कोरोना काल और उसके बाद का मीडिया

जयराम शुक्ल

कोरोना के लॉकडाउन ने जिंदगी को नया अनुभव दिया है, अच्छा भी बुरा भी। जो जहां जिस वृत्ति या कार्यक्षेत्र में है उसे कई सबक मिल रहे हैं और काफी कुछ सीखने को भी। ये जो सबक और सीख है यही उत्तर कोरोना काल की धुरी बनेगी। ‘बाइ सेपियन्स-ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ हम्यूमनकाइंड’ के लेखक इतिहासकार युवाल नोआह हरारी भी मानते हैं कि कोविड-19 संक्रमण से लड़ने के लिए दुनिया भर के लोग और सरकारें जो रास्ता चुनेंगी वह आने वाले सालों में हमारी दुनिया को बदल देगा।

कोरोना भविष्य में कालगणना का एक मानक पैमाना बनने वाला है। हमारे पंचाग की कालगणना सृष्टि के आरंभ से प्रारंभ हुई जिसमें सतयुग, त्रेता, द्वापर के बाद कलियुग के युगाब्‍द, सहस्त्राब्‍द हैं। सभी धर्मों/पंथों ने अपने हिसाब से कैलेंडर बनाए। हमारे धर्म में शक और विक्रमी संवत होता है। क्रिश्चियन्स अपनी कालगणना क्राइस्ट के जन्म से शुरू करते हैं, जिसे हम बी.सी. और  ए.सी. यानी कि ईसा पूर्व, ईसा बाद के वर्षों के साथ गिनते हैं। मुसलमानों का कैलेंडर हिजरी है, यानी कि हजरत मोहम्मद के पहले और बाद के वर्ष।

अन्य धर्मों और पंथों के अपने-अपने कैलेंडर होंगे। लेकिन अब एक नया वैश्विक कैलेंडर प्रारंभ होगा, जाति, धर्म, पंथ, संप्रदाय से ऊपर उठकर। कोरोना का पूर्व व उत्तर काल। इसे हम ईसाई कैलेंडर के तर्ज पर बिफोर कोरोना यानी बी.सी और आफ्टर कोरोना यानी ए.सी कहेंगे। मुझे लगता है कि यह कोरोना संकट प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध से भी गहरा है।

नई दुनिया में भेदभाव व अविश्वास और भी गहरा होगा। विचार सिकुड़ेंगे लेकिन राष्ट्रवाद की भावना और प्रबल होगी। अब प्रवासियों के लिए कोई देश पहले की भाँति बाँहें फैलाए खड़ा नहीं मिलेगा। स्व, स्वदेशी और स्वाभिमान की भावना स्वमेव विकसित होगी।

कोरोना ने मानवता को जाति, धर्म, संप्रदाय, नस्ल, रंग, ढंग, भूगोल, इतिहास के कुँओं से निकालकर समतल पर ला खड़ा कर दिया। आज कांगो-सूडान जैसे भुक्‍खड़ देशों को अमीरजादे अमेरिका-इंग्लैंड की बराबरी में ला दिया है। कोरोना ने वसुधैव को सही अर्थों में एक कुटुम्बकम में बदल दिया। इसके त्रास से सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयः के समवेत स्वर उठने लगे हैं। परिस्थितियों को आंकने और देखने का एक नजरिया यह भी है।

कोरोना ने सोचने, विचारने और महसूस करने के लिए इफरात वक्त दिया है। वक्त थमता नहीं अपने निकलने का रास्ता ढूँढ लेता है। अपन मीडियावी दुनिया के आदमी हैं इसलिए पहले इसकी बात करते हैं। इस कोरोना काल में लिखना, पढ़ना और रचना वैसे ही है जैसे अभावों के बीच तिलक जैसों ने मंडाले जेल में लिखा, रचा था। पहली बार लगा कि छुट्टी भी एक सजा होती है। आराम और अवकाश अब चिढ़ाने वाले हैं।

मीडिया का रूपरंग। ढंग सब बदल गया। वर्क फ्राम होम का पहला विचार यहीं से शुरू होता है। इन दिनों घर बैठे जूम ऐप के जरिए वेबिनार संगोष्ठी में हिस्सा ले रहे हैं। तो कभी कभार चैनल वाला स्काइप के जरिए जोड़कर लाइव कमेंट ले लेता है। बिस्तर पर लेटे-बैठे यह सब मनबहलाऊ अंदाज में हो रहा है। इसे आप मीडिया के काम का कोरोनाई अंदाज भी कह सकते हैं।

24×7 वाले मीडिया को हर क्षण की खबर चाहिए। आँधी-तूफान, बाढ़-बूड़ा, महामारी, प्रलय कुछ भी हो पर इनके बीच से ही खबरें निकालनी पड़ेगी। मेरा अनुमान है कि कल्पित प्रलय के समय भी आखिरी व्यक्ति मीडियावाला ही रहेगा जो उफनाते समंदर की कश्ती पर बैठकर अपने चैनल के लिए लाइव दे रहा होगा। इसके बावजूद विरोधाभास भरी त्रासदी यह कि जो मीडिया चौबीसों घंटे दुनिया भर की खबरें उगल रहा है, उस मीडिया में मीडिया और मीडियावालों की खबरें कहीं नहीं आतीं।

सड़क, मैदान, अस्पतालों और क्वारंटाइन होम्स से जो खबरें निकाल कर आप तक पहुँचा रहे हैं, क्या वे कोरोना संक्रमण से बचे होंगे? जी नहीं, कुल कोरोना संक्रमितों में से कुछ हजार लोग मीडिया के भी हैं। लेकिन इन अभागों की खबरें हम तक नहीं पहुँचतीं। जो अखबार यह दावा करते हैं कि हम खबरें बाँटते हैं कोरोना नहीं, क्या उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे अपने किसी कर्मचारी की कोरोना संक्रमण की खबरें दें या दिखाएं?

इसलिए उन अभागों को भी उसी श्रेणी में मानकर चलिए जिस श्रेणी में जान हथेली में लिए सड़कों पर मंजिल नापने वाले श्रमिक। सही बात यह कि कई चैनलों और अखबारों के मीडियाकर्मी संक्रमण की जद में हैं। मीडिया समूह के प्रबंधन ने उनसे दूरी बना ली है। साफ साफ कहें तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया है। महानगरों के बड़े अखबार समूह कोरोना को एक अवसर मानकर समय को भुना रहे हैं। प्रायः ऐसे सभी समूहों का मीडिया से समानांतर उद्योग धंधा है। फिलहाल वे उसी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं।

मीडिया में नौकरी से वो लोग भी निकाले जा रहे हैं जो संक्रमित नहीं हुए। 22 मार्च के बाद से अबतक पूरे देशभर के मीडिया समूहों ने लगभग 20 से 25 प्रतिशत कर्मचारियों की छँटनी कर दी। ऊँची तनख्वाह वाले पत्रकारों की सैलरी में 30 प्रतिशत तक की कटौती की जा चुकी है। संपादक श्रेणी के ऐसे पत्रकारों की बड़ी संख्या है जिन्हें कहीं दूसरी नौकरी ढूँढने के लिए कह दिया गया है।

कुलमिलाकर मीडियाजगत में वैसे ही हाहाकार है जैसे कि सड़क पर मजदूरों का, फर्क इतना है कि मजदूरों की व्यथा सामने आती है और मीडियावालों की व्यथा उनका मीडिया प्रतिष्ठान ही हजम कर जाता है। भूखे सड़क पर वो मजदूर भी हैं और भूखे अपने घरों में ये विपत्ति के मारे मीडियाकर्मी भी।

भोपाल के एक मित्र ने सूचना दी कि यहां दो दर्जन से ज्यादा ऐसे पत्रकार हैं जिनकी नौकरी इस कोरोना काल में चली गई। इनमें से कई प्रतिभाशाली उदयीमान पत्रकार हैं, वे चाहते तो दूसरी नौकरी भी कर सकते थे, लेकिन जुनून के चलते पत्रकारिता को अपना कॅरियर बनाया। इनमें से प्रायः के पास मकान का किराया देने की कूबत नहीं बची। कई के घर का चूल्हा एनजीओ या सरकार द्वारा बाँटे गए राशन से जलता है।

कुछ दिन बाद चूल्हे का ईंधन भी खतम हो जाएगा। भोपाल, इंदौर जैसे प्रादेशिक महानगरों में दूसरे प्रांत से आकर काम करने वाले मीडयाकर्मियों की बड़ी संख्या है। जो दस साल पहले आए थे उनकी गिरस्ती तो कैसे भी जमी है, पर जो इस बीच आए उनका तो भगवान ही मालिक। संस्थानों ने किनाराकशी की और सरकार को ये कभी सुहाए नहीं, सो उनपर कृपा का प्रश्न ही नहीं उठता।

भोपाल-इंदौर जैसी ही व्यथा देश भर के उन शहरों की है जहां मीडिया उद्योग फला-फूला और उनके मालिकों ने उसकी कमाई की बदौलत माल-सेज, उद्योग और कालोनियाँ खड़ी कीं। एक मीडिया बेवसाइट है। भड़ास फार मीडिया। जो देशभर के पत्रकारों के दुखदर्द की कथा सुनाती रहती है। इन दिनों पत्रकारों की विपदा से जुड़े एक से एक दुखद किस्से सुनने को मिलते हैं, आप भी उसके लिंक को खोलकर पढ़ें कभी।

प्रिंट माध्यम से जुड़े पत्रकारों की जिंदगी और उनके भविष्य की पूछ परख करने वाला नहीं। हमारे प्रधानमंत्री एक ओर यह घोषणा करते हैं कि निजी क्षेत्र के उद्यम कोरोना काल में न तो किसी की छँटनी करेंगे और न ही वेतन रोकेंगे। लेकिन अखबार समूह घोषित तौर पर, डंके की चोट पर, नौकरियां भी छीन रहे हैं और वेतन भी काट रहे हैं। पत्रकारों के श्रमजीवी संगठन कबके मर चुके हैं और प्रेस कौंसिल आफ इंडिया अपने पैदाइश काल से ही नखदंत विहीन है। पत्रकार भी इस धरती का मनुष्य और वोटाधिकारी आदमी है जिसका वोट सरकार बनाने-बिगाड़ने के काम आता है। पर सरकार के रुख और उसकी वरीयता को देखते हुए ऐसा नहीं लगता।

हिंदी की पत्रकारिता तो अपने जनम से ही दुख-दरिद्रता से भरी रही है। हिंदी के जो स्वतंत्र पत्रकार हैं, स्तंभ व आलेख लिखते हैं वह ‘स्‍वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ नहीं। अपितु खुद के जिंदा रहने के सबूत के लिए लिखते हैं। हिंदी पत्रकारिता का विचार पक्ष ‘थैंक्यू सर्विस’ में चलता है। इस श्रेणी में प्रायः भूतपूर्व संपादक प्रजाति के लोग होते हैं जिनका खाना खर्चा बीबी-बच्चे उठाते हैं, सो इनका तो कैसे भी चल जाता है। चिंता का विषय हिंदी पत्रकारिता की नई पौध को लेकर है। जिसके ख्वाबों-खयालों की दुनिया को इस कोरोना ने पलक झपकते ही बदलकर धर दिया।

उत्तर कोरोना काल की मीडिया का अक्‍स स्पष्ट होने लगा है। प्रिंट मीडिया का दायरा जिस गति से सिकुड़ रहा है, हालात ठीक होने के बाद भी वह अपने पुराने रूप में आएगा मुश्किल ही लगता है। इन दो महीनों ने पाठकीय आदत बदल दी है। अब बिना अखबार की सुबह असहज नहीं लगती। प्रिंट कापियाँ सिर्फ बड़े अखबारों की ही निकल रही हैं। मध्यम दर्जे के अखबार फाइल कॉपियों तक सिमट गए।

पुल आउट पत्रिकाएं और विशेषांक शीघ्र ही इतिहास में दर्ज हो जाएंगे। पृष्ठ संख्या आधे से भी कम हो गई। इनका भी पूरा फोकस अब डिजिटल अखबार निकालने पर है। कागज, स्याही और मैनपॉवर की कमी ने पहले ही लघु अखबारों को डिजिटल में बदल रखा था। जिनका सर्कुलेशन वाट्सएप ग्रुप्स और एफबी प्लेटफार्म तक सीमित हो गया।

अखबारों के समक्ष विज्ञापन का घोर संकट है। विज्ञापन की शेयरिंग दिनोंदिन घट रही है। डिजिटल मीडिया का दायरा सात समंदरों से भी व्यापक है। विज्ञापन की हिस्सेदारी का लायनशेयर अब इनके पास है। विदेश का डिजिटल मीडिया भी देसीरूप धर के प्रवेश कर चुका है। वह तकनीकी तौर पर ज्यादा दक्ष और पेशेवर है। डिजिटल मीडिया में जाने वाले मेनस्ट्रीम के अखबारों के समक्ष यह बड़ी चुनौती होगी।

खबरें शीघ्रगामी तो हुई हैं लेकिन उनकी विश्वसनीयता नहीं रही। आने वाले समय में पाठक का सबसे ज्यादा पराक्रम इसी पर खर्च होगा कि वह जो पढ़ रहा है, वह सत्य है कि नहीं। सत्य की परख करने वाले तंत्र का मीडिया में वर्चस्व बढ़ेगा।

कुलमिलाकर जब हम कोरोना संकट से निवृत्त होंगे, तब तक जो पत्रकार हैं, उनमें पचास फीसद, वृत्ति से पत्रकार नहीं रह जाएंगे। मध्यम और लघु अखबार अपने पन्ने डिजिटली छापेंगे और वाट्सएप पर पढ़वाएंगे। बड़े समूह के कुछ अखबार बचेंगे, लेकिन उनकी वो धाक नहीं रहेगी, जिसकी बदौलत वे अबतक सत्ता के साथ अपना रसूख दिखाते आए हैं। कोरोना समदर्शी है। वह राजा और रंक में भेद नहीं करता।

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