गिरीश उपाध्याय
पिछले दो माह के दौरान मध्यप्रदेश के दो प्रमुख शहरों में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं जो इस बात का साफ संकेत हैं कि सरकार और जनता के बीच संपर्क और संवाद का जरिया या तो खत्म हो चुका है या लगातार कम होता जा रहा है। जिन्हें जनप्रतिनिधि कहा जाता है वे बुनियादी तौर पर चुनकर ही जनता के बीच से आते हैं, लेकिन उनके और जनमानस के बीच जमीनी हकीकत को लेकर सूचना-संपर्क की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
चिंता की बात यह है कि जिस नौकरशाही को जनता और उसके नुमाइंदों द्वारा चलाई जा रही सरकार के बीच, योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर, सेतु की भूमिका निभानी चाहिए, वह इस पूरे एपीसोड में भ्रम फैलाने का काम ज्यादा कर रही है। और यह भ्रम फैलाने के लिए भी बड़ी होशियारी से कभी जनता के मंच का इस्तेमाल किया जा रहा है, तो कभी सरकार के मंच का। यानी इस बात की पक्की व्यवस्था हो रही है कि बिल्लियों को रोटी न मिले। उनके झगड़े में आज भी बंदर का ही भला हो रहा है। एक और कहावत बंदर के हाथ में उस्तरा देने की है, लेकिन यहां तो बंदर के हाथ तलवार लग गई है और वह भी दुधारी। कोढ़ में खाज की तरह एक सूचना यह भी कि इस बंदर ने अदरक का स्वाद भी जान लिया है। बल्कि यूं कहें कि वह अदरक को भी बड़े चाव से खाने लगा है।
ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब हरियाली और पर्यावरण के नुकसान को लेकर, राजधानी भोपाल के वाशिंदों ने, स्मार्ट सिटी के लिए बनाए गए भोपाल नगर निगम के प्लान का विरोध किया था। जब तक उस विरोध ने जोर नहीं पकड़ा, तब तक यह हवा बनाई जा रही थी कि भोपाल के लोग यहां के हरे भरे इलाके शिवाजी नगर और तुलसी नगर को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए पूरे मन से राजी हैं। राजी क्या हैं बल्कि उतारू हैं। इसके लिए एक फर्जी टाइप के जनमत संग्रह का हवाला भी दिया गया। लेकिन असलियत सामने आने पर जब उस जनमत की हवा निकल गई तो, मजबूर होकर सरकार को घुटने टेकने पड़े। मुख्यमंत्री ने खुद ऐलान किया कि वह योजना उस रूप में क्रियान्वित नहीं होगी।
ठीक ऐसा ही मामला इंदौर के पीपल्याहाना तालाब में जिला न्यायालय के भवन के निर्माण का है। वहां भी जब तक शहर की जनता पूरी तरह विरोध में खड़ी नहीं हो गई, तब तक कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि इससे एक जलाशय नष्ट होगा। सरेआम तालाब की मौजूदगी की अनदेखी कर वहां निर्माण कार्य शुरू भी कर दिया गया था। जब विरोध सर्वदलीय हो गया और उसके साथ जनता की आवाज भी जुड़ गई तो एक बार फिर मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा और उन्होंने भोपाल की स्मार्ट सिटी की तरह ही इंदौर की पीपल्याहाना योजना के लिए भी ऐलान किया कि वहां निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा। आगे इस मामले में क्या किया जाना है, इसका फैसला एक समिति करेगी।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब ये योजनाएं बनती हैं, क्या उस समय कोई नहीं सोचता कि इनका स्थान गलत है, ये पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएंगी या फिर इन्हें क्रियान्वित करते समय व्यापक जनविरोध का सामना करना पड़ेगा? आखिर सरकार तक सही सूचनाएं या जनभावनाएं पहुंचाने के सारे तंत्र सारे लोग कहां गए हैं? क्या मध्यप्रदेश में ये सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गई हैं? क्या अब ऐसे किसी भी जनविरोधी काम को रुकवाने के लिए लोगों को सीधे मुख्यमंत्री तक जाना होगा?और यदि मुख्यमंत्री तक पहुंच नहीं है या वहां से कोई डंडा नहीं चलता तो क्या ऐसी विनाशकारी योजनाएं सीनाजोरी की हद तक जाकर जमीन पर उतार दी जाएंगी? इस प्रदेश में सरकार, प्रशासन, पार्टी नाम की संस्थाएं बची हैं या नहीं?
यह तो बहुत अच्छा संकेत है कि चाहे भोपाल हो या इंदौर, सरकार के ऐसे कदमों के विरोध में खुद जनता ही पुरजोर तरीके से सामने आई। लेकिन कहां गया सत्तारूढ़ दल का सांगठनिक तंत्र? कहां गई जिले के प्रभारी मंत्री की व्यवस्था? कहां गई प्रशासनिक व्यवस्था? एक करोड़ से अधिक सदस्य संख्या का दावा करने वाली पार्टी को क्या अपने स्तर पर यह मामला नहीं उठाना चाहिए था? क्या जिले के प्रभारी मंत्री को केबिनेट की मीटिंग में इस पर बात नहीं करनी चाहिए थी? क्या मुख्यमंत्री से पहले मुख्य सचिव को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए था?
और अब जबकि मुख्यमंत्री ने योजना को आगे नहीं बढ़ाने का ऐलान किया है, तो क्या उन लोगों पर कोई कार्रवाई होगी जिन्होंने तमाम कानून कायदों की अनदेखी करते हुए इस योजना को यहां तक घसीटा। समस्या यही है, हम ऐसे तमाम मामलों में कुछ पत्ते झाड़कर चुप हो जाते हैं। कभी जड़ तक नहीं पहुंचते। यदि इंदौर मामले में सरकार को गुमराह करने वाले अमले और अफसरों पर कार्रवाई नहीं हुई तो, यह क्यों न समझा जाए कि ऊपर से लेकर नीचे तक सभी शरीके जुर्म हैं। जनता के विरोध का या जन भावनाओं का सम्मान करने की मुद्रा तो सिर्फ दिखावा है।