दबाव के इस माहौल में न्‍याय की उम्‍मीद भी कैसे पालें?

पुलवामा का जघन्‍य कांड हो जाने के कारण पूरे देश का ध्‍यान इन दिनों उसी ओर है। अभी या तो भारत पाकिस्‍तान की बात हो रही है या फिर आतंकवाद और उससे निपटने के तौर तरीकों की। लेकिन मैं आज उस विषय पर बात करना चाहता हूं जो पुलवामा कांड होने से पहले के पंद्रह दिनों के भीतर अलग-अलग कारणों से सुर्खियों में रहा था।

आपको याद होगा 10 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट के न्‍यायाधीश ए.के. सीकरी के हवाले से एक खबर छपी थी जिसमें न्‍यायमूर्ति को यह कहते हुए बताया गया था कि देश की न्‍यायिक प्रक्रिया इन दिनों दबाव में है और किसी भी मामले पर सुनवाई शुरू होने से पहले ही लोग इस बात पर बहस करने लग जाते हैं कि इसका फैसला क्‍या होना चाहिए?

लॉ एशिया के सम्‍मेलन में भाषण के दौरान जस्टिस सीकरी ने ‘‘डिजिटल युग में प्रेस की स्वतंत्रता’’ विषय पर विचार रखते हुए कहा था कि ‘’इस तरह के माहौल का न्‍यायाधीशों पर असर पड़ता है। प्रेस की स्वतंत्रता नागरिक और मानवाधिकारों की रूपरेखा और कसौटी को बदल रही है। मीडिया ट्रायल का मौजूदा रुझान उसकी एक मिसाल है।‘’

उनका कहना था कि ‘‘मीडिया ट्रायल पहले भी होते थे। लेकिन आज जैसे ही कोई मुद्दा उठता है, तुरंत एक याचिका दायर कर दी जाती है। और इस (याचिका) पर सुनवाई शुरू होने से पहले ही लोग यह चर्चा शुरू कर देते हैं कि इसका फैसला क्या होना चाहिए। उन्‍हें इस बात से सरोकार नहीं कि फैसला क्या है, बल्कि वे इस पर बात करते हैं कि फैसला क्या होना चाहिए। मेरा तजुर्बा कहता है कि इसका फैसला करने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है।’’

न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा, ‘‘ऐसा उच्चतम न्यायालय में ज्यादा नहीं होता क्योंकि न्‍यायाधीश जब तक उच्चतम न्यायालय में पहुंचते हैं, वे काफी परिपक्व हो जाते हैं और वे जानते हैं कि मीडिया में चाहे जो भी हो रहा हो, उन्हें कानून के आधार पर मामले का फैसला कैसे करना है।‘’

उन्होंने कहा, ‘‘कुछ साल पहले यह धारणा थी कि चाहे उच्चतम न्यायालय हो, उच्च न्यायालय हों या कोई निचली अदालत, एक बार अदालत ने फैसला सुना दिया तो आपको फैसले की आलोचना करने का पूरा अधिकार है। लेकिन अब तो फैसला सुनाने वाले न्यायाधीश को भी बदनाम किया जाता है या उनके खिलाफ मानहानिकारक भाषण दिया जाता है।’’

इसी सम्‍मेलन में भारत की अतिरिक्त सालिसिटर जनरल माधवी गोराडिया दीवान ने भी एक तरह से जस्टिस सीकरी की बात का समर्थन ही किया। उनका कहना था कि खबर और फर्जी खबर, खबर और विचार, नागरिक और पत्रकार के बीच का फर्क अब काफी धुंधला हो गया है। इसके साथ ही एक चुनौती यह भी हो गई है कि वकील भी कार्यकर्ता बन गए हैं।

देश की सर्वोच्‍च अदालत के न्‍यायाधीश के ये विचार हमारी समूची न्‍याय प्रणाली के हालात पर नई रोशनी डालते हैं। ऐसा नहीं है कि अदालती प्रक्रिया पर मीडिया ट्रॉयल या खबरों के दबाव की बात पहले नहीं उठी हो। यह मुद्दा समय-समय पर उठता रहा है और इस बात को भी रेखांकित किया जाता रहा है कि अदालत में पहुंचे या वहां चल रहे मामलों पर मीडिया की बहसें और उनके जरिये बनाया जाने वाला जनदबाव हस्‍तक्षेपकारी तत्‍व के रूप में काम करता है।

यह संकेत तो और भी चिंताजनक है कि उच्‍चतम न्‍यायालय में ऐसा दबाव कम होता है लेकिन उच्‍च न्‍यायालयों अथवा निचली अदालतों में यह तुलनात्‍मक रूप से अधिक है। इसका मतलब यह हुआ कि देश के न्‍यायिक ढांचे और अदालतों से होने वाले न्‍याय को प्रभावित करने वाली ताकतें मीडिया को एक हथियार के तौर पर इस्‍तेमाल कर रही हैं।

और जब जस्टिस सीकरी ने खुद अपने तजुर्बे के हवाले से कहा है कि इस बात का कोर्ट एवं जज पर असर होता है, तो यह बात भी बहुत साफ है कि अदालतों से आने वाले फैसले कानून और न्‍यायिक प्रक्रिया से इतर तत्‍वों से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में न्‍याय की शुद्धता, शुचिता, निष्‍पक्षता और सार्थकता पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं।

ऐसा हो सकने लायक परिस्थितियों की मौजूदगी देश के बुनियादी संस्‍थानिक ढांचों के, एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में अनुचित हस्‍तक्षेप का प्रमाण हैं। और ऐसे समय में जब मीडिया का गैरजिम्‍मेदाराना रवैया लगातार एक्‍सपोज हो रहा है, यह और ज्‍यादा खतरनाक हो जाता है क्‍योंकि यह न्‍याय से जुड़ा मामला है। उस न्‍याय का जिस पर व्‍यक्ति की आखिरी उम्‍मीद टिकी रहती है।

एक समय था जब पत्रकारिता में यह अघोषित शपथ ली जाती थी कि पत्रकार किसी भी खबर या सूचना में अपने निजी विचार या मत का घालघुसेड़ नहीं करेगा। उसे स्‍पष्‍ट निर्देश होते थे कि खबरों को एडिटोरियलाइज नहीं करना है। जो भी बात लिखनी है वह संपादकीय में या स्‍वतंत्र रूप से लिखे गए आलेख में लिखी जाए। पर अब ऐसी कोई विभाजक या लक्ष्‍मण रेखा मौजूद नहीं है।

इस लक्ष्‍मण रेखा के मिट जाने का नतीजा यह हुआ है कि मीडिया अब मुद्दई भी है और मुंसिफ भी। और बात केवल यहीं तक सीमित नहीं रह गई है। वह अब इससे भी बहुत आगे जाकर मृत्‍युदंड का फैसला भी खुद ही सुना रहा है और फांसी देने वाले जल्‍लाद का काम भी उसने ही संभाल लिया है।

भारत के लोकतंत्र में यह समय संस्‍थानिक ढांचों के गिरने या कमजोर होने का है। व्‍यक्ति और समाज को तो गिरा ही दिया गया है अब चारों तरफ इस बात की होड़ मची है कि संस्‍थानों को कैसे गिराया जाए। कैसे या तो उन्‍हें परास्‍त किया जाए या फिर उन्‍हें अपने नियंत्रण में लाया जाए। सत्‍ता की खबरें देते देते सत्‍ता को पा लेने या उसे अपनी उंगलियों पर नचाने का यह जो चस्‍का मीडिया को लगा है वह आज भले ही उसे नशे की ‘किक’ की तरह महसूस हो रहा हो लेकिन आने वाले दिनों में यह नशा ही उसे ले डूबेगा यह तय है।

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