गांधी को तो उनके समकालीन ही खारिज करने लगे थे

आज गांधी को याद करने का दिन है। मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि आप उन्‍हें बापू के रूप में याद करें अथवा महात्‍मा के रूप में। मैं गांधी को एक ऐसे नेतृत्‍वकर्ता के रूप में याद करना चाहता हूं जिसने इस देश को समझा और अपनी उसी समझ के आधार पर भारत के लिए सामाधान खोजने की कोशिश की।

गोपालकृष्‍ण गोखले ने गांधी से कहा था- ‘’पहले इस देश को अच्‍छी तरह समझ लें और फिर इसका नेतृत्‍व करें।‘’ इस वाक्‍य के पीछे जो बुनियादी बात छिपी है वो ये है कि किसी भी समाज अथवा राष्‍ट्र में कोई भी सुधार अथवा आंदोलन शुरू करने वाले के लिए यह बहुत जरूरी है कि पहले वह उस राष्‍ट्र और उस समाज को अच्‍छी तरह समझे।

आज की परिस्थितियां इसके ठीक उलट हैं। आज देश और समाज को समझना कोई नहीं चाहता बस नेतृत्‍व पर काबिज हो लेना चाहता है। गांधी ने लोगों से कहा था- डर छोड़ें। लेकिन आज अगर वे होते तो शायद लोगों से कहते डराना छोड़ें। आज डराने वालों की संख्‍या लगातार बढ़ती जा रही है। हो सकता है आजाद भारत में गांधी डराने वालों के खिलाफ कोई सत्‍याग्रह करते।

कई बार मन में विचार आता है कि गांधी ने आजाद भारत को यदि कुछ साल देखा होता तो उनकी क्‍या प्रतिक्रिया होती? कहना बड़ा मुश्किल है कि आजाद भारत की सरकारों के खिलाफ यदि गांधी को आंदोलन करना पड़ता तो उसका स्‍वरूप क्‍या होता? क्‍या वे अपने उन्‍हीं सत्‍याग्रह, असहयोग या सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों के हथियार को अपनाते या‍ फिर अपने ही लोगों की बनाई सरकार के खिलाफ आंदोलन का कोई नया तरीका खोजते।

गांधीजी के आंदोलनों की बात करते समय हमें यह बात ध्‍यान में रखनी होगी कि उन्‍होंने जो भी आंदोलन किए वे भारत की आजादी के लिए और अंग्रेजों के खिलाफ किए। उनके आंदोलनों की भावभूमि अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ थी। दुर्भाग्‍य से गांधी, भारत के आजाद होने के तत्‍काल बाद चले गए। लेकिन यदि वे कुछ साल और बने रहते और कोई नया तरीका खोजते तो वह क्‍या होता?

देखिये, गांधी को लेकर मैं यह सवाल इसलिए भी उठा रहा हूं कि अपनी तमाम महानताओं और बड़ी संख्‍या में अपने तौर तरीकों की स्‍वीकार्यकता के बावजूद आज भी देश में बहुत से लोग ऐसे हैं जो गांधी और उनके तौर तरीकों से इत्‍तेफाक नहीं रखते। इसी नाइत्‍तफाकी के साथ यह सवाल भी नत्‍थी कर दिया जाता है कि गांधी आज होते तो क्‍या प्रासंगिक होते?

वैसे देखा जाए तो गांधी के तौर तरीकों को, उनके जाने के तत्‍काल बाद ही, आजाद भारत का नेतृत्‍व संभालने वाली पीढ़ी ने नकारना शुरू कर दिया था। यहां मैं संविधान का मसौदा तैयार करने के बाद, संविधान सभा के समक्ष दिए गए बाबा साहब आंबेडकर के भाषण के एक अंश को कोट करना चाहूंगा। बाबा साहब का वह भाषण आजाद भारत की बहुत सारी समस्‍याओं को समय से आगे जाकर देखने का उपक्रम है। और मेरी राय में वह भाषण आज हमें दुबारा जरूर पढ़ना चाहिए।

बाबा साहब उस भाषण में कहते हैं कि- यदि हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्‍यों को प्राप्‍त करना है तो हमें संवैधानिक प्रक्रियाओं और विधियों को मजबूती से पकड़कर रखना होगा। इसका मतलब है कि हम ‘खूनी क्रांति’ के रास्‍ते को बिलकुल त्‍याग दें।

और सिर्फ खूनी क्रांति ही नहीं, बाबा साहब ने तो सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्‍याग्रह जैसे आंदोलन के गांधीवादी तरीके भी त्‍यागने को कहा था, क्‍योंकि उनकी नजर में ये सारे तरीके असंवैधानिक थे। उन्‍होंने ऐसे सारे तौर तरीकों को अराजकता के व्‍याकरण का नाम दिया था। उन्‍होंने कहा था-

‘’If we wish to maintain democracy not merely in form, but also in fact, what must we do? The first thing in my judgement we must do is to hold fast to constitutional methods of achieving our social and economic objectives. It means we must abandon the bloody methods of revolution.

It means that we must abandon the method of civil disobedience, noncooperation and satyagraha. When there was no way left for constitutional methods for achieving economic and social objectives, there was a great deal of justification for unconstitutional methods. But where constitutional methods are open, there can be no justification for these unconstitutional methods. These methods are nothing but the Grammar of Anarchy and the sooner they are abandoned, the better for us.’’

अब जरा इतिहास की तारीखों को आप देखें। गांधीजी की हत्‍या 30 जनवरी 1948 को हुई और आंबेडकर का संविधान सभा के सामने यह भाषण 25 नवंबर 1949 को हुआ। यानी गांधी के जाने के एक साल के भीतर देश में गांधी के तौर तरीकों को खारिज किया जाने लगा था।

आपको यदि ‘खारिज किया जाने’ शब्‍द पर आपत्ति हो, तो चलिये मैं कह देता हूं कि उस पर सवाल उठने लगे थे। और ये सवाल बहुत गहरे थे, क्‍योंकि आजाद भारत का संविधान तैयार करने वाली टोली, गांधी के सत्‍याग्रह, असहयोग और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों तक को उपयुक्‍त नहीं मान रही थी। बल्कि कई कदम और आगे जाकर उन्‍हें अराजकता फैलाने के उपक्रम के तौर पर देख रही थी।(जारी)

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