शहादतों का सिलसिला थमता क्यों नहीं?

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डॉ. नीलम महेंद्र

18 सितम्बर 2016 घाटी फिर लाल हुई। ये लाल रंग लहू का था और लहू हमारे सैनिकों का। सोते हुए निहत्थे सैनिकों पर इस प्रकार का कायरतापूर्ण हमला। इसे क्या कहा जाए?

देश के लिए सीने पर गोली तो भारत का सैनिक ही क्या इस देश का आम आदमी भी खाने को तैयार है साहब। लेकिन इस प्रकार कायरतापूर्ण हमले में पीठ पीछे वार। और ऐसे छद्म हमलों में अपने वीर सैनिकों की शहादत हमें कब तक सहनी पढ़ेगी?

यह कोई पहला आतंकवादी हमला नहीं है, लेकिन काश हम सभी एक दूसरे से प्रण करते कि यह पहला तो नहीं है किन्तु आखिरी अवश्य होगा। काश इस देश के सैनिकों और आम आदमी की जानों की कीमत पहली शहादत से ही समझ ली गई होती तो हम भी अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और कनाडा की श्रेणी में खड़े होते।

काश हमने पहले ही हमले में दुश्मन को यह संदेश दे दिया होता कि इस देश के किसी भी जवान की शहादत इतनी सस्ती नहीं है। काश हम समझ पाते कि हमारी सहनशीलता को कहीं कायरता तो नहीं समझा जा रहा?

आज़ादी से लेकर आज तक पाकिस्तान द्वारा घाटी में लगातार वार किया जा रहा है। तीन आमने सामने के युद्ध हारने के बाद वह भोले भाले कश्मीरियों को गुमराह करके लगातार अस्थिरता फैलाने की कोशिशों में लगा है। अब जबकि वह अन्तराष्ट्रीय समुदाय के सामने बेनकाब हो गया है और जानता है कि पानी सर से ऊपर हो चुका है तो भारत को परमाणु हमले की धमकी देने से भी बाज नहीं आ रहा।

आज पूरे देश में गुस्सा है और हर तरफ से बदला लेने की आवाजें आ रही हैं। यह एक अच्छी बात है कि देश के जवानों पर हमले को इस देश के हर नागरिक ने अपने स्वाभिमान के साथ जोड़ा और कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। हर ओर से एक ही आवाज, अब और नहीं। आज हर कोई जानना चाहता है कि क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ? लेकिन काश कि हमारे सवाल यह होते कि ‘क्यों हुआ? और इसे कैसे रोका जाए?

युद्ध किसी भी परिस्थिति में आखिरी विकल्प होना चाहिए और खास तौर पर तब, जब दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हों। युद्ध सिर्फ दोनों देशों की सेनाएँ नहीं लड़तीं और न ही उससे घायल होने वाले युद्ध भूमि तक सीमित होते हैं। युद्ध तो खत्म हो जाता है लेकिन उसके घाव नासूर बनकर सालों रिसते हैं। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था हिल जाती है और समय थम सा जाता है।

हमारी लड़ाई आतंकवाद से है वो हम लड़ेंगे और अवश्य जीतेंगे लेकिन हमारी जीत इसमें है कि इस लड़ाई में बहने वाला ख़ून सिर्फ आतंक का हो न तो हमारे सैनिकों का और न ही नागरिकों का। युद्ध तो भगवान कृष्‍ण ने भी लड़ा था महाभारत का, लेकिन उससे पहले शांति के सभी विकल्प आजमा लिए थे। हमें भी सबसे पहले अन्य विकल्पों पर विचार कर लेना चाहिये।

सर्वप्रथम जब हम इसकी जड़ों को खोजेंगे तो पाएंगे कि कमी हमारे भीतर है। 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने एक महीने के भीतर 10/7 (7 अक्तूबर) को न सिर्फ अन्तराष्ट्रीय नियमों की अनदेखी करते हुए अफगानिस्तान में स्थित तालिबान का सफाया किया, बल्कि डेढ़ महीने के भीतर ही अमेरिकी पेट्रियेट एक्ट बना, सुरक्षा बलों और एफबीआई को ताकतवर बनाया, जिसके परिणामस्वरूप 9/11 के बाद अमेरिका आतंकवादियों के निशाने पर रहने के बावजूद वे वहाँ कोई बड़ा हमला दोबारा करने में नाकाम रहे हैं।

इसी संदर्भ में भारत को देखा जाए तो सख्त कानून तो हमारे देश में भी बने, मसलन टाडा और पोटा, लेकिन इनके लाभ से अधिक इनका विरोध और राजनीति हुई जिसके फलस्वरूप इनका मकसद ही पूर्ण नहीं हो पाया।  जब सुरक्षा बलों द्वारा जाँच की जाती है तो आत्मसम्मान और निजता के हनन जैसे विवाद खड़े कर दिये जाते हैं।

यहाँ कानूनों का पालन चेहरा देख कर होता है क्योंकि कुछ ख़ास वर्ग कानून से ऊपर होता है। और जब कभी कानून लागू करने का समय आता है तो कानून व्यवस्था के बीच में केंद्र और राज्य का मुद्दा आ जाता है। यह एक कटु सत्य है कि हमारी ही कमियों एवं कमजोरियों का फायदा उठाकर हमें ही बार बार निशाना बनाया जाता है।

जिस प्रकार अमरीका ने न सिर्फ आतंकवाद से लड़ाई लड़ी बल्कि अपने कानून में सुधार एवं संशोधन करके उसका कड़ाई से पालन किया, देश की सुरक्षा से किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया, उसी प्रकार हमें भी देश की सुरक्षा को सर्वोपरि रखना होगा। समझौतों को ‘ ना ‘ कहना सीखना होगा। कानून का पालन कठोरता से करना होगा। और यह समझना होगा कि देश का गौरव व सम्मान पहले है न कि कुछ खास लोगों का ‘आत्मसम्मान’ । हमारी सीमाओं से बार बार घुसपैठ क्यों हो रही है के बजाय कैसे हो रही है, इसका उत्तर तलाशना होगा। सामने वाला अगर हमारे घर में बार बार घुस कर हमें मार रहा है तो यह कमी हमारी है।

सबसे पहले तो हम यह सुनिश्चित करें कि वह हमारे घर में घुस ही न पाए। व्यावहारिक रूप में यह सुनिश्चित करने में जो रुकावटें हैं, सर्वप्रथम तो उन्हें दूर किया जाए और फिर भी यदि वो घुसपैठ करने में कामयाब हो रहे हैं तो उन्हें बख्शा नहीं जाए।

कितने शर्म एवं दुख की बात है कि भारत में जिस वर्ग को कश्मीर में सेना के जवानों पर पत्थर बरसाने वाले लोगों पर पैलेट गन का उपयोग मानव अधिकारों का हनन दिखाई देता था, आज वे सेना के जवानों की शहादत पर मौन हैं।

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