डॉ. प्रदीप उपाध्याय
वे मन की बात करते चले आ रहे हैं और लोग भी हैं जो मन की बात में सहभागी बनते चले जा रहे हैं एवं उनके सामने अपने मन की बात रख भी रहे हैं। इधर हम हैं कि अपने मन की बात कभी किसी के सामने कह ही नहीं पाये या फिर कभी हमने मन की बात कहने की कोशिश भी की होगी तो या तो सामने वाले ने सुनना ही नहीं चाहा या फिर वे समझ ही नहीं पाये हों। यानि मन की बात मन में ही रही! यहाँ एक गीत भी उद्धृत करना समीचीन होगा-
“मेरी बात रही मेरे मन में, कुछ कह ना सकी उलझन में।
मेरे सपने अधूरे हुए नहीं पूरे, आग लगी जीवन में।
निःसंदेह जो मन में आता है वह कह देना चाहिए किन्तु यह भी विचार आता रहा है कि मन की बात कहने के लिए क्या मन का सच्चा होना जरूरी है! नहीं न, तभी तो प्रेयसी को खुश करने के लिए जब यह कहा जाता रहा कि मैं तुम्हारे लिए चाँद-तारे तोड़कर ला दूंगा या फिर कि मैं तुम्हारे लिए ताजमहल बनवा दूंगा, तो निश्चित रूप से यह बेमन की बात ही रही होगी तथापि यदि कहने वाले के लिए बेमन की बात रही होगी तो सुनने वाले के लिए यह मन की ही बात रही होगी।
आज के समय में चाँद-तारे, ताजमहल के ख्वाब बेमानी से हो गए हैं, दूध पीते बच्चे को भी इससे बहलाया नहीं जा सकता! सभी एक-दूसरे की औकात जानने-समझने लगे हैं, कल्पना लोक सभी एक दूसरे को दिखाते हैं और सपनों में हर कोई उसमें विचरण भी करता है। ऐसे में मन की बात कहना-सुनना साधारण बात तो नहीं है! मन की बात तो यही है कि जो दिल में हो वही जुबान पर भी हो, लेकिन ऐसा होता कहां है! कहने को किसी शायर ने कहा भी है कि-
“जब भी हो थोड़ी फुरसत, मन की बात कह दीजिए
बहुत खामोश रिश्ते, ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रहते”
मन की बात कहना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि इसमें अपनी खुशी के साथ सामने वाले की खुशी का भी ध्यान रखना पड़ता है। कभी कभी आपका अपना मन रो रहा हो परन्तु सामने वाले को हँसाने के लिए उसके मन मुताबिक बात करना पड़ती है अर्थात अपनी तो बेमन की बात हो गई ना! सामने वाला नाराज न हो जाए, आपके मन में नाराजगी है फिर भी जाहिर सी बात है कि उसकी प्रसन्नता के लिए बेमन से ही सही दिल खुश करने वाली बात करेंगे और अपनी ओर से दोहरायेंगे भी कि यह दिल की यानि मन की बात है। हमारे मन की बात ऐसी भी हो सकती है कि-
“जो तुमको हो पसन्द वही बात कहेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे”
सीधी सी बात है कि जो बात मन में आती भी है तो कई बार देश, काल, परिस्थिति उसे कहने से रोक देती है और खामोश रह जाना पड़ता है। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई बात कहने का मन नहीं है फिर भी सामने वाला उसे कहने के लिए बार-बार उकसा रहा है, देश, काल, परिस्थति भी इसके समर्थन में है तो बात कहना ही पड़ती है लेकिन यह बेमन से कही गई बात, मन से कही गई बात ही मानी जाएगी।
इसीलिए मैं अभी तक इस गफलत में ही हूँ कि मन की बात कहूँ या बेमन की बात कहूँ या फिर खामोश ही रह जाऊँ या फिर थ्री इडियट्स की तरह मुझे मन का ही करना चाहिए, किसी दबाव या लोभ में न रहूँ!