मध्यप्रदेश में एक आईएएस अधिकारी अजय गंगवार की फेसबुक पोस्ट को लेकर इन दिनों प्रशासनिक अधिकारियों के ‘’अभिव्यक्ति के अधिकार’’ की काफी चर्चा है। गंगवार के खिलाफ मध्यप्रदेश सरकार द्वारा की गई कार्रवाई ने मामले को और गरमा दिया है। क्या है अभिव्यक्ति का अधिकार और क्या है प्रशासनिक अधिकारियों का दायित्व, इसी की पड़ताल करती वरिष्ठ पत्रकार गिरीश उपाध्याय की तीन हिस्सों वाली यह आलेख श्रृंखला हम आज से प्रकाशित कर रहे हैं।
पढि़ए उसका पहला भाग-
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मध्यप्रदेश के एक आईएएस अधिकारी की फेसबुक पोस्ट को लेकर इन दिनों काफी घमासान मचा हुआ है। उस पोस्ट को लेकर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के बारे में तरह तरह की बातें कही जा रही हैं। इस मामले में कोई राय बनाने या किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ बातों को गहराई से जान लेना जरूरी है।
पहले बड़वानी के पूर्व कलेक्टर अजय गंगवार की उस फेसबुक पोस्ट को देख लें जो उन्होंने लिखी है। यह पोस्ट कहती है-
‘‘जरा गलतियां बता दीजिए जो नेहरू को नहीं करनी चाहिए थी तो अच्छा होता। यदि उन्होंने आपको 1947 में हिंदू तालिबानी राष्ट्र बनने से रोका तो यह उनकी गलती थी। वे आईआईटी, इसरो, बार्क, आईआईएसबी, आईआईएम, बीएचईएल, स्टील प्लांट, डीएएमएस, थर्मल पॉवर लेकर आए यह उनकी गलती थी। आसाराम और रामदेव जैसे इंटलेक्चुअल की जगह साराभाई और होमी जहांगीर को सम्मान व काम करने का मौका दिया, यह उनकी गलती थी। उन्होंने देश में गोशाला और मंदिर की जगह यूनिवर्सिटी खोली यह भी उनकी घोर गलती थी। उन्होंने आपको अंधविश्वासी की जगह एक साइंटिफिक रास्ता दिखाया यह भी गलती थी। इन सब गलतियों के लिए गांधी फैमिली को देश से माफी तो बनती है।‘’
सबसे पहले अभिव्यक्ति की आजादी की ही बात कर लें। निश्चित रूप से हमारा संविधान अभिव्यक्ति की आजादी देता है। और इस आजादी की रक्षा हर कीमत पर होनी ही चाहिए। इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि, चाहे छोटा हो या बड़ा, संविधान किसी में कोई फर्क नहीं करता, लिहाजा अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश लगाने की किसी भी कोशिश को मंजूर करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह गलती की थी और उन्होंने उसका खमियाजा भी भुगता। आज खुद कांग्रेस में कई लोग ऐसे होंगे जो सार्वजनिक रूप से तो नहीं लेकिन व्यक्तिगत रूप से इस बात को स्वीकार करेंगे कि इंदिरा गांधी ने उस समय जो गलती की थी, वह नहीं की जानी चाहिए थी। कांग्रेस को उस गलती की भारी कीमत चुकानी पड़ी और पता नहीं कितने दशकों तक उसे यह कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए यदि आज का कोई नेता यह सोचता है कि वह अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट सकेगा, तो उसे एक बार भारत का ताजा इतिहास टटोल कर देख लेना चाहिए। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि, जो लोग इतिहास से सबक लेने के आदी नहीं होते, वे इतिहास का हिस्सा बनने लायक भी नहीं रहते।
लेकिन अभिव्यक्ति की इस आजादी के साथ ही जवाबदेही के सवाल भी अनिवार्य रूप से जुड़े हैं। संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, स्वच्छंदता नहीं। यदि वहां आजादी की बात है तो उसके साथ दायित्व बोध भी उतने ही अनुपात में संलग्न है। अकसर यह भूल हो जाती है या जानबूझकर की जाती है, कि अभिव्यक्ति की आजादी का केवल एक ही पक्ष देखा या दिखाया जाता है। इस ‘आजादी’ का आकलन हम अपने हिसाब से या अपनी सुविधा से करने लगते हैं।
दूसरा प्रश्न अभिव्यक्ति की मंशा का है। आप यदि कोई बात व्यापक समाज हित या देश हित में कर रहे हैं, तो आपको अभिव्यक्ति की आजादी को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। न ही किसी तर्क, वितर्क या कुतर्क की। ईमानदारी, सचाई और निरपेक्ष्ा भाव से व्यक्त की गई बात या विचार को समाज बहुत सहज भाव से स्वीकार करेगा। फिर वह बात चाहे देश का प्रधानमंत्री कहे या गांव का पंच, कोई कलेक्टर कहे या चपरासी। लेकिन यदि आप कोई भी बात सापेक्ष भाव से कहेंगे तो आपको उस पर होने वाली प्रतिक्रिया के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
तीसरी बात समाज या शासन व्यवस्था के अनिवार्य तत्व ‘अनुशासन’ की है। आप यदि किसी व्यवस्था का हिस्सा हैं, तो उस व्यवस्था के अनुशासन का पालन भी आपसे अपेक्षित है। अभिव्यक्ति की आजादी का मीडिया से बड़ा झंडाबरदार तो कोई नहीं है ना। लेकिन क्या कोई रिपोर्टर या उप संपादक अपने संपादक से मशविरा किए बिना या उसकी सहमति के बिना कोई भी बात, संबंधित समाचार माध्यम में प्रकाशित या प्रसारित कर सकता है? और क्या कोई संपादक अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, उस समाचार माध्यम के मालिक या उसके द्वारा संचालित किए जाने वाले उद्योगों या उपक्रमों के हितों के विपरीत कोई अभियान चला सकता है? फिर भले ही वह उद्योग या उपक्रम कितने ही काले कारनामों में लिप्त हो। और मीडिया की बात भी छोडि़ए, क्या कोई राजनीतिक दल अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अपने ही दल की नीतियों या नेता के खिलाफ कुछ कह सकता है?
योगेंद्र यादव और प्रशांतभूषण ने भी तो अभिव्यक्ति की आजादी के तहत ही आम आदमी पार्टी में अपने बात रखी थी, क्या हुआ उनका? जरा याद कीजिए, कांग्रेस में जिन लोगों ने नेहरू गांधी परिवार पर सवाल उठाए उनकी क्या गत बनी? उन्हें भी तो अपनी बात कहने की आजादी थी। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी या अरुण शौरी को क्या अपनी राय रखने का हक नहीं है? लेकिन ये सभी ‘महान रायचंद’ आज हाशिए पर क्यों हैं?
ऐसे और भी दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। और उदाहरण देने या बताने की आवश्यकता भी नहीं है। समझने वाले समझ जाएंगे और जानते भी होंगे कि अतीत में ऐसी हरकत करने वालों का संबंधित राजनीतिक दल में क्या हश्र हुआ है।
आप अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते हैं ना। हाल ही में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी जैसे बड़े-बड़े दिग्गज इसी अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में गए थे और अपील की थी कि आपराधिक मानहानि के कानून को खत्म किया जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा? आपको याद न हो तो मैं याद दिला देता हूं, उसने कहा- आपको यदि अभिव्यक्ति की आजादी है तो सामने वाले को भी सम्मान के साथ जीने की आजादी है। कोर्ट ने आपराधिक मानहानि वाले कानून को खत्म करने से इनकार कर दिया। (क्रमश:)
कल पढि़ए- क्या जवाबदेही के बिना समाज चल सकता है?
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