प्रवेश से परीक्षा तक सब कुछ ले देकर तय हो जाता है

केंद्र में जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्‍व वाली सरकार आई थी तो यह संभावना जताई जा रही थी कि यह सरकार शिक्षा के क्षेत्र में कुछ आमूल चूल परिवर्तन करेगी और इसे रोजगारमूलक बनाने के सार्थक प्रयास होंगे। ऐसा इसलिए भी सोचा जा रहा था क्‍योंकि राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम करता आ रहा है।

लेकिन मोदी सरकार भी किताबों से नेहरू और अकबर का नाम मिटाने जैसे छोटे राजनीतिक कर्मों में उलझ कर रह गई। सरकार में आने से पहले शिक्षा के बुनियादी ढांचे में बदलाव की जो बातें भाजपा और उसके वैचारिक सर्कल में कही जाती थीं वे जमीन पर नहीं उतर पाईं। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसी साल जून में कहा था कि नई शिक्षा नीति का अंतिम मसौदा तैयार है और नीति को साल के अंत तक लागू कर दिया जाएगा।

साल का अंत होने को है और ऐसा कतई नहीं लगता कि इस सरकार के रहते नई शिक्षा नीति लागू हो पाएगी। दरअसल शिक्षा का मसला मोदी सरकार की प्राथमिकता में रहा हो, ऐसा दिखाई नहीं दिया। और केंद्र की सरकारों की ही बात क्‍यों करें, राज्‍यों में भी शिक्षा को लेकर बुनियादी बदलाव, नवाचार या आधुनिकीकरण के प्रति उदासीनता ही दिखाई देती है।

राजनीति और सरकारों के लिए शिक्षा का महत्‍व इतना ही है कि मंत्रिमंडल में स्‍कूल शिक्षा और उच्‍च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और चिकित्‍सा शिक्षा जैसे विभागों के लिए मंत्री बना दिए जाएं। इन मंत्रियों की रुचि भी सिर्फ शिक्षण संस्‍थानों में तबादले करने, अपनी चहेती संस्‍थाओं को अनुदान दिलवाने और अपने चहेतों या परिजनों के नाम पर स्‍कूल कॉलेज खुलवाने तक सीमित रहती है। और तबादलों के पीछे की ‘असली कहानी’ क्‍या है यह न तो बताने की जरूरत है, न किसी से छिपा है।

यही कारण है कि शिक्षा का स्‍तर लगातार गिर रहा है और उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त करने के बाद भी युवा नौकरियों के लिए भटक रहे हैं। बात बुरी लग सकती है लेकिन सरकारों में शिक्षा का हश्र क्‍या होगा इसका पता मंत्रियों के शपथ समारोह से ही चल जाता है। छत्‍तीसगढ़ में हाल ही में हुए शपथ ग्रहण समारोह में एक मंत्री के लिए राज्‍यपाल को पूरी शपथ पढ़ना पड़ी। इसी तरह मध्‍यप्रदेश में भी ज्‍यादातर मंत्री शपथ का हिन्‍दी में लिखा मजमून भी ठीक से नहीं पढ़ पाए।

अब जो लोग अपनी मातृभाषा में लिखी चार लाइनें ठीक से न पढ़ पा रहे हों उनसे आप क्‍या अपेक्षा कर सकते हैं कि वे शिक्षा के क्षेत्र में कोई क्रांतिकारी बदलाव लाएंगे? ऐसे में होता वही है जो बरसों से होता आया है, यानी नौकरशाही अपने हिसाब से मंत्रियों को चलाती और नचाती रहती है। समस्‍या के समाधान में किसी की रुचि नहीं है, अलबत्‍ता समस्‍या बनाए रखने में सभी का हित इस मायने में है कि, जब तक समस्‍या हल नहीं होगी उसे हल करने के नाम पर बजट लिया जाता रहेगा।

एक बार जब शिक्षा की बीट देखने वाले मेरे रिपोर्टर ने मुझे बताया कि अकेले भोपाल में ही इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्‍या 80 से ज्‍यादा है तो मुझे सहसा विश्‍वास नहीं हुआ। फिर मैंने उससे पूछा कि इतने सारे कॉलेजों के लिए छात्र तो ठीक हैं लेकिन उन छात्रों को पढ़ाने के लिए फेकल्‍टी कहां से आती होगी। रिपोर्टर ने बताया कि अलग से फेकल्‍टी की जरूरत ही नहीं है, सीनियर छात्र जूनियर छात्रों को पढ़ा देते हैं।

मुझे खुद कुछ साल पहले इस बात का अनुभव हुआ। मुझे एक संस्‍थान ने एक निजी शिक्षण संस्‍था की मान्‍यता के सिलसिले में वहां के निरीक्षण के लिए भेजा। इंदौर शहर के एक व्‍यस्‍त मार्केट में बहुमंजिला इमारत के एक फ्लोर पर उस कॉलेज को स्‍थापित होना बताया गया। मैंने जाकर देख तो दंग रह गया। कुछ कमरे थे जिन्‍हें जोड़ तोड़ कर क्‍लास रूम के रूप में दिखाया गया। साफ लग रहा था कि वहां न तो छात्रों के ठीक से बैठने का कोई जरिया हो सकता है और न किसी शिक्षक के पढ़ाने का।

क्‍लास रूम से आगे जब मैंने फैकल्‍टी के बारे में बात की तो कुछ नई उम्र के लड़के लड़कियों को मेरे सामने यह कहते हुए खड़ा कर दिया गया कि ये हमारे फैकल्‍टी मेंबर हैं। उन लोगों से जब मैंने उनके विषयों पर बात करना शुरू किया तो किसी को कुछ भी पता नहीं था। कई तो ऐसे निकले जिनका खुद का फायनल रिजल्‍ट अभी नहीं आया था। मुझसे कहा गया कि जब तक संस्‍था चालू होगी इनका‍ रिजल्‍ट आ जाएगा।

जाहिर है मैंने उस संस्‍था को मान्‍यता नहीं देने की सिफारिश की। लेकिन मैं देखता हूं कि ऐसी कई संस्‍थाएं बाकायदा उच्‍च शिक्षा केंद्रों के रूप में धड़ल्‍ले से संचालित हो रही हैं। वे ग्रेजुएट से लेकर पोस्‍टग्रेजुएट डिग्री और डिप्‍लोमा के कोर्स करा रही हैं। उनके रजिस्‍टर में आपको छात्रों के नाम दर्ज मिलेंगे लेकिन आप वहां औचक निरीक्षण कर लें तो न छात्र वहां होते हैं न शिक्षक। कोर्स वर्क, प्रेक्टिकल, परीक्षा सब कुछ ‘ले देकर’ संपन्‍न हो जाता है।

छात्रों को बस डिग्री या डिप्‍लोमा चाहिए। किसी भी कीमत पर चाहिए। और छात्रों की इसी जरूरत का फायदा उठाकर कुकुरमुत्‍ते की तरह उग आए हजारों संस्‍थान गली मोहल्‍लों में शिक्षा की दुकान के रूप में संचालित हो रहे हैं। आपको सुनने में ताज्‍जुब हो सकता है, लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि कहीं आपको चार कमरों में कोई इंजीनियरिंग कॉलेज भी चलता मिल जाएगा। और हो सकता है जो लड़का ठीक से न अंग्रेजी में न हिन्‍दी में ‘इंजीनियरिंग’ शब्‍द लिख पाता हो, वह वहां फैकल्‍टी के रूप में ‘नौकरी’ करता मिले। (जारी)

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