प्याज और आंसू का रिश्ता मुहावरे के हिसाब से शरीर और आत्मा का है। जैसे अध्यात्म कहता है कि हमारा शरीर एक छिलका है, उसमें असली तत्व तो आत्मा है। ठीक वैसा ही मामला प्याज का भी है। वहां शरीर के नाम पर केवल छिलका ही है। प्याज के प्याज होने का महत्व ही उसमें बसे ‘आंसू’ के कारण है। अगर प्याज के साथ आंसू नत्थी न होते तो पता नहीं प्याज का क्या होता।
इसी प्याज ने इन दिनों प्रदेश के किसानों का छिलका उतार रखा है और आंसू के रूप में उनका दर्द सड़कों पर बिखरा पड़ा है। लागत मूल्य भी न मिल पाने के कारण प्याज उत्पादक किसानों के सामने, सिवाय इसके कोई चारा नहीं बचा, कि वे खून पसीने से तैयार हुई अपनी फसल को घूरे पर फेंक दें।
किसानों को इस दर्द में राहत पहुंचाने के लिए, मध्यप्रदेश सरकार आगे आई है। मुख्यमंत्री ने ऐलान किया है कि सरकार किसानों से 6 रुपए किलो के भाव से खुद प्याज खरीदेगी। मार्कफेड को प्याज खरीदी की जिम्मेदारी देते हुए, इसके लिए 64 मंडियाँ तय कर दी गई हैं। फौरी तौर पर सरकार की यह पहल स्वागत योग्य है। बशर्ते मुख्यमंत्री के इस ऐलान को प्रदेश की सरकारी मशीनरी समय रहते जमीन पर उतार पाए और किसानों को, सड़ जाने से पहले, उनकी प्याज की फसल का थोड़ा बहुत दाम मिल सके।
लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार आखिर कब तक इस तरह के फौरी उपाय करके किसानों को बहलाती रहेगी। क्या ऐसा कोई मैकेनिज्म विकसित नहीं किया जा सकता कि किसान की आंख में आंसू आएं ही नहीं। आखिर हम कब तक संकट के समय उस मेहनतकश समुदाय के सामने रोटी लेकर खड़े होते रहेंगे, जो किसी की दया पर निर्भर नहीं रहना चाहता। मुसीबत में हम उसकी फसल खरीद सकते हैं,लेकिन क्या हम उसके आंसुओं का मोल भी लगा सकते हैं? क्या हम उसके आंसुओं को खरीद सकते हैं?
यह कोई नई बात नहीं है कि कई सालों से किसान अपनी फसल का लागत मूल्य तक न मिल पाने की समस्या से जूझ रहा है। समय समय पर कई आयोग और विशेषज्ञ समूह अलग अलग तरीके से इसकी व्याख्या करते आ रहे हैं। लेकिन हम बीमारी की जड़ पकड़ने या उसका स्थायी इलाज करने के बजाय लाक्षणिक उपचार पर ही भरोसा कर रहे हैं। कभी उसकी फसल को खरीदने की बात होती है, तो कभी उसे शून्य ब्याज दर पर कर्ज देने की और कभी उसकी फसल का बीमा करने की। हम यह नहीं कहते कि ये उपाय नहीं होने चाहिए या इनकी कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन ये सारे उपाय समस्या के स्थायी समाधान की ओर ले जाने वाले नहीं हैं। किसान की मुख्य समस्या उसकी फसल का उचित मूल्य है और जब तक उसकी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं होती, हमारी कृषि व्यवस्था इसी तरह दया के टुकड़ों पर पलने को मजबूर बनी रहेगी।
और व्यवस्था की बात क्या करें? मध्यप्रदेश ने पिछले कुछ सालों में खेती किसानी के क्षेत्र में पूरे देश में झंडे गाड़े हैं। हमारे किसानों की बदौलत हमने कृषि उत्पादन के मामले में देश के कई नामी गिरामी राज्यों को पछाड़ते हुए, रेकार्ड कृषि विकास दर हासिल कर वाहवाही लूटी है। हम चार-चार बार राष्ट्रीय स्तर पर दिया जाने वाला कृषि कर्मण अवार्ड हासिल कर चुके हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि मौसम की आंख जरा सी टेढ़ी हो जाए, तो किसान के पास जान देने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता। और फसल यदि अच्छी हो जाए तो उसे सड़क पर फेंकने के अलावा कोई चारा नही रहता। क्या कृषि तंत्र का काम केवल कृषि कर्मण अवार्ड की वाहवाही लूट लेना भर है।
खुद मुख्यमंत्री ने कहा कि प्याज के मामले में यह स्थिति इसलिए बनी क्योंकि प्याज के दाम पिछले साल आसमान छू रहे थे तो किसानों ने इस बार आंख मूंद कर प्याज बो दिया। फसल इतनी बंपर आई कि अब उसका कोई खरीदार नहीं मिल रहा।
अब कोई जरा यह तो बताए कि क्या कृषि विभाग का राज्य की खेती किसानी में लगे लोगों से संवाद का कोई रिश्ता है भी या नहीं। चलिए मान लें कि किसान ने तो अपनी मूर्खता या लालच में आकर प्याज बो दिया होगा, लेकिन क्या उन्हें इसके खतरे से आगाह नहीं किया जा सकता था। और यह भी मान लें कि किसान ने मनमर्जी की और बंपर फसल हो गई, तो क्या कृषि एवं संबंधित विभागों को पहले से ही इसके लिए समुचित उपाय नहीं कर लेने चाहिए थे, कि यदि ऐसा होगा तो उतना प्याज कहां खपेगा? उसके भंडारण की क्या व्यवस्था होगी?
हम वैकल्पिक खेती के नाम पर किसानों को खाद्यान्न के अलावा सब्जियां और अन्य सामग्री उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, लेकिन यदि किसान ये फसलें ले भी ले, तो हमारा ढांचा उन फसलों की बंपर आवक को झेलने लायक नहीं है। यह ढांचा तो किसान नहीं बना सकता। यह मैकेनिज्म तो सरकारों को ही खड़ा करना होगा। वरना किसी साल प्याज सौ रुपए किलो बिकेगा तो किसी साल सड़क पर फिंकेगा। आंसुओं की फसल पर राहत के रूमाल हम कब तक बांटते रहेंगे?
गिरीश उपाध्याय