गिरीश उपाध्याय
शुक्रवार को जब टीवी चैनलों पर मुंबई में हुई भारी बारिश के कारण चारों तरफ पानी ही पानी के दृश्य दिखाए जा रहे थे, तो मुझे पिछले साल चैन्नई में आई बाढ़ याद आ गई। चैन्नई में हुई भारी बारिश ने इस महानगर को तहस नहस कर दिया था। एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने उस बाढ़ के कारण 13350 करोड़ रुपए की संपत्ति की क्षति का अनुमान लगाया था। उस दौरान तमिलनाडु में भारी बारिश के चलते करीब 300 लोगों की मौत हुई थी और लगभग डेढ़ लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे। संचार के तमाम संसाधनों से लैस होने का दावा करने वाले इस शहर में कई लोग घरों में कैद होकर रह गए थे और अच्छा खासा पैकेज पाने वाले लोग दाने दाने को तरस गए थे। चारों तरफ पानी जरूर था, लेकिन पीने के लिए एक गिलास पानी भी मुश्किल से मिल पा रहा था।
चैन्नई की बाढ़ के बाद देश में शहरी नियोजन को लेकर बहस का एक तात्कालिक उफान आया था। लेकिन जैसे ही वहां से बाढ़ का पानी उतरा, वह बहस भी ठंडी पड़ गई। मुंबई में शुक्रवार को जो हालात दिखाए गए, वैसे हालात वहां करीब करीब हर बारिश में बनने लगे हैं। कुछ वर्ष पूर्व अहमदाबाद में आई बाढ़ ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया था।
हालांकि ये सारी कहानियां उन शहरों की हैं जो समुद्र या नदियों के किनारे बसे हैं। लेकिन जलभराव अब करीब करीब हर शहर की समस्या बन गया है। मौसम के बदलते तेवरों के साथ साथ, इंसानी हरकतों ने इस आपदा को और अधिक गंभीर बना दिया है। पानी की निकासी के तमाम रास्तों को खत्म कर देने की प्रवृत्ति ने शहरों के सामने ऐसा संकट खड़ा किया है कि जिसका हल निकलना मुश्किल नजर आ रहा है। पिछले दिनों हमने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी ऐसे ही हालात देखे थे।
दरअसल एक तरफ देश में ‘स्मार्ट सिटी’ का जाल बिछाने की बातें चल रही हैं तो दूसरी तरफ बुनियादी ढांचे की अनिवार्य जरूरत नालियां और नाले तक खत्म किए जा रहे हैं। शहरी क्षेत्र में जमीन की भूख इतनी बढ़ गई है कि पानी की निकासी के तमाम रास्ते अतिक्रमण और वहां होने वाले मनमाने निर्माण का शिकार हो रहे हैं। इन निर्माणों ने शहरी क्षेत्रों की पूरी मलजल व्यवस्था को ही ध्वस्त कर दिया है। प्राकृतिक रूप से पानी के बहाव के सारे रास्ते एक-एक करके बंद किए जा रहे हैं। देश के शहरीकरण के सामने यह मसला बहुत बड़े खतरे के रूप में खड़ा हो रहा है।
मैंने इसी कॉलम में कुछ दिन पहले लिखा था कि बारिश शुरू होने से पहले देश के कई भागों में बूंद-बूंद पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था और विडंबना देखिए कि चौतरफा अच्छी बारिश होने के बावजूद, हमारी ही आपराधिक मनोवृत्ति के चलते, नौबत यह आ गई है कि कई इलाकों में बाढ़ से घिरे लोगों के लिए पीने के पानी की बोतलें गिराना पड़ रही हैं। यानी हमने तय ही कर लिया है कि पहले अपने ही हाथ से अपनी किस्मत फोड़ेंगे और फिर फूटी किस्मत पर धाड़े मार कर रोएंगे भी…
ज्यादा पुरानी बात नहीं हुई है, जब हम बूंद बूंद पानी को सहेजने की चिंता कर रहे थे और आज इस बात की चिंता कर रहे हैं कि ये जो पानी हमारी चौखट को पार करता हुआ खुद ही चलकर हमारे घर आ गया है, उसे बाहर कैसे निकालें। अच्छी बारिश को लेकर मौसम विभाग की भविष्यवाणियां इस बार सच होती लग रही हैं। लेकिन अच्छी बारिश न होने पर फूटी किस्मत का रोना रोने वाले हम लोग, क्या अच्छी बारिश को झेलने के लिए तैयार भी हैं?
मानसून शुरू होने के बाद देश के बहुत बड़े भूभाग में करोड़ों अरबों लीटर पानी बरस चुका होगा। लेकिन उसे सहेजने का कोई इंतजाम दिखाई नहीं देता। प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र के एक गीत की पंक्तियां है- ‘’बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आंचल ही न समाए तो क्या कीजै…’’ ठीक वही स्थिति है। देने वाला इस बार हमारी झोली में भरपूर देना चाहता है, लेकिन असलियत यह है कि हमारे आंचल में उसकी सौगात को झेलने की औकात ही नहीं बची है।
माना कि चंद घंटों में यदि कई इंच बारिश हो जाए या बादल फटने जैसी स्थिति बने तो हालात को संभालना संभव नहीं होता, लेकिन इस बार हर जगह बादल तो नहीं फट रहे। चेतावनी भारी बारिश की थी और वही हो रही है। यह कोई असामान्य बारिश नहीं है। ऐसा पानी पहले भी बरसता रहा है। मुश्किल यह है कि हम ही ऐसे पानी का बरसना भुला चुके हैं, इसीलिए न तो ऊपर वाले की इस नेमत को सहेज पा रहे हैं और न ही खुद को बचा पा रहे हैं। बारिश आने से पहले, तैयारी के नाम पर हम भरी गरमी में बाढ़ नियंत्रण कक्ष बना देते हैं, यह सोचकर कि बाढ़ आनी तो है नहीं, कक्ष बनाने की औपचारिकता पूरी करने से क्यों चूकें। और नतीजा यह होता है कि सचमुच में आ जाने वाली बाढ़ हमारे चड्ढी बनियान भी बहाकर ले जाती है। शायद हम उसके बाद बनने वाली स्थिति के ही लायक हैं…