गांधी और चरखा अब सिर्फ राजनीतिक उत्‍पाद भर हैं

गांधी को इस देश ने कभी नकारा नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति ने हमेशा उनका अवसरानुकूल इस्‍तेमाल जरूर किया है। जरूरत पड़ी तब गांधी सिर पर उठा लिए गए और जब जरूरत महसूस नहीं हुई तब उन्‍हें ऐसे बिसरा दिया गया जैसे वे सिर्फ और सिर्फ भारत के राजनीतिक इतिहास के म्‍यूजियम में रखने की वस्‍तु हों। भारत की राजनीति जैसे जैसे बदलती गई, गांधी को समझना उतना ही जटिल और दुरूह होता गया। गांधी कुछ गिनी चुनी बातों के लिए ही याद किये जाते रहे। उनका बाकी अवदान पुरातात्विक महत्‍व की सामग्री बनकर रह गया।

गांधी, चरखा और नरेंद्र मोदी के ताजा ‘कैलेण्‍डर-डायरी’ विवाद में वाट्सएप पर हाल ही में आए दो अलग अलग संदेशों ने गांधी के इसी ‘पुरातात्विक महत्‍व’ को लेकर मेरा ध्‍यान खींचा। एक संदेश प्रदेश के जनसंपर्क विभाग में अतिरिक्‍त संचालक रहे रघुराजसिंह ने मुझे भेजा। इसमें गांधी और चरखे को लेकर बहुत ही रोचक प्रसंग का जिक्र है। प्रसंग कुछ यूं है-

युवा सितार-वादक विलायत खान गाँधी को अपना सितार सुनाना चाहते थे। उन्होंने पत्र लिखा तो गाँधी ने उन्हें सेवाग्राम बुलाया। विलायत खान सेवाग्राम आश्रम पहुंचे तो देखा गांधी बकरियों को चारा खिला रहे थे। थोड़ी देर के बाद गाँधी आश्रम के दालान में रखे चरखे पर बैठ गये और विलायत खान से कहा – सुनाओ…

गाँधी चरखा चलाने लगे, घरर… घरर की ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी। असमंजस में पड़े युवा विलायत खान सोच रहे थे कि इस महात्मा को संगीत सुनने की तमीज़ तक नहीं है। फिर भी वे अनमने ढंग से सितार बजाने लगे, महात्मा का चरखा भी चालू था, घरर… घरर… घरर… घरर…

विलायत खान ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि थोड़ी देर बाद लगा जैसे महात्मा का चरखा मेरे सितार की संगत कर रहा है या मेरा सितार महात्मा के चरखे की संगत कर रहा है। चरखा और सितार दोनों एकाकार थे और यह जुगलबंदी कोई एक घण्टा चली। वातावरण स्तब्ध था और गांधीजी की बकरियाँ अपने कान हिला-हिला कर इस जुगलबन्दी का आनन्द ले रही थीं।

विलायत खान लिखते हैं कि सितार और चरखे की वह जुगलबंदी एक दिव्य-अनुभूति थी और ऐसा लग रहा था जैसे सितार सूत कात रहा हो और चरखे से संगीत निसृत हो रहा हो!

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सोशल मीडिया के जरिये मिला दूसरा संदेश भी चरखे से ही जुड़ा है जो मेरे पास कई समूहों से घूमता फिरता आया है इसलिए कह नहीं सकता कि मूल रूप से इसका लेखक कौन है। लेकिन यह संदेश गांधी और चरखे से जुड़े ताजा विवाद को अलग ही एंगल दे रहा है। इस कॉलम की सीमाओं को देखते हुए मैं इस संदेश के अहम हिस्‍से को यहां शेयर कर रहा हूं-

‘’चरखे के साथ छपी एक फोटो पर कितना बवाल हो रहा है। याद आता है कुछ साल पहले का किस्सा जब गांधी जी की कुछ चीजे जिनमें उनका चरखा, चश्मा और उनका खून लगी हुई घास आदि शामिल थी, लंदन में नीलाम हो रही थीं।

तत्‍कालीन सरकार (उस समय यूपीए शासन में था) ने इन चीजों को भारत लाने की कोई जहमत नहीं उठाई… और न ही उस नीलामी में हिस्सा लिया। और जब एक उद्योगपति कमल मोरारका गांधी जी का ये सारा सामान 2 करोड़ रुपए में खरीदकर भारत ले आये, तो सरकार ने उस पर 22 लाख रुपए का टैक्‍स वसूल लिया। जबकि उसी सरकार ने बाहर से लाई गई सचिन तेंदुलकर की फरारी कार पर किसी प्रकार का टैक्‍स नहीं लगाया!’’

(इसके बाद पोस्‍ट में बहुत सी बातें खादी, गांधी और उससे जुड़ी राजनीति को लेकर कही गई हैं।) पोस्‍ट का अंत इन वाक्‍यों से हुआ है-

‘’चरखे की ईजाद बापू ने नहीं की थी, और ऐसा भी नहीं था कि गांधी जी से पहले इस देश में चरखा नहीं काता गया। न ही चरखे के साथ फोटो खिंचवाने से कोई मोदी महात्मा गांधी बन पाएगा।‘’

‘’बापू ने स्वदेशी वस्त्रों को बढ़ावा देने के लिए इसका इस्तेमाल करना सिखाया। देश को स्वावलंबी बनाना उनका उद्देश्य था। मोदी का चरखे के साथ फोटो लगाने से अगर खादी को बढ़ावा मिलता है तो उसमें हर्ज ही क्या है… कोई इंसान अगर गीता के उपदेशों को फैला कर उसे जन जन तक पहुंचाता है तो उसका अर्थ ये कैसे हुआ की वो कृष्ण भगवान की जगह खुद को प्रमोट कर रहा है।‘’

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सोशल मीडिया पर चल रहे ये दोनों किस्‍से भारतीय जन मानस में गांधी की स्थिति को बहुत अच्‍छी तरह बयां करते हैं। एक किस्‍सा चरखे और गांधी के संबंध को अध्‍यात्‍म की ‘अद्वैत’ अवधारणा की तरह स्‍थापित करता है, जबकि दूसरा किस्‍सा चरखे और गांधी के बीच सिर्फ और सिर्फ भौतिक रिश्‍ते को स्‍वीकारता है। पहले किस्‍से के केंद्र में गांधी और उनका विचार है, जबकि दूसरे किस्‍से के केंद्र में विचार नहीं चरखे से पैदा होने वाला उत्‍पाद है। जाहिर है आज की दृष्टि गांधी को एक उत्‍पाद की तरह देखने की है।

दूसरा किस्‍सा जिस दृष्‍टांत के साथ समाप्‍त हुआ है, उसे देखते हुए कोई आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए यदि दुरुत्‍साही भाई लोग थोड़े दिनों में गीतोपदेश के कैलेंडर में भी कृष्‍ण की जगह मोदीजी को स्‍थापित कर दें। क्‍योंकि यह सवाल तो उठा ही दिया गया है कि- ‘’कोई इंसान अगर गीता के उपदेशों को फैला कर उसे जन जन तक पहुंचाता है तो उसका अर्थ ये कैसे हुआ की वो कृष्ण भगवान की जगह खुद को प्रमोट कर रहा है।‘’

कल बात करेंगे उसकी, जिसने सुनाई थी गांधी को खरी खोटी…

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