अजय बोकिल
अगर यह मात्रा की दृष्टि से खिचड़ी पकाने के वर्ल्ड रिकॉर्ड कायमी की कवायद थी तो यकीनन सफल थी, क्योंकि देश के सेलेब्रिटी शेफ विष्णु मनोहर ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे 5 हजार किलो खिचड़ी भी एक साथ बखूबी पका सकते हैं। लेकिन अगर यह दलितों को नए सिरे से साधने की भाजपा की राजनीतिक खिचड़ी थी तो इस पर कई सवाल उठ रहे हैं। इनमें पहला तो यह कि क्या दलितों के साथ भोज के पुराने अभियान फिस्स हो गए? और दूसरा यह कि केवल खिचड़ी खिलाने से हिंदू धर्म में सामाजिक विषमता का अपच कैसे दूर होगा?
शायद इसीलिए यह खबर राजनीतिक हल्कों में चिंता के बजाए फूड फेस्टिवल के जरिए उदर रंजन के भाव से ज्यादा ली गई। हिंदुओं के बड़े त्यौहार मकर संक्रांति पर्व के ठीक पहले रविवार को नई दिल्ली में भाजपा ने भव्य समरसता खिचड़ी पकाई। ‘भीम महासंगम’ नाम से आयोजित इस महा कार्यक्रम में भाजपा के कई मंत्रियों ने पिछड़े व दलित वर्ग के लोगों के साथ बैठकर खिचड़ी का राजनीतिक प्राशन किया।
अमूमन रिकॉर्ड वाले व्यंजनों में इस्तेमाल की गई सामग्री का ब्योरा भी चौंकाने वाला होता है। यहां भी खिचड़ी के लिए दस बाय दस की 850 किलो वजनी देग इस्तेमाल हुई। 1 हजार किलो दाल- चावल, 500 किलो सब्जी, 200 किलो घी, 100 लीटर तेल, 200 किलो मसाले उपयोग किए गए। विष्णु् मनोहर इस तरह के व्यंजनों के रिकॉर्ड बनाने में माहिर हैं। इसके पहले वे 3 हजार किलो खिचड़ी और बैंगन का भुर्ता भी बना चुके हैं।
यह भी बताया गया कि इस समरसता खिचड़ी के लिए दिल्ली एनसीआर में भाजपा के 28 हजार कार्यकर्ताओं ने पिछड़े और दलित वर्ग के 3 लाख घरों से खिचड़ी (दाल चावल) इकट्ठी की। हालांकि इसके आंकड़े भी अलग-अलग बताए गए। किसी ने कहा कि जमा किए दाल चावल 10 हजार किलो तो थे तो किसी ने 5 हजार किलो बताए। इस लिहाज से वास्तव में कितनी खिचड़ी बननी चाहिए थी, इस पचड़े न जाएं तो भी यह सवाल बाकी है कि यह महाआयोजन दिल्ली में ही क्यों हुआ?
तो इसका जवाब यह बताया जाता है कि दिल्ली राज्य विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा को दलितों के लिए आरक्षित 12 सीटों में से एक पर भी जीत हासिल नहीं हुई थी। लिहाजा खिचड़ी जुटाने का काम भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चे को ही सौंपा गया था। अब पार्टी को भरोसा है कि खिचड़ी देकर और पकी हुई खिचड़ी खाकर दलित यकीनन भाजपा को वोट देगा।
इस खिचड़ी पकाने की टाइमिंग भी इसलिए अहम है, क्योंकि दो माह बाद लोकसभा चुनाव की घोषणा होनी है। माना गया कि इस खिचड़ी का स्वाद पांच माह तक टिकेगा। ध्यान रहे कि भाजपा ने पिछले साल अप्रैल में देश भर में ‘ग्राम स्वराज अभियान’चलाकर दलितों के घर भोजन करने का उपक्रम शुरू किया था। लेकिन इसकी आलोचना भाजपा के एक वर्तमान दलित सांसद उदित राज और एक पूर्व दलित सांसद सावित्री बाई फुले ने यह कहकर की थी कि दलितों के घर जाकर इस तरह भोजन का नाटक वास्तव में दलितों का अपमान ही है।
इसका एक कारण यह भी था कि दलित के घर जो भी कथित भोजन किया गया, ज्यादातर वह बना किसी सवर्ण के हाथ से ही था या फिर होटल से मंगवाया गया था। कुल मिलाकर यह राजनीतिक पिकनिक ज्यादा थी। भाजपा नेताओं के इस रवैए से नाखुश संघ प्रमुख ने तब हिदायत दी थी कि बेहतर होगा कि हम दलितों को अपने घर बुलाएं।
हो सकता है कि उसी हिदायत पर दिल्ली भाजपा अब अमल कर रही हो। इसीलिए इस ‘खिचड़ी ट्रीट’में दलितों और पिछड़ों की सहभागिता सुनिश्चित करने घर घर जाकर दाल चावल इकट्ठे किए गए। खिचड़ी सार्वजनिक रूप से पकाई गई और सामूहिक रूप से खाई भी गई। यूं भी मकर संक्रांति पर खिचड़ी का विशेष महत्व है। क्योंकि दाल और चावल की नई फसल आती है। यह भगवान शिव को प्रसाद के रूप में चढ़ती है। रिकॉर्ड की बात छोड़ें तो भी खिचड़ी को हमारे यहां अत्यंत पाचक पकवान माना गया है। दिल्ली में पिछले साल हुए ‘इंटरनेशनल फूड फेस्टिवल’में खिचड़ी को भारत का राष्ट्रीय व्यंजन घोषित करने की मांग हुई थी और इस मुहिम में शेफ विष्णु मनोहर अग्रणी थे।
बेशक भाजपा की इस पहल से खिचड़ी बनाने का पुराना रिकॉर्ड ध्वस्त हुआ। लेकिन यह खिचड़ी जिस असली मकसद से बनी या बनवाई गई, उस पर अभी कई सवालिया निशान हैं। पहला तो यह है कि खिचड़ी दान में लेकर और उसीको पकाकर खिलाने से दलित वोट कैसे सधेगा? यूं भी खिचड़ी कोई देव दुर्लभ पकवान नहीं है कि भाजपा ने खिलाया तो दलित खुद को धन्य मान लें। ऐसा भी नहीं था कि यह खिचड़ी किन्हीं दलित शेफों ने बनाई हो और बाकी ने उसे चटखारे लेकर खाया हो। इसे बनाने वाले नागपुर के विष्णु मनोहर भी सवर्ण ही हैं।
इससे भी बड़ा और गंभीर सवाल यह है कि क्या दलितों को केवल खिचड़ी खिलाकर रिझाया जा सकता है? क्या उनकी अपेक्षा केवल संग में खिचड़ी खाना ही है? क्या दलितों के वोट हासिल करने की कीमत केवल दो मुट्ठी खिचड़ी है? क्या दलित केवल अनुकंपा भाव से परोसी गई खिचड़ी खाने के ही आकांक्षी हैं? अगर ऐसा ही होता तो न जाने कितने टन खिचड़ी पकाकर हिंदू समाज में समरसता की खिचड़ी कब से पक चुकी होती।
इस पूरे मामले में गहरी विसंगति यह है कि एक तरफ दलितों को खिचड़ी खिलाई, उधर दलितों की बेरहम पिटाई। दोनो एक साथ कैसे चलेगा? हो सकता है कि कुछ चिंतकों ने सोचा हो कि खिचड़ी प्राचीन व्यंजन है, गरीबों का पकवान है, इसलिए इसे ही व्यंजनात्मक समरसता का राजनीतिक प्रतीक आसानी से बनाया जा सकता है। सो ताबड़तोड़ सियासी खिचड़ी पकाने का प्लान बना हो।
यह संदेश देकर भाजपा भी आत्ममुग्ध हुई कि इससे पार्टी का लगातार बिगड़ रहा राजनीतिक हाजमा ठीक होगा। संभव है कि जुमलेबाजी की बमबारी से आजिज आए लोग और खासकर दलित, खिचड़ी जैसी नितांत जमीनी रेसिपी को ही अच्छे दिनों के जमीन पर उतरने से जोड़कर देखने लगें। मायावती, मेवाणी, रावण इत्यादि को दरकिनार कर तकरीबन सारा दलित वोट कमल की पंखुडि़यों पर आ टिके। यदि ऐसा हुआ और सत्ता फिर मिली तो सामाजिक समरसता का एक राउंड पूरा!
दरअसल यह मुगालतों की खिचड़ी है, जिसे खाकर भाजपा आत्ममुग्ध है। खुली आंखों से देखें और पूरे मन से समझें तो दलितों को खिचड़ी से ज्यादा हिंदू समाज में सम्मान और अधिकार की दरकार है। गोवंश की आड़ में उनकी रोजी-रोटी छीनने और हर मलाईदार मौके पर दुत्कार से पूरे हिंदू समाज का हाजमा बजाए सुधरने के, और बिगड़ रहा है। क्योंकि इस जटिल सामाजिक समस्या का इलाज कभी खिचड़ी, कभी आरक्षण तो कभी आरती उतारकर करने की कोशिश की जा रही है।
खिचड़ी बांटने या साथ बैठकर खाने से ज्यादा खुशी दलितों को तब होगी, जब सामाजिक समता की हांडी में हकों का हलुआ पकाकर एक साथ खाया जाएगा। लेकिन भाजपा के इस खिचड़ी उत्सव में वैसा कुछ नजर नहीं आया। यह वास्तव में एक वर्ग के वोट कबाड़ने का ‘मेगा इवेंट’ज्यादा था। ध्यान रहे कि राजनीतिक खिचड़ी भी तभी पाचक होती है, जब उसमें सद्भावना का शुद्ध घी पड़ा हो। भाजपा की यह राजनीतिक खिचड़ी इससे कोसों दूर बीरबल की खिचड़ी जैसी ज्यादा लगी।
(सुबह सवेरे से साभार)