का कोई मतलब नहीं है।
हां, जो मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है और जिस पर गंभीर जांच के साथ उतनी ही गंभीर कार्रवाई भी होनी चाहिए, वह यह कि इतनी सुरक्षित मानी जाने वाली जेल से आखिर ये अपराधी भागने में कामयाब कैसे हुए? जिस तरह ये अपराधी या आतंकवादी देश के लिए खतरा हैं, उतना ही बड़ा खतरा वे भेदिये या इनकी मदद करने वाले भी हैं, जिनके सहयोग के बिना ऐसा होना संभव ही नहीं था। इस जेल ब्रेक की ‘असली कहानी’ का सामने आना भी बहुत जरूरी है। मध्यप्रदेश सरकार इन‘आतंकवादियों’ को मार दिए जाने पर खुद की पीठ थपथपाने के बजाय अपनी आस्तीनों को टटोले तो ज्यादा बेहतर होगा।