रमाशंकर सिंह

मैं शाकाहारी हूँ जब तक कि भूखा न मरने लगूँ, मांसाहार मुझे रुचिकर नहीं है पर अतिथियों को परोसने में कोई गुरेज़ नहीं है। दो तीन दिन से ईद के अवसर पर बलिप्रथा क़ुरबानी पर सामाजिक आभासीय माध्यम पर लगातार अभियान छिड़ा हुआ है कि पशु की क़ुरबानी बंद हो और कम पढ़े लिखे व अनपढ़ समान रूप से बहुतेरे कारण दे रहे हैं और ज़ाहिर है कि ये सभी देवियां और सज्जन भारत के अल्पसंख्यक समाज के नहीं हैं यानि बहुसंख्यक समाज के हैं। ईद के दिन पशु प्रेम उमडने में भी कोई आपत्ति नहीं है लेकिन मेरा निवेदन मान लें कि भारत पर्यटन हेतु ये लोग हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, त्रिपुरा, असम, मणिपुर, नेपाल आदि के कुछ मंदिरों के दर्शन करने उन दिनों जरूर जायें जब वहां मंदिर के गर्भगृह में ही अनेक पशुबलियों से पूरा मंदिर प्रांगण रक्तरंजित रहता है और पुजारी मांस के बड़े बड़े टुकड़े प्रसादरूप में देता है। पर्यावरण प्रेमी ये लोग यदि पूरे दिन इन मंदिरों में कारसेवा करें तो क्या ही आशीर्वाद प्राप्त हो लेकिन दृश्य देखकर भागने का नहीं। नेपाल तो पुन: हिंदू राष्ट्र बनने की राह पर है और ये सब प्रदेश भारत के ही अभिन्न अंग हैं, हैं कि नही? फिर कुछ अध्धयन करने में भी खास बुराई नहीं है कि बलि प्रथा के समर्थन में कैसे कैसे प्रेरक प्रसंग हमारे आदि ग्रंथों, वेदों में भरे पडे हैं। अब कालांतर में मूल ग्रंथों से चुपके से उन्हें हटाने की योजना भी बन चुकी है पर लागू नहीं हुई है, सब छपा हुआ मिल जायेगा। पर क्या करें कि रामकृष्ण मिशन ने माँसाहारी महान संत विवेकानंद जी के जीवन से वह प्रमाण हटाने की क्रमश: कोशिश प्रारंभ कर दी है फिर भी बहुत कुछ उपलब्ध है। वाल्मीकि रामायण भी पढ़ने में कुछ गुरेज़ न करें वहां भी अपार वर्णन है। कश्मीरी पंडितों जैसा बकरे के मांस का रोगनजोश तो कोई बना ही नहीं सकता है। बंगाली, तमिल, तेलुगू ब्राह्मण तो बग़ैर मांसाहार के मर जायेगा। लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से बलि के ख़िलाफ़ हूँ, पशुओं के प्रति करुणा का पक्षधर हूँ, लेकिन दुनिया की 90 % आबादी तो मांसाहार पर जीवित है। शनै: शनै: शाकाहार स्वयं बढ रहा है किसी धर्म के कारण नहीं। तो आप ज्ञानियों को ईद पर ही पशु प्रेम उमड़ता है और मुसलमान दोस्तों से ईद का व्यंजन माँग कर खाते हो (सब नहीं)। नफ़रत की इंतहा है कि जहां मौका मिले बग़ैर जाने समझे पढ़े अपना ज्ञान मुफ़्त के माध्यम पर उँडेल दो। वाह क्या राष्ट्रप्रेम है! पुनश्च: एक सच्चा क़िस्सा सुन लीजिये। सीमांत गांधी बादशाह खान ने डॉ. लोहिया को खाने पर बुलाया। पठान होते हैं माँसाहारी और लोहिया थे शाकाहारी। पर बादशाह खान को यह ध्यान न रहा। परंपरा के अनुसार थाली नुमा एक प्लेट में आलूमांस का बोरन और रोटियां आ गईं और बादशाह ने कहा कि खाओ। डॉ. लोहिया ने रोटी से आलू आलू निकाल कर खा लिया और बादशाह खान को इल्हाम भी न होने दिया कि वे शाकाहारी हैं और आतिथ्य और आतिथेय दोनों का सम्मान रखा। उदारता का बेजोड़ उदाहरण था। एकता और राष्ट्र की मज़बूती के लिये क़ुरबानी भी देनी पड़ती है, नारे से काम नहीं चलता।

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रमाशंकर सिंह मध्‍यप्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं। राजनीति छोड़ने के बाद वे शिक्षा जगत से जुड़े और वर्तमान में ग्‍वालियर के निकट खुद के द्वारा स्‍थापित आईटीएम यूनिवर्सिटी के चेयरमैन हैं। यह सामग्री उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है।

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