सरकार के हाथ हमेशा साफ होने चाहिए, पर होते नहीं हैं

वर्तमान सरकार के चहेते योग उद्यमी बाबा रामदेव के मशहूर ब्रांड पतंजलि के हैंडवॉश का एक विज्ञापन इन दिनों टीवी पर खूब आ रहा है। इसमें एक पुलिस वाला एक चोर से, जमीन में गाड़े गए चोरी के माल को हथियाते हुए दिखाया गया है। उसकी यह हरकत देखकर एक बच्‍चा उसे चेताते हुए कहता है- ‘’अंकल कानून के हाथ बड़े लंबे होते हैं…’’ इसी बीच दूसरा बच्‍चा कमेंट करता है- ‘’पर अंकल आपके हाथ तो बड़े गंदे हैं…’’पुलिस वाला उस बच्‍चे के कटाक्ष को समझते हुए उसे धमकाता है। बच्‍चा दौड़कर घर से पतंजलि हैंडवॉश की बोतल लाकर पुलिस वाले को देता है और कहता है- ‘’लो अंकल हाथ धो लो, कानून के हाथ हमेशा साफ रहने चाहिए…’’

यह विज्ञापन मुझे मध्‍यप्रदेश में इन दिनों घट रहे एक घटनाक्रम पर बिलकुल फिट बैठा नजर आता है। मामला राज्‍य के नए लोकायुक्‍त की नियुक्ति का है। सरकार ने 28 जून 2016 को पीपी नावलेकर की सेवानिवृत्ति के बाद से ही खाली पड़े राज्‍य लोकायुक्‍त के पद पर दीवाली के दो दिन पहले मध्‍यप्रदेश उच्‍च न्‍यायालय के पूर्व न्‍यायाधीश नरेश कुमार गुप्‍ता की नियुक्ति के आदेश जारी किए। हालांकि श्री गुप्‍ता ने 18 अक्‍टूबर को लोकायुक्‍त पद की शपथ भी ले ली है, लेकिन उनकी नियुक्ति का आदेश जारी होने के दिन से ही चल रहा विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आदेश पर पहली आपत्ति राज्‍य के उप लोकायुक्‍त यू.सी. माहेश्‍वरी की ओर से आई। बताया जाता है कि न्‍यायिक सेवा में श्री माहेश्‍वरी श्री गुप्‍ता से लगभग छह साल वरिष्‍ठ हैं और उनकी आपत्ति भी इसी बात पर है कि उनसे जूनियर व्‍यक्ति को उनका बॉस बना दिया गया है। श्री माहेश्‍वरी ने सीधे सीधे तो नहीं लेकिन परोक्ष रूप से सरकार के इस फैसले पर कुछ कमेंट किए हैं। उन्‍होंने कहा- ‘’कई बार निर्णय कटु और आपके मन को अच्‍छे नहीं लगने वाले होते हैं लेकिन वे आपके वश में नहीं होते।‘’

लोकायुक्‍त की नियुक्ति में नेता प्रतिपक्ष अजयसिंह की भूमिका को लेकर भी सवाल उठाया जा रहा है। इस आपत्ति को कांग्रेस के भीतर से ही हवा दी गई है। कांग्रेस के राज्‍यसभा सदस्‍य और मशहूर वकील विवेक तन्‍खा ने सवाल उठाया कि नेता प्रतिपक्ष को सरकार की ओर से भेज गए सिर्फ एक नाम पर अपनी स्‍वीकृति नहीं देनी चाहिए थी।

विवेक तन्‍खा की आवाज को ही एक तरह से आगे बढ़ाते हुए पूर्व विधानसभा अध्‍यक्ष श्रीनिवास तिवारी और पूर्व कार्यवाहक नेता प्रतिपक्ष बाला बच्‍चन ने भी सवाल उठाए हैं। बच्‍चन ने कहा कि मेरे समय भी श्री गुप्‍ता का सिंगल नाम छह बार विचार के लिए भेजा गया था, लेकिन मैंने सिर्फ एक नाम होने के कारण अपनी सहमति नहीं दी थी। कांग्रेस के इन तीनों नेताओं का मत है कि नए लोकायुक्‍त के लिए नामों का पैनल भेजा जाना चाहिए था।

उधर न्‍यायिक जगत से भी सरकार के फैसले पर उंगली उठी है। पूर्व लोकायुक्‍त जस्टिस फैजानुद्दीन ने कहा है कि सरकार की इस हरकत से मेरी रूह कांप गई है। लोकायुक्‍त का इलेक्‍शन होता है सिलेक्‍शन नहीं। सरकार ने चयन का गलत तरीका अपनाया जो बताता है कि इस संगठन को लेकर उसकी मंशा क्‍या है। तय प्रक्रिया के अनुसार सरकार नाम भेजती है और हाईकोर्ट के मुख्‍य न्‍यायाधीश एवं नेता प्रतिपक्ष उसे स्‍वीकृति देते हैं। मैंने अपने समय उप लोकायुक्‍त पद के लिए सिर्फ एक नाम भेजा था जिसे सरकार ने पैनल की मांग करते हुए लौटा दिया था। अब वही सरकार लोकायुक्‍त का चयन सिंगल नाम से कर रही है।

विवाद का परिणाम यह रहा कि लोकायुक्‍त के शपथ ग्रहण समारोह में न तो उप लोकायुक्‍त पहुंचे और न ही नेता प्रतिपक्ष। नए लोकायुक्‍त की नियुक्ति में खुद को आलोचना का केंद्र बनाए जाने पर नेता प्रतिपक्ष अजयसिंह का कहना है कि सरकार ने उन्‍हें अंधेरे में रखा। हाईकोर्ट से भी एक ही नाम भेजा गया। ऐसे में मेरे पास कोई चारा नहीं था। अजयसिंह ने खुद को गुमराह किए जाने के विरोधस्‍वरूप सरकार को एक पत्र भी लिखा है।

इस बीच राज्‍य के जनसंपर्क मंत्री एवं सरकार के प्रवक्‍ता डॉ. नरोत्‍तम मिश्रा ने कहा है कि लोकायुक्‍त की नियुक्ति में अनियमितता जैसी कोई बात ही नहीं है। विपक्ष इस मामले को अनावश्‍यक विवाद का मुद्दा बना रहा है। नियुक्ति में मप्र लोकायुक्‍त अधिनियम 1981 का पूरी तरह से पालन हुआ है। अधिनियम के अनुसार हाईकोर्ट का जज रह चुका कोई भी व्‍यक्ति लोकायुक्‍त बन सकता है। सारे विवाद पर नए लोकायुक्‍त नरेश कुमार गुप्‍ता ने फिलहाल कोई टिप्‍पणी नहीं की है। उन्‍होंने मीडिया से बस इतना कहा है कि सीनियर जूनियर का यह विवाद दुखद है।

दरअसल यह विवाद न सिर्फ दो व्‍यक्तियों के लिए दुखद है बल्कि मध्‍यप्रदेश की समूची प्रशासनिक व्‍यवस्‍था और भ्रष्‍टाचार जैसे नासूर से लड़ने के लिहाज से भी दुखद है। आखिर सरकार को नामों का पैनल तैयार करने में क्‍या आपत्ति थी। फैसला तो बहुमत से ही होता न। यदि सरकार चाहती तो अपनी मंशा के अनुरूप किसी का भी चयन करवा सकती थी। लेकिन इस तरह उसने न सिर्फ न्‍यायिक सेवा में रहे दो वरिष्‍ठ लोगों को संदिग्‍ध बना दिया है, बल्कि भ्रष्‍टाचार से लड़ने की खुद की मंशा पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।

नए लोकायुक्‍त नरेश कुमार गुप्‍ता ने मध्‍यप्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर व ग्‍वालियर खंडपीठ में सात साल काम किया है। इस अवधि में उन्‍होंने 48 हजार 550 मामले निपटाए हैं जो 2500 मामले प्रतिवर्ष के राष्‍ट्रीय औसत की तुलना में दुगुने से भी अधिक हैं। लेकिन जो हालात बना दिए गए हैं उन्‍होंने जस्टिस गुप्‍ता को भी अनावश्‍यक रूप से संदिग्‍ध बना दिया है। हो सकता है उनकी नियुक्ति के पीछे सरकार की कोई छद्म मंशा न हो, लेकिन अब होगा यह कि उनके कार्यकाल का हर फैसला इस विवाद की रोशनी में ही देखा जाएगा और हर बार उस पर उंगली उठाने के प्रयास होंगे।

ऐसा लगता है कि खुद की साख तो छोडि़ए, संवैधानिक संस्‍थाओं की साख बचाने में भी अब सरकारों की कोई रुचि नहीं रही है। इसीलिए मैंने पतंजलि हैंडवॉश का उदाहरण दिया। होना तो यह चाहिए कि हर फैसले में सरकार के हाथ पाक साफ रहें लेकिन ऐसा हो नहीं रहा…

 

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