कमलनाथ की बेफिकरी और भार्गव की रंगाई पुताई

अजय बोकिल

‘जय किसान कर्ज माफी योजना’  के शुभारंभ पर मध्‍यप्रदेश में अपनी अन्य दलों के समर्थन से बनी सरकार की स्थिरता को लेकर मुख्यनमंत्री कमलनाथ की बॉडी लैंग्वेज में एक अलग तरह का आत्मविश्वास और बेफिकरी नजर आई। यह मुद्दा कर्नाटक की जेडीएस कांग्रेस सरकार को गिराने के लिए भाजपा द्वारा चली जा रही चालों और मप्र में नए-नए बने नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव की सागर में की गई उस टिप्पणी के बाद और गर्मा गया था कि जब तक राज्य में मंत्रियों के बंगलों की पुताई पूरी होगी, उसके पहले ही कमलनाथ सरकार गिर जाएगी।

दरअसल बसपा, सपा और निर्दलीयों के समर्थन पर टिकी कमलनाथ सरकार की स्थिरता को मंत्री बंगलों की पुताई से जो़डने वाला यह नया राजनीतिक रूपक था। इससे इतना तो पता चल गया कि वरिष्ठ नेता गोपाल भार्गव अब नेता-प्रतिपक्ष की अपनी नई भूमिका में खुलकर खेलने लगे हैं। मूलत: कांग्रेसी संस्कृति से आने वाले भार्गव अपनी विवादास्पद टिप्पणियों और चुटकियों के लिए चर्चित रहे हैं।

एक बार उन्होने बुंदेलखंड के परंपरागत राई नृत्य पर सवाल उठाने वालों पर कटाक्ष किया था कि ऐसे सवाल अधोवस्त्र पहनकर नाचने वाली महिलाओं को लेकर नहीं उठाए जाते। इसी तरह भाजपा राज में कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या के सवाल पर भार्गव उवाच था कि अरे मरते तो विधायक भी हैं ! इसी कड़ी में अनबोला वाक्य यह था कि किसान खुदकुशी कर रहे हैं तो क्या करें। विधानसभा में उनकी हल्की टिप्पणियों को लेकर भी कई बार बवाल मच चुका है। लेकिन गोपाल भार्गव की सेहत पर ऐसी बातों का खास असर नहीं होता।

बहरहाल यहां मुद्दा मंत्रियों के बंगले की पुताई और भाजपा के भाग से कमलनाथ सरकार का छींका टूटने की आस का है। पहला सवाल तो यह कि सरकार की जिदंगी और पुताई के बीच क्या रिश्ता है? अगर यह माना जाए कि मंत्रियों के बंगलों की पुताई बहुत जल्दबाजी में खत्म की जानी है और उसी हिसाब से कमलनाथ सरकार का रंग भी उतर जाना है तो यह खाम खयाली इसलिए है कि राजधानी भोपाल में मंत्रियों के बंगलों का मेंटनेंस तो साल भर (दूसरों के हिस्से का बजट काटकर भी) होता रहता है। सो किसी न किसी मंत्री के बंगले की रंगाई-पुताई चलती ही रहती है।

अगर गोपाल भार्गव का इशारा बंगलों की रंगाई-पुताई पर होने वाले खर्च की ओर है तो इस मामले में भाजपाइयों को पछाड़ने में कांग्रेसी मंत्रियों को वक्त लगेगा। आंकड़ों की बात करें तो 2015 में एक आरटीआई में खुलासा हुआ था कि शिवराज सरकार में मंत्रियों के बंगलों के रखरखाव पर 35 करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए थे। और तो और भाजपा राज में विंध्य कोठी पर कब्जे को लेकर दो मंत्रियों में भी खूब ठनी थी।

जाहिर है बंगले को लेकर जितने संवेदशनशील भाजपा सरकार और उसके नेता थे, कांग्रेस में वैसा क्रेज अभी नहीं दिख रहा है। लेकिन भार्गव के कटाक्ष में बंगले के बहाने कमलनाथ सरकार की स्थिरता पर गंभीर सवालिया निशान था। किसान कर्ज माफी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इसका जवाब बहुत सधे और मारक अंदाज में दिया। उन्होंने नाम लिए बिना कहा कि जो लोग (भाजपा) विधानसभा में अध्यक्ष के चुनाव के पहले ही मैदान छोड़कर भाग गए, उन्हें इस तरह की बातें नहीं करना चाहिए। यानी पहले मैदान में आकर मुकाबला करो फिर बंगलों की पुताई, रंगाई और साफ सफाई पर बेधड़क बात करो।

गोपाल भार्गव ने यह भी कहा था कि ‘जिसके हार्ट और किडनी दूसरी पार्टी के हों, वह सरकार ज्यादा दिन नहीं चलती। लेकिन भाजपा की तो एक ही बॉडी में फिलहाल हार्ट, ब्रेन और किडनी अलग-अलग लोगों की दिखाई दे रही है, उसका क्या? वहां तो पार्टी संचालन की डोर भी किसी और के हाथ है। भार्गव ने यह भी दावा किया कि कांग्रेस द्वारा जनता के लिए की गई घोषणाएं वे कमलनाथ सरकार से गला दबाकर पूरी करवाएंगे।

यह गलघोंटू वार वास्तव में किसके लिए था, यह समझना मुश्किल है। कारण कमलनाथ सरकार का अंदाज तो शुरू से ही घोषणाओं और खासकर अव्यावहारिक घोषणाओं से बचने का रहा है। कमलनाथ साफ कह चुके हैं कि उनका भरोसा घोषणाओं के हवाई रॉकेट पर सवारी के बजाए जमीनी बातें करने और उन्‍हें जमीन पर उतारने में ज्यादा है। इसीलिए उन्होंने कार्यक्रम में यह कटाक्ष किया कि लोग मुझे यह न सिखाएं कि निवेश कैसे आता है।

दरअसल कथनी और करनी का भावांतर ही विधानसभा चुनाव में भाजपा को ले डूबा था। हर काम पेशेवर तरीके से करने के आग्रही कमलनाथ इस ‘भावांतर’ के राजनीतिक मर्म को खूब समझते हैं। इसीलिए उन्होंने कहा कि वे पहले काफी होम वर्क करते हैं, उसके बाद ही योजनाओं का ऐलान करते हैं। पहले कलश और बाद में नींव का जमाना अब गया। ऐसे में जब उन्होंने यह कहा कि 18 जिलों में निवेश की ठोस कार्ययोजना लेकर वे फिर जनता से मुखातिब होंगे तो इसका मतलब यही है कि प्रदेश के विकास को नई गति देने की खिचड़ी केवल हवा में नहीं पक रही है।

इन्हीं तैयारियों के बीच अगर कमलनाथ ने बसपा सुप्रीमो मायावती को उनके 63 वें जन्म दिन की बधाई दे डाली और ‘किसान का बेटा’ न होने के बावजूद किसान की माली तस्वीर बदलने के प्लान पर काम शुरू कर दिया तो इसके कुछ मायने हैं और जनता की प्राथमिक परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होने का दृढ़ संकल्प भी है। एक और बात है प्रचार मोह से दूरी। हर बात में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का नाम जोड़कर उससे राजनीतिक लाभ निचोड़ने के वर्तमान चलन के विपरीत जाकर कमलनाथ ने कर्ज माफी योजना में ‘जय किसान’ शब्द जुड़वाया।

यह अपने आप में मार्के की बात है। क्योंकि अगर योजना पर ईमानदारी (ऐसी उम्मीद रखनी चाहिए) से काम होगा तो किसान के दिल से दुआएं मुख्यमंत्री के लिए ही तो निकलेंगी। इस ‍हिसाब से यह दुआओं का भी अघोषित ‘इन्वेस्टमेंट’ है। दूसरे, राजनीतिक पार्टियां अमूमन चुनाव के वक्त एक दूसरे से काम काज का हिसाब पूछती हैं। यहां कमलनाथ ने खुद ही ऐलान कर दिया ‍कि वो पांच साल बाद हर वर्ग को अपने काम का हिसाब देंगे और पूरी तैयारी के साथ देंगे। यकीनन यह सरकार की कार्य संस्कृति और मानसिकता में बदलाव का आग्रह तो है ही साथ ही इसमें यह संकेत भी छिपा है कि भाजपा अपना घर सुरक्षित रखे, हमारी चिंता न करे।

हो सकता है कि कुछ लोग इसे आरंभिक उत्साह के आईने में देखें। लेकिन जब काम के मामले में घंटे घडि़याल से ज्यादा महत्व अंतिम परिणाम का हो जाता है तो सफलता का आत्मविश्वास उसी मंद मुस्कुराहट के साथ झलकता है, जो कर्ज माफी के मंगलाचरण में कमलनाथ की देहबोली में दिखा। वैसे सरकारों की उम्र को बंगलों की रंगाई पुताई से जोड़कर देखना अगंभीरता की निशानी है। बंगले के रंग रोगन से ज्यादा अहम यह है कि उसमें रहने वाला कौन है और किस दमदारी से काम करता है। कर्नाटक और भाजपा की राजनीतिक तासीर में कुछ तो फर्क है।

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