आज मैं बात वहीं से शुरू करना चाहूंगा जहां कल खत्म की थी। बच्चों पर होने वाले अत्याचार और उनके शोषण के बारे में मेरा सुझाव था कि इसके लिए समाज को भी आगे आकर प्रो-एक्टिव भूमिका अदा करनी होगी। यह देखकर बड़ी निराशा होती है और गुस्सा भी आता है कि बच्चों के साथ होने वाली घटनाएं यदि उठती भी हैं तो वे केवल खबरों तक सीमित होकर रह जाती हैं, वे समाज को आंदोलित करने या जनसरोकार का मुद्दा नहीं बन पातीं।
बिहार के मुजफ्फरपुर में जब आश्रय स्थल में बालिकाओं के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या का मामला सामने आया था, तब भी यह मुद्दा उठा था कि ऐसी घटनाओं पर पूरा देश आंदोलित क्यों नहीं होता? क्यों ऐसी घटनाएं या तो किसी शहर या गांव विशेष की होकर रह जाती हैं या फिर उस राज्य की आलोचना का विषय होकर। और आलोचना का सुर भी ज्यादातर राजनैतिक रंग लिए होता है।
ऐसे मामलों में जब भी सरकार या प्रशासन की जवाबदेही तय करने की बात आती है तो हमारी प्रतिक्रिया हर जगह एक सी होती है। हम समस्या या उस घटना के सामाजिक, आर्थिक और अन्य पहलुओं को देखने के बजाय उसमें राजनीतिक के कीड़े ढूंढने लगते हैं। घटना बच्चों के साथ होती है, लेकिन निशाना राजनीतिक होता है। जैसे बिहार में घटना होगी तो हेडलाइन बनेगी सुशासन बाबू के राज में दुशासन…
जब हम ऐसी लाइन लेते हैं तो राजनेताओं और प्रशासन को भी अपनी खाल बचाने में सुविधा हो जाती है। उन्हें कार्रवाई को मूल विषय से भटकाने का अच्छा बहाना मिल जाता है। मामला बच्चों के पाले से निकलकर राजनीति के पाले में चला जाता है। और राजनीति की कबड्डी में न तो किसी की हार होती है और न किसी की जीत। वहां बस खेल होता है जो सतत खेला जाता है…
आप मध्यप्रदेश में भोपाल की घटनाओं को ही ले लीजिये। हाल के दिनों में दो बड़ी घटनाएं ऐन सत्ता और शासन के केंद्र में हुई हैं। अगस्त महीने में राजधानी के अवधपुरी इलाके में मूक बधिर बच्चियों के लिए होस्टल चलाने वाले को होस्टल की ही एक युवती के साथ दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस समय मीडिया में उस होस्टल गतिविधियों और उसके संचालक अश्विनी शर्मा को लेकर कई तरह की बातें सामने आई थी।
यह बात भी उठी थी कि कई बार उस होस्टल पर बड़ी गाडि़यां आकर रुकती थीं। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि उन बड़ी गाडि़यों के बारे में किसी को कोई जानकारी न हो। आजकल कई बस्तियों में लोगों ने निजी सुरक्षा के लिए सीसीटीवी कैमरे लगा रखे हैं। बस्ती के किसी न किसी कैमरे में उन गाडि़यों और उनमें आने वालों की तसवीरें भी कैद हुई ही होंगी।
लेकिन दो चार रोज के हो हल्ले के बाद किसी को पता नहीं कि पुलिस ने ऐसे लोगों की खोजबीन को लेकर क्या किया? जिस दिन उस होस्टल का कारनामा अखबारों में छपा उसी दिन मुख्यमंत्री ने मीडिया से कहा कि अब से प्रदेश में आश्रय स्थलों का हर महीने निरीक्षण होगा। साथ ही निजी संचालकों द्वारा चलाये जा रहे बालिका छात्रावासों के लिये भी नियम बनाए जाएंगे।
मुख्यमंत्री का कहना था कि प्रदेश के उन सभी अनुदान प्राप्त, निजी अथवा सरकारी आश्रय स्थलों का नियमित निरीक्षण किया जायेगा, जहाँ बेटियां रहती हैं। साथ ही अनाथालयों का भी निरीक्षण करवाया जाएगा। अनुदान प्राप्त संस्थाओं का फिलहाल हर दो महीने में निरीक्षण होता है लेकिन अब यह हर माह होगा। संस्था चलाने वालों के भरोसे संचालन का काम नहीं छोड़ा जायेगा इसमें समाज की भागीदारी तय की जाएगी।
उसी समय राज्य का समाज कल्याण विभाग भी हरकत में आया था और बाकायदा प्रेस नोट जारी कर बताया गया था कि विभाग के आयुक्त ने संप्रेक्षण तथा बाल गृहों की बालिकाओं के साथ हो रहे व्यवहार, संस्थाओं के वातावरण के आकलन और निरीक्षण के लिये अधिकारियों को संस्थावार जिम्मेदारी सौंपी है।
इस निरीक्षण के दौरान संस्थाओं के बच्चों की स्थिति, रहन-सहन के लिये उपलब्ध करवाई गई सुविधाओं, अधोसंरचना, भोजन और सुरक्षा के साथ-साथ वहाँ पदस्थ स्टाफ की भी विस्तृत जानकारी ली जानी थी। यह भी पता लगाना था कि संस्था का वातावरण बालिकाओं के अनुकूल और सुरक्षित होने के साथ साथ उनके नैसर्गिक विकास में मददगार है या नहीं।
अफसरों को 18 अगस्त तक इस बारे में रिपोर्ट देने को कहा गया था। अब सवाल उठता है कि जब भोपाल में एक घटना हो चुकी थी और सरकार से लेकर उच्च अधिकारियों तक सब इस मामले में हाईअलर्ट पर थे, तो बावडिया कलां का ‘साईं विकलांग एवं अनाथ सेवा आश्रम’ और उसका सरगना एम.पी. अवस्थी इस जांच से कैसे छूट गया?
आश्रम के नाम पर चल रहे दुराचार के इस अड्डे की जानकारी विभाग के किसी निरीक्षण या जांच में सामने नहीं आई, बल्कि संस्था के ही कुछ पूर्व छात्र-छात्राओं को साथ लेकर सामाजिक न्याय एवं निशक्तजन कल्याण विभाग के दफ्तर पहुंची एक सामाजिक कार्यकर्ता ने श्रद्धा शुक्ला ने इसका भंडाफोड़ किया। वहां मूक बधिर बच्चों ने इशारों में आपबीती सुनाते हुए यह भी आरोप लगाया कि संचालक ने कुछ बच्चों के सिर दीवार पर मार दिए जिनसे उनकी मौत हो गई।
यानी बड़ी से बड़ी घटना हो जाने के बाद भी ढर्रा वही है। जांच और निरीक्षण के नाम पर कागजी खानापूरी हो रही है या फिर लीपापोती। ऐसे में समाज की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। लेकिन दुख की बात यह है कि इस पर न तो जनसमूहों की ओर से कोई आवाज उठती है और न ही कोई दबाव समूह बनता है।
जिस दिन मैं यह कॉलम लिख रहा हूं उसी दिन एक खबर आई है कि उज्जैन में एसएसीएसटी एक्ट को लेकर लाखों लोग सड़कों पर उतरे। क्या ये बच्चे जिनके साथ लगातार अपराध हो रहे हैं, इतनी भी औकात नहीं रखते कि लाखों न सही, दर्जन दो दर्जन लोग ही सड़क पर उतर कर सरकार और राजनीतिक दलों से कहें कि बच्चों को भी अपने एजेंडा में शामिल करिये।
ये बच्चे इसी जमीन के, इसी समाज के हैं। माना कि ये ‘वोट’ नहीं है पर ये कोई एलियन भी नहीं हैं, जिनके साथ होने वाली ऐसी जघन्य घटनाओं को हम सिर्फ खबर मानकर भूल जाएं।
इस मुद्दे पर आगे भी और बात करेंगे…