जब भी कोई बड़ा भूकंप आता है तो उसके गुजर जाने के बाद भी कुछ कुछ अंतराल से झटके आते रहते हैं। प्रचलित शब्दावली में इसे ‘ऑफ्टर शॉक्स’ कहा जाता है। मध्यप्रदेश में हाल ही में आया ‘किसान आंदोलन’ का बड़ा भूकंप गुजर जाने के बाद (हालांकि मेरा मन अभी भी मानने को तैयार नहीं कि भूकंप गुजर गया है) ‘ऑफ्टर शॉक्स’ का सिलसिला शुरू हो गया है। ये ‘ऑफ्टर शॉक्स’ दिखने में भले ही उतनी गंभीर प्रकृति के न लग रहे हों, लेकिन इनमें उस खतरे के पर्याप्त संकेत छिपे हैं जो कहता है कि आने वाले दिनों में ये छोटे-मोटे झटके फिर से एक बड़े भूकंप का कारण बनकर सरकार के लिए मुसीबत पैदा कर सकते हैं।
आपको मेरी बात पर यकीन न आए तो सरकार की उपवास वापसी के चंद घंटों के भीतर ही घटी कुछ घटनाओं पर नजर डाल लीजिए। पहली घटना किसानों की आत्महत्या वाली खबरें हैं। खबरें कहती हैं कि पिछले 24 घंटों में भोपाल से सटे होशंगाबाद, विदिशा और सीहोर जिलों में तीन किसानों ने कथित रूप से कर्ज में फंसे होने की वजह से आत्महत्या कर ली। इनमें से सीहोर तो खुद मुख्यमंत्री का गृह जिला है। यानी तमाम सरकारी घोषणाओं के बाद भी किसान यकीन नहीं कर पा रहा कि वह कर्ज के दलदल से निकल सकता है। सरकार को यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि अब सिर्फ घोषणाओं से काम नहीं चलने वाला। सरकार की सबसे बड़ी चुनौती ही किसानों को यह भरोसा दिलाना है कि वह जो कह रही है उस पर जरूर और वैसा ही अमल होगा जैसा वादा किया जा रहा है।
लेकिन यह भरोसा पैदा करने में सरकार के ही कुछ कदम रोड़ा बनते नजर आ रहे हैं। जरा दूसरी घटना सुनिए। 11 जून को भोपाल के भेल दशहरा मैदान पर मुख्यमंत्री ने अपना उपवास समाप्त करते हुए घोषणा की थी कि किसानों की फसल समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीदने वालों के खिलाफ पुलिस केस दर्ज किया जाएगा, लेकिन उस घोषणा के चंद घंटों के भीतर ही उसमें एक संशोधन कर दिया गया है।
खबरें कहती हैं कि सरकार ने सोमवार रात इस संबंध में एक स्पष्टीकरण जारी करते हुए कहा कि समर्थन मूल्य पर यह खरीदी केवल एफएक्यू (फेयर एवरेज क्वालिटी) वाली उपज की ही होगी। जो फसल एफएक्यू पर खरी नहीं उतरती, उसकी खरीद व्यापारी और किसान आपस में बोली लगाकर कर सकते हैं। एफएक्यू वह मापदंड है जो मंडियों में आने वाले अनाज आदि की गुणवत्ता को परखने के लिए तय किया गया है। इसमें अनाज में नमी, उसकी चमक और मिट्टी की मात्रा आदि को देख कर उसकी गुणवत्ता तय करते हुए दाम निर्धारित किए जाते हैं।
यानी घूमफिर कर ढाक के तीन पात वाली स्थिति फिर आ गई है। अरे, एफएक्यू के हिसाब से खरीद तो पहले भी हो रही थी। फिर इसमें नई बात कौनसी रही? दरअसल सारा खेल ही इस एफएक्यू की आड़ में होता है। मंडियों के कारिंदे किसान की फसल को एफएक्यू के आधार पर खरी न उतरने वाली बताकर खरीदने से इनकार कर देते हैं। मजबूरी में किसान को अपनी फसल उन बिचौलियों या व्यापारियों को बेचना पड़ती है, जो ऐसे ही अवसरों की तलाश में मंडियों में गिद्ध की तरह मंडराते रहते हैं।
दरअसल यह सारा गोरखधंधा मंडी के कारिंदों और व्यापारियों/बिचौलियों की मिलीभगत से चलता है। मंडियों में जानबूझकर ऐसे हालात पैदा किए जाते हैं कि किसान समर्थन मूल्य पर अपनी फसल न बेच सके और इसका फायदा बाजार की ताकतों को मिले। जाहिर है यह करोड़ों के वारे न्यारे का खेल है। ये शिकायतें आज से नहीं बरसों से चली आ रही हैं कि मंडी में आए किसानों का माल औने पौने दामों पर खरीदने के बाद उसे मिलीभगत के जरिए, समर्थन मूल्य वाली अधिक कीमत पर बेचकर, करोड़ों का खेल कर लिया जाता है। समर्थन मूल्य पर खरीदी ‘असली किसान’ से ही करने के तमाम उपायों के बावजूद सरकार की ‘चाक चौबंद’ व्यवस्था में यह सेंधमारी लगातार जारी है।
इस बार के किसान आंदोलन में एक खास बात यह देखने को मिली है कि किसानों ने व्यापारियों पर भी अपना गुस्सा निकाला है। मंदसौर जिले के सुवासरा में हुई ऐसी ही एक घटना के दौरान भीड़ ने जब एक दुकान में आग लगाने की कोशिश की तो वहां मौजूद व्यापारी वहां से भागने लगा, लेकिन भीड़ ने उसे जबरन वहीं रोकते हुए कहा- ‘’जाता कहां है, यहीं रह, तभी तुझे किसानों की तकलीफ का अंदाजा होगा।‘’ यह घटना बताती है कि किसान वर्तमान व्यवस्था में हो रहे खुद के शोषण से कितना त्रस्त और गुस्साया हुआ है।
मैंने पहले भी लिखा था कि इस आंदोलन ने, ग्रामीण परिवेश में अब तक मिलजुलकर दुखदर्द बांटते आए व्यापारियों और किसानों के बीच बड़ी खाई पैदा कर दी है। यह खाई आने वाले दिनों में सरकार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकती है। यदि ग्रामीण क्षेत्र में व्यापारियों और किसानों के बीच टकराव की स्थिति बनी, जो बन रही है, तो उसका असर हमारी पूरी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था पर पड़ेगा।
वैसे यह असर दिखने भी लगा है। समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल न खरीदने वाले व्यापारियों पर केस दर्ज करने की सरकार की घोषणा पर व्यापारी भड़क गए हैं। उन्होंने इसके विरोध में कई मंडिया बंद रखीं और कोई खरीदी ही नहीं की। अब यदि यह मामला बढ़ा तो किसानों का आक्रोश और भड़केगा। क्योंकि अभी तक तो थोड़ी बहुत खरीद हो भी रही थी, अब जब व्यापारी मंडी ही बंद करवाने लगेंगे और खरीद ही नहीं करेंगे, तो सरकार आखिर कहां तक खरीदी की व्यवस्था अपने स्तर पर करती रहेगी? जाहिर है सरकार के लिए दोनों तरफ खाईयां तैयार हो रही हैं।