जब मुख्‍यमंत्री की सीट का यह हाल रहा तो बाकी का क्‍या

मध्‍यप्रदेश में इस बार के मतदान ट्रेंड को देखते हुए चुनाव आयोग और चुनाव मशीनरी के लिए सबसे बड़ा सबक और सबसे बड़ा सुझाव यही है कि वह मतदान को लेकर अपनी रणनीति पर दुबारा विचार करे और इसे मतदान का प्रतिशत बढ़ाने पर केंद्रित करने के बजाय, मतदान न करने वाले लोगों की संख्‍या घटाने पर केंद्रित करे।

जब तक लोगों को वोट डालने के लिए अधिक से अधिक संख्‍या में घर से बाहर निकालने के उपाय नहीं किए जाएंगे आंकड़ों के प्रतिशत का यह खेल यूं ही चलता रहेगा और हर साल करोड़ों रुपए फूंक कर, मतदान में दो-ढाई फीसदी की बढ़ोतरी दिखाते हुए, अपनी पीठ थपथपाई जाती रहेगी।

चूंकि प्रतिशत में मतदान का आंकड़ा पिछले चुनाव की तुलना में बढ़ा हुआ दिखाई देता है इसलिए मीडिया भी दीवाना होकर उसके पीछे दौड़ता हुआ वही भाषा बोलने लगता है जो चुनाव से जुड़ी मशीनरी चाहती है। कोई यह देखने या समझने की कोशिश नहीं करता कि मतदान का यह बढ़ा हुआ प्रतिशत, मतदाताओं की बढ़ी हुई संख्‍या को देखते हुए, पिछली बार से तुलनात्‍मक रूप में कितना बढ़ा है। जैसाकि हर साल होता है, इस बार भी मतदान प्रतिशत की खोखली बढ़ोतरी के एवज में, चुनाव मशीनरी से जुड़े राज्‍य स्‍तरीय अधिकारियों से लेकर जिला स्‍तर तक के अधिकारियों की छाती पर तमगा लटका दिया जाएगा।

जबकि असलियत यह है कि 1998 से लेकर 2018 के ताजा चुनाव तक, हर बार प्रदेश में औसतन सवा करोड़ से अधिक लोग मतदान में हिस्‍सा ही नहीं लेते रहे हैं। जब तक इस संख्‍या में क्रमश: कमी नहीं लाई जाएगी तब तक लोकतंत्र के इस अनुष्‍ठान की मजबूती के दावे हवा हवाई ही रहेंगे।

अब जैसाकि मैंने कहा था, इस बार मध्‍यप्रदेश में नतीजा क्‍या होगा इसका थोड़ा बहुत अनुमान लगाने के लिए, हमें चुनाव के आंकड़ों और ट्रेंड को बारीकी से देखना होगा। इसके लिए मैं कुछ खास विधानसभा क्षेत्रों के उदाहरणों के साथ बात करना चाहूंगा।

और जब खास उदाहरण की बात हो तो मुख्‍यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र से बढ़कर और कौनसा क्षेत्र हो सकता है। मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान सीहोर जिले के बुधनी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते आ रहे हैं। पिछली बार यानी 2013 में उन्‍होंने यहां से 1 लाख 28 हजार 730 मत प्राप्‍त कर कांग्रेस के डॉ. महेंद्रसिंह चौहान को 84 हजार 805 मतों से पराजित किया था। इस क्षेत्र के मतदाताओं पर मुख्‍यमंत्री को इतना भरोसा है कि वे यहां खुद के चुनाव प्रचार के लिए भी नहीं जाते।

बुधनी इस बार न सिर्फ मुख्‍यमंत्री का चुनाव क्षेत्र होने के कारण चर्चा में था बल्कि इसके और अधिक सुर्खियों में आ जाने का कारण यह भी था कि यहां के चुनावी खेल में कांग्रेस ने अपना बड़ा पत्‍ता चलते हुए, पूर्व केंद्रीय मंत्री और पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष अरुण यादव को शिवराजसिंह चौहान के मुकाबले मैदान में उतार दिया था। पिछले दो चुनावों से, बहुत कमजोर प्रत्‍याशियों के मैदान में होने के कारण, शिवराज को यहां एक तरह से वॉकओवर ही मिलता आ रहा था। लेकिन अरुण यादव के मैदान में उतरने के कारण बुधनी का मुकाबला इस बार एकतरफा नहीं माना जा रहा था।

तो आइए जरा इस बुधनी के ही चुनावी आंकड़ों और ट्रेंड का थोड़ा पोस्‍टमार्टम करें। चूंकि मैं वोट डालने वालों के बजाय वोट न डालने वालों की संख्‍या पर शुरू से जोर दे रहा हूं इसलिए बुधनी का पोस्‍टमार्टम भी मैं इसी आधार पर करूंगा।

जाहिर है जब मुकाबले में दोनों तरफ से तगड़े योद्धा हों तो रणभूमि भी उतनी ही गर्म होगी। लेकिन इस बार के मतदान के आंकड़े तो कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि यहां हो रहे तगड़े मुकाबले को देखते हुए अधिक से अधिक मतदाता अपने-अपने चहेते उम्‍मीदवार के समर्थन में बाहर निकलकर जोर शोर से मतदान करते। कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने प्रत्‍याशियों के समर्थन में अधिक से अधिक मतदान करवाने का जोर लगातीं। लेकिन आपको यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि 2013 की तुलना में 2018 में, वोट डालने के लिए घर से बाहर न निकलने वालों की संख्‍या में सिर्फ 3784 की ही कमी आई।

2013 के चुनाव में जहां बुधनी में 45 हजार 319 लोगों ने वोट नहीं डाला था, वहीं 2018 में वोट नहीं डालने वालों की संख्‍या 41 हजार 535 रही। मतलब सिर्फ 3784 अधिक लोगों ने ही इस बार मतदान में हिस्‍सा लेने में रुचि दिखाई। 2013 के चुनाव में कुल 2 लाख 29400 मतदाताओं में से 80.24 फीसदी यानी एक लाख 84081 लोगों ने मतदान किया था तो 2018 में यहां कुल 2 लाख 44871 मतदाताओं में से 83.04 फीसदी यानी 2 लाख 3336 लोगों ने ही वोट डाले।

अब प्रतिशत समर्थक इसे मतदान में 2.8 फीसदी की बढ़ोतरी बताकर झूम सकते हैं, लेकिन, जैसाकि मैंने बताया असलियत में तो सिर्फ 3784 ज्‍यादा लोग ही वोट डालने के लिए बाहर निकले। ऐसे प्रतिष्‍ठापूर्ण चुनाव क्षेत्र में जब मतदाताओं का यह रुख रहा तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस बार का चुनाव कितना कांटे का या कठिन रहा है।

बुधनी का यह उदाहरण चुनाव नतीजों की कयासबाजी में लगे उन लोगों को और ज्‍यादा चकरघिन्‍नी कर सकता है जो एंटीइन्‍कंबेंसी और कांग्रेस की हवा जैसे जुमलों को आधार बनाए हुए थे। यदि सचमुच ऐसा होता, तो चाहे एंटीइन्‍कंबेंसी हो या कांग्रेस के पक्ष की हवा अथवा इसके उलट अपने चहेते मुख्‍यमंत्री को एक बार फिर जिताने की चाह, बुधनी के लोग छप्‍परफाड़ मतदान के लिए बाहर निकलते। पर ऐसा दिखा तो नहीं…!!

आगे ऐसे ही कुछ और वीआईपी जिलों और विधानसभा क्षेत्रों का पोस्‍टमार्टम करेंगे…

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