मध्यप्रदेश में हुए किसान आंदोलन को लेकर एक बात ध्यान में रखने वाली है कि इस दौरान जो लोग सड़कों पर उतरे थे उनमें ज्यादातर सब्जी, फल और दूध उत्पादक थे। इसीलिए आपने देखा होगा कि आंदोलन के दौरान जो उपज सड़कों पर फेंकी गई उनमें प्याज, टमाटर, अन्य सब्जियां और दूध शामिल था।
प्रदेश में सरकार के दावे के मुताबिक खेती का रकबा और सिंचाई की सुविधाएं दोनों बढ़ी हैं और इन सुविधाओं के विस्तार के बाद प्रगतिशील और अपेक्षाकृत अधिक साधन संपन्न किसानों ने एग्रीकल्चर के साथ साथ या उसके स्थान पर हार्टिकल्चर को तवज्जो देना शुरू किया है। ये नकदी फसलें हैं और यदि सबकुछ ठीकठाक रहे तो परंपरागत फसलों की तुलना में दाम भी अच्छे दे देती हैं।
लेकिन समस्या यह है कि खाद्यान्न अथवा दलहन-तिलहन की तरह इन्हें ज्यादा दिन तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। इनके साथ दो ही बातें हो सकती हैं। या तो ये तुरंत बाजार में बिक जाएं या फिर इन्हें बेहतर सुविधाओं वाले को कोल्ड स्टोरेज में रखा जाए। चूंकि दाम अच्छे मिलते हैं इसलिए जैसे ही किसी साल आलू, प्याज या टमाटर की किल्लत वाली खबरों के साथ उनके भाव आसमान छूने की खबरें आती हैं, किसान अच्छी कमाई की उम्मीद में उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। नतीजा बंपर फसल के रूप में आता है, इससे दाम गिर जाते हैं और मुनाफा तो छोडि़ए किसान को लागत मूल्य तक नहीं मिल पाता।
यह हमारे ‘कृषिकर्मण वीर’ विभाग की असफलता है कि वह सबकुछ जानते हुए भी किसानों को न तो उस तरह से जागरूक कर पाया है और न ही उसने किसी प्रभावी फसल नियोजन या प्रबंधन का मैकेनिज्म तैयार किया है। खेती से जुड़े विभागों का लक्ष्य अधिक से अधिक कर्ज देकर किसानों से फसल उगवा लेना भर है, इस बात से उन्हें कोई लेना देना नहीं कि फसल अपेक्षा से अधिक आने पर उसे संभाला कैसे जाएगा। इस मामले में किसानों को बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाता है और बाजार उनका निर्ममता से शोषण करता है।
ताजा आंदोलन को ठंडा करने के लिहाज से सरकार ने घोषणा की कि किसानों की उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाएगा। लेकिन मालवा का आंदोलन तो मुख्यत: सब्जी उत्पादक किसानों का था। सरकार ने गुपचुप कुछ कर लिया हो तो पता नहीं लेकिन सब्जियों का समर्थन मूल्य तो होता नहीं। ऐसे में आलू, प्याज,टमाटर, मैथी, पालक जैसी फसलें कौन किससे और किस न्यूनतम मूल्य पर खरीदेगा? फिर यहां एफएक्यू का मसला भी फंसा दिया गया है। अनाज की तो हो सकती है पर सब्जियों की यह फेयर एवरेज क्वालिटी कैसे तय की जाएगी? क्या यह किसानों को भरमाने का एक और जाल नहीं है?
अब जरा कर्ज की बात ले लीजिए। मैं अर्थशास्त्र या अर्थ प्रबंधन का ज्ञाता नहीं हूं, लेकिन आंदोलन के दौरान सत्तारूढ़ दल भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं के बयान सुनकर मुझे हैरानी हो रही थी। इन नेताओं का कहना था कि चूंकि मध्यप्रदेश सरकार किसानों से ब्याज नहीं ले रही, इसलिए किसानों को कर्जदार नहीं कहा जा सकता। जो आंदोलन कर्ज माफी की एक प्रमुख मांग को लेकर शुरू हुआ था उसे शांत करने के लिए मुख्यमंत्री के उपवास की शुरुआत में ही कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने बयान पटक दिया था कि कर्ज माफी का तो सवाल ही नहीं उठता।
अब कोई मुझे बताए कि यदि आप ब्याज नहीं भी ले रहे, सिर्फ मूलधन की ही वसूली कर रहे हैं, तो भी किसान कर्जदार कैसे नहीं हुआ? चूंकि किसान के पास खेती में लगाने लायक पैसा भी नहीं रहता इसीलिए वह आपके कर्ज के जाल में फंसता है। आप अधिक से अधिक उसे ब्याजमुक्त कर्जदार कह सकते हैं। मूलधन तो उसे फिर भी लौटाना पड़ेगा ना। मेरे हिसाब से शून्य दर पर ब्याज लेने की बात कहकर, किसानों को कर्जदार न बताने वाली मनोवृत्ति, किसानों के साथ एक और क्रूर मजाक है। असली काम तो किसान को कर्ज से दूर रखकर आत्मनिर्भर बनाने का होना चाहिए, जो कोई नहीं कर रहा।
मुझे याद है कि 18 फरवरी 2016 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सीहोर जिले के शेरपुरा में अपनी सरकार की नई फसल बीमा योजना घोषित कर रहे थे, उसी समय जयपुर में चल रहे भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में कहा जा रहा था कि किसानों की बीमारी का इलाज बीमे की दवाई से नहीं बल्कि लागत मूल्य के साथ साथ अतिरिक्त राशि की खुराक से ही संभव है।
भारतीय किसान संघ ने फरवरी 2016 के जयपुर अधिवेशन में प्रस्ताव ही इसी लाइन पर पारित किया था किदेश के हम भंडार भरेंगे लेकिन कीमत पूरी लेंगे। 23 फरवरी 2016 को इसी कॉलम में मैंने लिखा था कि किसानों का यह स्वर भविष्य में आने वाले गंभीर संकट की आहट है। लेकिन शायद सरकारें किसानों पर ध्यान तभी देती हैं जब या तो वो खुद अपनी जान देता है या फिर पुलिस की गोली से मारा जाता है।
सो बेचारा एक बार फिर सरकार का ध्यान आकर्षित कर रहा है…