उधर नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर 12 दिन के अनशन के बाद आईसीयू में हैं और इधर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सरदार सरोवर बांध परियोजना के विस्थापितों को हटाने की डेडलाइन बढ़ाने की उनकी मांग मानने से इनकार कर दिया।
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का ताजा आंदोलन इस तर्क के साथ हो रहा था कि सरकार झूठ बोल रही है। बांध से विस्थापित होने वाले लोगों के लिए समुचित इंतजाम नहीं किए गए हैं। सरकार के दावे लोगों में भ्रम पैदा करने वाले हैं, वह कागजों पर दिखाई जा रही सचाई है, जबकि जमीन पर हकीकत कुछ और है।
नर्मदा नदी पर बनने वाले बांधों से विस्थाप्ति होने वाले लोगों के हकों को लेकर यह लड़ाई करीब तीस साल से जारी है। इस बीच इस आंदोलन ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। आंदोलनकारी अपनी जगह पर डटे रहे हैं जबकि सरकारें राजनीतिक लाभ हानि के गणित में लगातार होने वाले उतार चढ़ाव के साथ नर्मदा परियोजनाओं पर काम करती रही है। इस बीच मध्यप्रदेश ने कई सरकारें देखीं जिनमें कांग्रेस की भी थीं और भाजपा की भी।
कांग्रेस की सरकारों का रवैया इस मामले में अनिश्चित सा रहा लेकिन भाजपा की सरकारों ने परियोजना को पूरा करने में ज्यादा दिलचस्पी ली। पहले इस परियोजना में पर्यावरण संबंधी मुद्दों को लेकर सवाल उठे, जो बाद में लोगों के विस्थापन और पुनर्वास के जरूरी सवाल में तब्दील हो गए। मेधा पाटकर के नेतृत्व वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पुनर्वास की मांग को ‘आवाज’ दी और नर्मदा घाटी से उठी इस आवाज की गूंज दुनिया भर में सुनाई दी।
जहां यह सही है कि मेधा पाटकर और उनके सहयोगियों द्वारा जोरदार तरीके से मसला उठाए जाने के कारण ही बांधों से विस्थापित होने वाले लोगों को उनके जायज हक काफी हद तक मिले सके हैं। वहीं यह भी सच है कि आंदोलन के बांध विरोधी रवैये के कारण नर्मदा परियोजनाओ का काम पूरा करने में काफी देरी हुई है। आंदोलन की ओर से जहां सरकारों पर अमानवीय दृष्टिकोण अपनाने के आरोप लगाए जाते रहे हैं, वहीं सरकारों और सत्ता संगठनों का आरोप रहा है कि आंदोलन के लोग विदेशी धन के बल पर देश के विकास को अवरुद्ध करने में लगे हैं।
इस मामले में सरकारों ने समय-समय पर अलग-अलग रुख अपनाए। मुझे याद है पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन की मांग पर एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने यहां तक प्रस्ताव दे डाला था कि आंदोलन के लोग खुद आगे आएं और पुनर्वास तथा पुनर्व्यस्थापन का काम अपने हाथ में ले लें। सरकार उनके साथ खड़ी रहेगी। लेकिन आंदोलन के लोगों ने उस प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया।
जमीनी लड़ाई लड़ने के साथ-साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन ने बांध प्रभावितों की ओर से लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़ी और पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे की दरों और विस्थापन के तौर तरीकों पर अपना फैसला सुना दिया। उसके बाद सरदार सरोवर बांध के कारण डूब में आने वाले धार जिले के निसरपुर व आसपास के क्षेत्र के पीडि़तों के समुचित पुनर्वास को लेकर मेधा पाटकर अनशन पर बैठ गईं। जिन्हें सोमवार को सरकार ने स्वास्थ्य खराब होने का हवाला देते हुए पुलिस के जरिये उठवाकर अस्पताल में भरती करवा दिया।
इस बीच आंदोलन को उम्मीद थी कि उसे सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल जाएगी जहां उसकी ओर से मांग की गई थी कि विस्थापितों को हटाने के लिए 31 जुलाई की डेडलाइन आगे बढ़ाई जाए, क्योंकि ज्यादातर विस्थापितों को वैकल्पिक जगह नहीं मिली है और प्रशासन इन लोगों को टीन शेड में रख रहा है जहां के हालात ठीक नहीं हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह अवधि बढ़ाने से इनकार कर दिया है।
यानी नर्मदा बचाओ आंदोलन की आखिरी उम्मीद भी अब खत्म हो गई है। चूंकि नर्मदा बचाओ आंदोलन ने हमेशा ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हुए खुद को जिंदा रखा है इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि आंदोलन आखिरी लड़ाई भी हार चुका है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में अब मेधा पाटकर और उनके सहयोगियों के लिए आंदोलन को आगे खींचना मुश्किल जरूर होगा। क्योंकि अब उनका कोई भी कदम सीधे सीधे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।
ताजा आंदोलन के दौरान मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने मेधा से ट्विटर के जरिए अपील करते हुए कहा था कि वे और उनके साथी अनशन समाप्त करें, मुझे आप सभी के स्वास्थ्य की चिंता है। विस्थापितों के हितों की चिंता करना मेरा कर्तव्य है। लेकिन जवाब में मेधा पाटकर ने कहा था कि मैं ट्विटर पर उपवास नहीं तोड़ सकती। डूब प्रभावितों के मामले में सरकार समुचित पुनर्वास की कार्रवाई करे और तब तक बांध का पानी भरने से रोके तभी अनशन खत्म होगा।
जाहिर है अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मेधा की टीम के हाथ बंध गए हैं और सरकार के हाथ और मजबूत हो गए हैं। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण पहले ही कह चुका है कि यदि लोग वहां से नहीं हटे तो उन्हें बलपूर्वक हटाया जाएगा। ऐसे में कानूनी लड़ाई हार चुके नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए सरकार से टकराना और भी मुश्किल होगा। लिहाजा जरूरत इस बात की है कि सरकार खुद संवेदनशीलता का परिचय देते हुए मेधा और उनके साथियों की जायज मांगों पर सहानुभूतिपूर्व विचार करे। उन्हें विश्वास में लेने में कोई बुराई नहीं है। उधर आंदोलन को भी परिस्थतियों को समझना होगा। कहीं ऐसा न हो कि नेतृत्व के अडि़यल रवैये का खमियाजा लोगों को भुगतना पड़े।
बेहतर यही होगा कि दोनों पक्ष एक दूसरे को समझते हुए रास्ता निकालें। ध्यान रहे, राजा का काम ‘राजधर्म’ का पालन करते हुए प्रजा के हितों की रक्षा करना है। लेकिन आंदोलनकर्ताओं को भी यह साफ करना होगा कि केवल विरोध के नाम पर विरोध करना ही उनका ‘धर्म’ नहीं है…