कैसी मशाल ले के चले आप, रोशनी भी सलामत नहीं रही

दूसरे दिन यानी 18 अगस्‍त की शुरुआत, वरिष्‍ठ पत्रकार राजेश बादल द्वारा गांधी पर बनाई गई फिल्‍म के प्रदर्शन से हुई। इस फिल्‍म की एक खासियत यह है कि इसकी एंकरिंग आकाशवाणी के जाने माने समाचार उद्घोषक देवकीनंदन पांडे ने की है। 60,70 और 80 के दशक तक की पीढ़ी के कानों में शायद आज भी यह आवाज गूंजती होगी- ये आकाशवाणी है… अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिये…

राजेश बादल बताते हैं कि उन्‍होंने फिल्‍म के लिए पांडे जी का चयन इसलिए किया क्‍योंकि उन्‍होंने ही आकाशवाणी के लिए गांधी की अंतिम यात्रा को कवर किया था। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक “जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन के समाचार भी उन्होंने ही पढ़े थे। संजय गाँधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिए रिटायर हो चुके देवकीनंदन पांडे को ख़ास तौर से दिल्ली स्टेशन पर बुलवाया गया था।‘’

आज जब टीवी एंकर अविश्‍वसनीयता, झूठ, फरेब, चाटुकारिता या अदावत के पर्याय होते जा रहे हैं वहां देवकीनंदन पांडे की खासियत यह थी कि जितने भी बड़े अवसर होते, ख़ास तौर से उन्‍हें ही समाचार पढ़ने बुलाया जाता। फिर चाहे उनकी ड्यूटी हो या न हो। सब को पता था कि ये देश की आवाज़ है। पांडेजी कह रहे हैं तो इसका मतलब पूरा देश कह रहा है।

देश की आवाज का जिक्र आया तो मुझे राजेश बादल की इसी फिल्‍म के एक दृश्‍य का संवाद याद आ गया जिसमें बताया गया कि गोपालकृष्‍ण गोखले ने उस समय गांधी से कहा था कि ‘’पहले इस देश को अच्‍छी तरह समझ लें और फिर उसका नेतृत्‍व करें।‘’ क्‍या हमें यह नहीं लगता कि करीब सौ साल पहले कही गई यह बात देश के तमाम राजनेताओं पर आज भी हूबहू लागू होती है।

खैर… दूसरे दिन का पहला सत्र ‘जय जगत बनाम वैश्‍वीकरण’ विषय पर केंद्रित था। इसमें वरिष्‍ठ गांधीवादी लेखक कश्‍मीर उप्‍पल, चिन्‍मय मिश्र और रजनी बख्‍शी ने अपने विचार रखे।

सत्र के सूत्रधार अरुण त्रिपाठी ने कठोपनिषद के श्‍लोक- अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् का जिक्र करते हुए कहा कि अंतर्राष्‍ट्रीय मंचों पर यह श्‍लोक आजकल ज्‍यादा ही सुनाई पड़ रहा है। यह दुनिया के सामने हमारी ऊंचाई का प्रतिनिधित्‍व करता है। लेकिन इसको बताते समय लोग इसकी पहली लाइन को भूल जाते हैं।

इस श्‍लोक की पहली लाइन कहती है कि यह मेरा है, यह तेरा है, ऐसी चर्चा छोटे चरित्र के लोग करते हैं। उदार चरित्र के जो लोग हैं उनके लिए पूरी दुनिया एक परिवार है। तो सारा खेल, छद्म अंतर्राष्‍ट्रीयता और असली अंतर्राष्‍ट्रीयता, विश्‍व बंधुत्‍व के नकली रूप और उसके असली रूप के बीच फंसा हुआ है।

डॉ. लोहिया कहते थे कि कुछ लोगों को इन दिनों ‘विश्‍वयारी’ का शौक चर्राया हुआ है। पर वास्‍तविकता यह है कि ये लोग दुनिया को जोड़ना नहीं चाहते।… तो हम आज भी विश्‍वबंधुत्‍व और विश्‍वयारी के इस द्वंद्व में फंसे हुए हैं। वास्‍तविक विश्‍वमैत्री के सामने सत्‍ता का, हथियारों का, आतंक का, पूंजी का, कालेधन का जो वैश्‍वीकरण हो रहा है, वह मानव सभ्‍यता को कहां ले जा रहा है, यह असली चिंता का विषय है।

राष्‍ट्रवाद के इस जबरदस्‍त दौर में, जबकि 25 साल बहुत तेजी से दौड़ने के बाद उदारीकरण और वैश्‍वीकरण लगभग हांफ रहा है, लड़खड़ा रहा है और उसे सहारा अगर कहीं मिल रहा है तो संकीर्ण किस्‍म के राष्‍ट्रवाद में मिल रहा है। और यह सिर्फ भारत की नहीं पूरी दुनिया की स्थिति है।

1991 में वैश्‍वीकरण जिन उम्‍मीदों के साथ शुरू हुआ था, वे उम्‍मीदें अब निराशा में बदल रही हैं। दुष्‍यंत के शब्‍दों में- कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप,जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही। अर्थव्‍यवस्‍था का नया ढांचा उपनिवेशवाद के नए रूप का प्रकटीकरण है। इसमें पत्रकार भी वैश्‍वीकरण और राष्‍ट्रवाद को लेकर बहुत भ्रमित नजर आ रहे हैं।

जिस तरह कुछ साल पहले पत्रकारों पर वैश्‍वीकरण का भूत सवार था उसी तरह आज उन पर राष्‍ट्रवाद का भूत सवार है। आप किसी भी संपादक या पत्रकार से बात कर लें, उसके पास लिटमस टेस्‍ट किट हमेशा मौजूद है और वह तत्‍काल तय करने लगता है कि आप देशभक्‍त हैं या देशद्रोही…

कोई भी आज इससे परे जाकर मानवतावादी होने या सच्‍चे वैश्‍वीकरण की बात नहीं करता। गांधी ने एक बात कही थी कि जिस तरह हम परिवार के लिए व्‍यक्तिगत हितों को बलिदान करते हैं, देश के हितों के लिए राज्‍य के हितों को और दुनिया के हितों के लिए देश के हितों को कुर्बान करते हैं, वही सच्‍चे मायने में देशभक्‍त या विश्‍वमैत्री की भावना है।

चर्चा की शुरुआत करते हुए गांधीवादी कश्‍मीर उप्‍पल ने कहा कि ‘इकॉनामिक्‍स‘ यूनानी शब्‍द है जिसका अर्थ है परिवार का प्रबंधन और केवल गांधी ही थे जिन्‍होंने इकॉनामिक्‍स को परिवार के प्रबंध के रूप में जाना, पहचाना और उसे क्रियान्वित करने का प्रयास किया।

हम मार्क्‍स और गांधी को अक्‍सर वैचारिक रूप से परस्‍पर विरोधी मान लेते हैं, लेकिन जनकल्‍याण के मुद्दे पर दोनों में कई जगह समानता दिखाई देती है। मार्क्‍स जब मशीन की परिभाषा देते हैं, तो उसमें गांधी का अक्‍स साफ साफ दिखाई देता है।

गांधी का जिक्र करते हुए आज कहा जाता है कि वे भी उद्योगपतियों के साथ खड़े होते थे। लेकिन ऐसी तुलना करते समय हम कई बातों को भूल जाते हैं। महत्‍वपूर्ण यह नहीं है कि आप किसके साथ खड़े हैं, बल्कि महत्‍वपूर्ण यह है कि आप किसके पक्ष में खड़े हैं। जब हम इस संदर्भ में देखेंगे तो गांधी और आज के समय का अंतर हमें साफ नजर आ जाएगा।

रजनी बख्‍शी ने कहा कि देश के वर्तमान हालात में हम जो कुछ कर पा रहे हैं वह तिनके से भी कम लगता है। गांधीजी का मानना था कि जब तक हमारी अर्थव्‍यवस्‍था मानवसमूह की ओर नहीं लौटती वह सार्थक नहीं हो सकती। किसी भी टेक्‍नोलॉजी का चेहरा तो बड़ा लोकतांत्रिक होता है, लेकिन उसके पीछे पूरा खेल ताकत और पूंजी का होता है।

इस सत्र का सबसे महत्‍वपूर्ण वक्‍तव्‍य चिन्‍मय मिश्र का था जिन्‍होंने बच्‍चों के संदर्भ में बहुत गहराई के साथ अपनी बात रखी… उस पर कल बात करेंगे… (जारी)

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