बेटी हो तो दीपिका जैसी

राकेश अचल

मैं सिनेमा न के बराबर देखता हूँ, लेकिन अखबार नियमित पढता हूँ इसलिए मुझे फिल्म जगत की हलचल का भी पता चलता रहता है।  अपने किस्म की एक अभिनेत्री दीपिका पादुकोन को भी जानता हूँ, उसकी कुछ फ़िल्में भी मैने देखीं हैं, लेकिन आज मैं दीपिका को याद कर रहा हूँ समाज के उन सरोकारों के साथ खड़ा होने के कारण जिन्हें सियासत ने या तो अछूत करार दे दिया है या जिन्हें राष्ट्रद्रोही माना जाने लगा है, या कहा जा रहा है।

मेरे बच्चों के बराबर या उनसे भी छोटी दीपिका का फिल्म कॅरियर भी बहुत लंबा नहीं है, अभी कोई 13 साल हुए हैं उसे फिल्मों में काम करते हुए लेकिन इस एक, सवा दशक में उसने जो भी किया है वो रेखांकित किये जाने लायक है। साबुन, दन्त मंजन और लिम्का जैसे उत्पादों के लिए मॉडलिंग करने वाली दीपिका आज सिने जगत के उन महावीरों के लिए रोल मॉडल है जो देश में छात्रों के दमन के खिलाफ अपने घरों में लिहाफ ओढ़े बैठे हैं। अपनी नई फिल्म ‘छपाक’ की रिलीज से ठीक दो दिन पहले जेएनयू के आंदोलनरत छात्रों के साथ खड़े होकर दीपिका ने प्रमाणित कर दिया है की वो सही मायनों में एक संवेदनशील भारतीय हैं।

जेएनयू में हिंसा के बाद कायदे से जेएनयू की पूर्व छात्र होने के नाते केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को वहां सबसे पहले जाना चाहिए था। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री को भी वहां जाकर देखना चाहिए था कि आखिर जेएनयू में जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है? लेकिन जेएनयू को राष्ट्रविरोधी संस्था और वहां के छात्रों को पहले से ही राष्ट्रद्रोही मान चुकी सरकार के ये नुमाइंदे कैसे वहां जाते और क्यों जाते? वे तो जेएनयू को समाप्त करने के संकल्प के साथ जुड़े हैं। जेएनयू के छात्रों पर प्राणघातक हमला करने वाले उनके कुनबे के हैं।

‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देने वाली सरकार के असंवेदनशील होने पर किसी को हैरानी हो सकती है लेकिन मुझे बिलकुल नहीं है क्योंकि सरकार की मंशा और उसका एजेंडा बिलकुल साफ़ है। जेएनयू, एएमयू और जामिया मिलिया में पिछले दिनों में जो कुछ भी हुआ उससे जाहिर है कि हमारी सरकार को ये शैक्षणिक संस्थान बिलककुल पसंद नहीं है। सरकार चाहती है की ये संस्थाएं या तो बंद कर दी जाएँ या उन्हें शिशुमंदिर संस्कृति में तब्दील कर दिया जाये।
बहरहाल बात दीपिका की हो रही है। मुझे और देश के तमाम लोगों को अच्छा लगा कि दीपिका जेएनयू के दुचे-पिटे छात्रों के बीच पहुंची। समाज में जिनका भी अपना प्रभाव है उन्हें इस नेक काम को करना चाहिए था। राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं का किसी भी आंदोलन से जुड़ना या दूर रहना सकारण हो सकता है किन्तु जब इससे इतर लोग ऐसे आंदोलनों को अपना नैतिक समर्थन देने खड़े होते हैं तो वो निर्दोष समर्थन कहा जाता है। दुर्भाग्य है की दीपिका के इस कदम को भी कूढ़ मगज समाज के एक हिस्से ने राजनीति से जोड़कर उसकी फिल्म ‘छपाक’ का बहिष्कार करने का आव्हान कर दिया है।

दीपिका को शायद इस बारे में कोई आभास नहीं होगा लेकिन मुझे लगता है कि इस कदम से उसका नुकसान कम लाभ अधिक होगा। दीपिका एक खिलाड़ी की बेटी है और शायद इसीलिए उसमें खेल भावना कूट-कूट कर भरी है। जेएनयू में उसका जाना भी इसी खेल भावना से जुड़ा प्रसंग माना जाना चाहिए। दीपिका जेएनयू में अपनी फिल्म का प्रमोशन करने नहीं गयी, उसने वहां जाकर पीड़ित छात्रों के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की और ये कोई अपराध नहीं है, ऐसा सभी को करना चाहिए, जो नहीं करना चाहते उन्हें कोई विवश भी नहीं कर सकता, क्योंकि संवेदना जन्मजात होती है उसे आरोपित नहीं किया जा सकता।

मैंने दीपिका की आधा दर्जन फ़िल्में देखीं है और मेरी धारणा बनी है कि दीपिका इस दौर की उन तमाम अभिनेत्रियों में से एक है जिनके पास संवेदना अभी तक जीवित है। सिनेमा संसार के दूसरे अनेक लेखकों, निर्देशकों, गीतकारों और अभिनेताओं ने भी जेएनयू प्रकरण में अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं लेकिन कोई दीपिका की तरह मौका ए वारदात पर पहुँचने का साहस नहीं जुटा पाया। इस साहस या दुःसाहस के लिए दीपिका प्रणम्य है। कोई उसकी फ़िल्में देखे या न देखे इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन मैं फिर कहना चाहूंगा और जोर देकर कहना चाहूंगा की ये समय चुप रहने का नहीं बल्कि हर अन्याय, दमन के खिलाफ एकजुट होकर खड़े होने का है। इसलिए आइये दीपिका की तरह अपने घर से बाहर निकलिए और देश को बताइये कि आप भी एक संवेदनशील और जागरूक भारतीय हैं।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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