कांग्रेसी हैं तो किसानी न करें और किसान हैं तो कांग्रेसी न बनें

यह बहुत शानदार बात है। इससे ज्‍यादा पारर्दिशता या यूं कहें कि आर-पारदर्शिता और स्‍पष्‍टवादिता की मिसाल कहां मिल सकती है? मध्‍यप्रदेश सरकार ने बगैर किसी लाग-लपेट के यह साफ कर दिया है कि राज्‍य में यदि आप विपक्षी पार्टी कांग्रेस के सदस्‍य हैं तो कृपया खेती किसानी से दूर रहें और यदि खेती किसानी कर रहे हैं तो कांग्रेसी बनने की हिमाकत न करें।

ऐसा इसलिए है कि जब इन निर्देशों का उल्‍लंघन होता है या इनमें कोई घालमेल होता है तो बेचारी हमारी पुलिस धर्मसंकट में फंस जाती है। फिर या तो उसे किसानों पर गोली चलानी पड़ती है या उन्‍हें थाने ले जाकर,नंगा करके पीटना पड़ता है। प्रदर्शन करने वालों को काबू में करने या उन्‍हें सबक सिखाने की धमाचौकड़ी के कारण जनता की फजीहत होती है सो अलग।

उधर सरकार की भी मुश्किल हो जाती है क्‍योंकि उसे न चाहते हुए भी बयान देना पड़ता है कि ये जो लोग धरना, प्रदर्शन, आंदोलन वगैरह कर रहे हैं, वे असली किसान नहीं बल्कि कांग्रेसी हैं। सरकार पर यह दायित्‍व भी आ पड़ता है कि वह आंदोलन करने वालों की धुलाई या उन पर गोलीचलाई करने वाली पुलिस के इससुयाकुकृत्‍य की खामख्‍वाह जांच कराए। मामला ज्‍यादा बिगड़ जाए तो अच्‍छी भली रिटायर जिंदगी बिता रहे किसी पूर्व न्‍यायाधीश को काम में लगाते हुए उसे मामले की न्‍यायिक जांच करने को कहना पड़ता है। आयोग के अध्‍यक्ष बनकर बेचारे जज साहब की अलग फजीहत होती है। उन्‍हें अपने बैठने की जगह से लेकर स्‍टाफ तक के लिए सरकार से महीनों खतोकिताबत करनी पड़ती है।

इन परिस्थितियों में सबसे ज्‍यादा परेशानी गृह मंत्री साहब को होती है। उन्‍हें सब काम छोड़कर पुलिस महानिदेशक को निर्देश देना पड़ता है कि वे तीन, चार या पांच दिन में जांच करके रिपोर्ट सौंपें। पहले से ही बिजी चल रहे डीजीपी साहब को सारा काम धंधा छोड़ अचानक सिर पर आ पड़ी इस मुसीबत से निपटना पड़ता है। यानी जाने कितने लोगों को, जाने कितनी तरह के खटराग करना पड़ते हैं।

और यदि किसान कांग्रेसी न बनें या फिर कांग्रेसी खेती किसानी न करें तो साला कोई झंझट ही नहीं होगा। सारा काम शांति से चलता रहेगा। अव्‍वल तो कोई प्रदर्शन होगा नहीं और होगा भी तो सरकार के सामने कम से कम यह धर्मसंकट तो नहीं रहेगा कि इन प्रदर्शनकारियों को कांग्रेसी बताएं या नहीं। वह कोई दूसरा रास्‍ता सोचेगी, वह यह भी कह सकती है कि ये किसान नहीं बल्कि दूसरे ग्रह से आए एलियन हैं जो यहां के‘धरना डांस’से प्रभावित होकर वैसा ही डांस सीख रहे हैं।

जरा सोचिए तो सही, यदि ऐसा हो जाए तो प्रदेश हित में कितना अच्‍छा होगा। अरे हमारे देश में पुलिस इस काम के लिए थोड़ी बनी है कि वह चोरी, डकैती, बलात्‍कार रोके या फिर यूं ही आए दिन इन टुच्‍चे प्रदर्शनकारियों से निपटती रहे। उस बेचारी के पास और भी बहुत से‘काम धंधे’हैं। आपने देखा नहीं उसे किन किन लोगों की आवभगत और सेवा करनी पड़ती है। वह मूल रूप से राधे मांओं को थानेदार साहब की कुर्सी पर बिठाकर उनके स्‍वागत में गुलाब की पंखुरियां बिछाने के लिए बनी है। यह तो आपका दोष है जो आप अपनी समस्‍याओं को लेकर प्रदर्शन जैसी वाहियात हरकत कर उसे मजबूर करते हैं कि वह आपको थाने लाए,आपके कपड़े उतरवाए और फिर नंगई पर उतर कर उन सारे नंगधड़ग लोगों की लाठी से पूजा करे।

टीकमगढ़ पुलिस का यह बयान भी बिलकुल दुरुस्‍त है कि प्रदर्शनकारियों के कपड़े उतरवाकर वह नंगई पर इसलिए उतरी कि कहीं कोई अपने ही कपड़ों से फांसी लगाकर आत्‍महत्‍या न कर ले। बताइए… एक तो आपको नंगा करके आपके जीवन की रक्षा की और आप है कि उलटे पुलिस पर ही दोष मढ़ रहे हैं। जब से बाबा रामरहीम इंसां जेल गए हैं, साली इंसानियत नामकी चीज ही दुनिया में नहीं बची है।

और आपको क्‍या लगता है, क्‍या गोली मारने या लाठी चलाने में पुलिस के हाथ नहीं दुखते? इधर आपके दो चार लोग गोली लगने से टपक जाएं या एक दो दर्जन लोग लाठी खाने से जरा सी हड्डी पसली क्‍या तुड़वा बैठें, आप हायतौबा मचाने लगते हैं। पुलिस इंसान नहीं है क्‍या? इन सारे कामों को करने में उसके हाथ कितने दुखते हैं यह आपको पता भी है?

वैसे कुछ बातें मुझे कांग्रेस से भी कहनी हैं। आप भी तय कर लें कि आपको करना क्‍या है? या तो किसानी कर लें या राजनीति कर लें। या तो घोड़ा बोलना या चतुर बोलना… सरकार हुजूर को बार बार घोड़ाचतुर… घोड़ाचतुर… बोल-बोल के परेशान नहीं करने का। या तो साफ-साफ कह दो कि राजनीति नहीं कर पा रहे इसलिए किसानी कर रहे हैं। या फिर किसानी से मन भर गया तो राजनीति करने लगे हैं। ये दोनों नावों पे सवार होने की बात नहीं चल सकती। सरकार कब तक आपकी इन दो नावों के पीछे भागती फिरे।

कई बार तो ऐसा लगता है कि न तो आपको किसानी करनी है और न ही राजनीति। या फिर आप किसानी की तरह राजनीति कर रहे हैं या राजनीति की तरह किसानी। ऐसा कैसे चलेगा? आपकी जो हालत है उसे देखकर तो लगता है कि जब राजनीति से मन भर जाता है तो आप खेत में चले जाते हैं और जब खेत में मन नहीं लगता तो आप राज(नीति)मार्ग पर आ जाते हैं।

वैसे इस पूरे मसले का लब्‍बोलुआब यह है कि दोनों ही पक्षों को न किसानों से कोई मतलब है और न खेती से। उन्‍हें सिर्फ और सिर्फ राजनीति से मतलब है और वे सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही कर रहे हैं। रहा सवाल जनता का, तो वह बेचारी बनी ही गोली या लट्ठ खाने के लिए है, सो लट्ठ खा रही है। कभी कपड़े पहन कर तो कभी कपड़े उतरवाकर…

 

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