जैसे जैसे दिल्ली के चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है देश की राजधानी का पारा चढ़ भी रहा है और बिगड़ भी रहा है। कहने को दिल्ली विधानसभा चुनाव का वैसा कोई महत्व नहीं है जैसा देश के अन्य राज्यों का, लेकिन रसूख के लिहाज से दिल्ली देश के बड़े से बड़े राज्य से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देश की राजधानी है। पिछली बार भाजपा और कांग्रेस दोनों को आम आदमी पार्टी ने यहां धो कर रख दिया था। वह चुनाव एक तरह से भाजपा के अश्वमेध के घोड़े की गति थमने की शुरुआत थी।
देश में मई 2014 में प्रचंड बहुमत से पहली बार अपने बूते पर सरकार बनाने वाली भाजपा को साल भर से भी कम समय के भीतर ही फरवरी 2015 में दिल्ली में जो झटका लगा था उसकी कसक पिछले पांच सालों में बराबर बनी रही। शायद यही कारण है कि भाजपा ने इस बार साम, दाम, दंड, भेद हर तरीका अपना कर दिल्ली विधानसभा चुनाव को जीतने की ठानी है।
कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और संसद में नागरिकता संशोधन बिल पास होने से पहले तक दिल्ली का जो माहौल था वह यह संकेत दे रहा था कि वहां इस बार भी आम आदमी पार्टी की स्थिति मजबूत है। संभावना जताई जा रही थी कि आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में इस बार भी दिल्ली में सरकार बनाने में कामयाब हो सकती है।
लेकिन सीएए को लेकर देश में विरोध की जो लहर उठी है और उसमें भी खासतौर से दिल्ली में जो घटनाएं हुई हैं उन्होंने दिल्ली के चुनाव का सारा गणित ही गड़बड़ा दिया है फिर चाहे वह जामिया मिलिया में हुई हिंसा और पुलिस मारपीट का मामला हो या फिर जेएनयू परिसर में हुई हिंसा और छात्रों के विरोध प्रदर्शन का। इसके अलावा सीएए को लेकर दिल्ली की सड़कों पर आए दिन होने वाले प्रदर्शनों ने भी वहां के राजनीतिक माहौल को काफी हद तक प्रभावित किया है।
राष्ट्रीय राजधानी में हो रहे इन प्रदर्शनों में सबसे अधिक चर्चित प्रदर्शन शाहीन बाग इलाके का है। सीएए को वापस लिए जाने की मांग के साथ कई दिनों से सड़क रोक कर धरने पर बैठी मुसलिम महिलाओं का विरोध दिल्ली के चुनाव का एक तरह से केंद्र बिंदु बन गया है। इस धरने को लेकर उस इलाके के लोगों और उस सड़क से नियमित रूप से गुजरने वालों को होने वाली परेशानी शुरुआती कुछ दिनों तक तो सामान्य असुविधा का मसला रही लेकिन धीरे धीरे उसने सांप्रदायिक रूप ले लिया और आज यह धरना दिल्ली चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रमुख कारण बताया/बनाया जा रहा है।
दिल्ली से आने वाली मीडिया रिपोर्ट्स में लगातार यह बात उठाई जा रही है कि क्या शाहीन बाग का धरना दिल्ली चुनाव को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चरम पर ले जाकर चुनाव की दिशा मोड़ देगा? सवाल पूछा जाने लगा है कि कहां है वो दिल्ली पुलिस जो जामिया की लाइब्रेरी तक में घुसकर छात्रों को पीट सकती है पर शाहीन बाग में इतने दिनों से सड़क जाम कर बैठे लोगों को हटाने की हिम्मत नहीं कर रही।
दरअसल शाहीन बाग मामले ने दिल्ली चुनाव की राजनीति फिजा बदलने के साथ साथ भारतीय राजनीति की एक संभावना को कुचलने का काम भी किया है। पहले बात राजनीतिक फिजा की। दिल्ली चुनाव में पहले की तरह इस बार भी मुकाबला आम आदमी पार्टी विरुद्ध अन्य दल था। इन अन्य दलों में प्रमुख रूप से भाजपा और कांग्रेस पार्टी थी। शाहीन बाग घटना के बाद भाजपा ने बहुत आक्रामक होकर आम आदमी पार्टी की सरकार पर निशाना साधा और आरोप लगाया कि उसकी अक्षमता के कारण ऐसे हालात पैदा हुए हैं।
जब सीधा आरोप लगा तो अब तक शाहीन बाग पर बोलने से बचते रहे अरविंद केजरीवाल को चुनावी गणित ने मुंह खोलने पर मजबूर किया और उन्होंने कहा कि रास्ते जाम होने और लोगों को असुविधा होने के पीछे भाजपा की केंद्र सरकार है। भाजपा खुद नहीं चाहती कि रास्ते खुलें क्योंकि इसमें उसे राजनीतिक फायदा नजर आ रहा है। केजरीवाल ने केंद्र सरकार से मांग की कि वह पुलिस को कहकर तुरंत रास्ते खुलवाए।
आप और भाजपा में हो रही यह जुबानी जंग कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि इन दोनों पार्टिंयों की लड़ाई ने कांग्रेस को नेपथ्य में पटक दिया है। अब लोग उसकी चर्चा बहुत कम कर रहे हैं। इससे पहला फायदा भाजपा को यह हुआ कि वह सीधे आप के मुकाबले में आ गई। और जैसे ही यह स्थिति बनी उसके नेताओं के बयानों ने हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण को बढ़ाने वाले बयानों की संख्या और उनकी मारक क्षमता में और इजाफा कर दिया।
अरविंद केजरीवाल को इस स्थिति ने मुश्किल में डाला है और शायद यही कारण रहा होगा कि सोमवार को उन्होंने एक टीवी चैनल से इंटरव्यू में कहा कि यदि भाजपा सत्ता में आई तो पांच सालों में आम आदमी सरकार द्वारा किए गए विकास कार्य और दिल्ली की प्रगति की रफ्तार चौपट हो जाएगी। केजरीवाल का यह बयान ही बताता है कि शाहीन बाग प्रकरण से बन रहे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हालात ने आम आदमी पार्टी को निराश भले न किया हो लेकिन उसे आशंकित जरूर कर दिया है।
दूसरा बड़ा मुद्दा शाहीन बाग के कारण चुनाव पर चढ़ते सांप्रदायिक रंग के चलते विकास के मुद्दे का नेपथ्य में चले जाना है। बहुत लंबे समय बाद देश के किसी राज्य में ऐसी स्थिति बन रही थी जहां सरकार अपने काम को सामने रखकर लोगों से वोट मांगने निकली थी। केजरीवाल सरकार ने अपने शुरुआती सालों में भले ही जुबानी आक्रामकता दिखाई हो लेकिन धीरे धीरे मुख्यमंत्री को समझ में आ गया था कि यह रणनीति ज्यादा कारगर साबित होने वाली नहीं है। इसीलिए आप सरकार ने दिल्ली के विकास पर ध्यान दिया और वहां काम हुए भी, खासतौर से शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली के मामले में।
केजरीवाल इन्हीं उपलब्धियों के दम पर फिर से अपनी सरकार बनाने की उम्मीद में थे, लेकिन शाहीन बाग ने उन्हें आशंकित किया है। दिल्ली में जो कुछ हो रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के लिहाज से और चुनावी राजनीति की दिशा और दशा बदलने के लिहाज से अच्छा नहीं है। विकास और सरकार के कामकाज का मुद्दा पीछे खींचकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को आगे लाना हमारी चुनाव प्रक्रिया को और ज्यादा कमजोर करने का सबब बनेगा।