दंगल फ़िल्म में गीता फोगट का किरदार निभाने वाली जायरा वसीम द्वारा सोशल मीडिया पर माफी माँगने की खबर पूरे देश ने पढ़ी और सुनी। आम आदमी से लेकर क्रिकेट और कला जगत, हर क्षेत्र से उसके समर्थन में देश आगे आया लेकिन सरकार की ओर से किसी ठोस कदम का इंतजार केवल जायरा ही नहीं पूरे देश को है।
कैसे ज़ार ज़ार रोया होगा उसका दिल जब दुनिया को बदलने का जज्बा रखने वाली उम्र में उसने दुनिया से उस गुनाह की माफी मांगी होगी जो उसने किया ही नहीं?
मुठ्ठी भर असामाजिक तत्व अराजकता, भय एवं असुरक्षा का माहौल कैसे फैला लेते हैं? कब तक ‘आजादी’ के नाम पर आजादी का ही गला घोंटा जाएगा? कब तक धर्म के नाम पर लड़कियों के साथ भेदभाव होता रहेगा? कैसी विडम्बना है कि पर्दे पर एक दमदार किरदार को जीवंत करने वाली जायरा आज वास्तविक जीवन में बेबसी और लाचारी का प्रतीक बन गईं हैं।
वो लड़की जिसने 10 वीं की परीक्षा में 92% मार्क्स प्राप्त किए हों उसके द्वारा इस प्रकार माफी माँगना उसके लिए नहीं बल्कि पूरे देश के लिए शर्मनाक है। जिस ‘आज़ादी की लड़ाई’ के हिमायती इस्लाम के नाम पर उससे माफी मंगवा रहे हैं, न सिर्फ वे बल्कि उनका समर्थन करने वाले भी सोचें कि उनकी इस कायराना हरकत से ‘इस्लाम’ या फिर उनकी ‘लड़ाई’ दोनों ही किसी ‘बड़प्पन’ के नहीं केवल ‘कट्टरता’ का प्रतीक बनते जा रहे हैं।
शायद यह इन कट्टरपंथियों के भीतर का डर और कायरपन ही है जो सोच रहा है कि बुरहान वानी की जगह जब आज भारतीय सिविल सेवा में नाम कमाने वाले आईएस अधिकारी शाह फैजल हों या भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल परवेज रसूल या फिर जायरा, ऐसे लोग अगर देश की मुख्यधारा में शामिल होकर कश्मीरी युवाओं के रोल मॉडल बन जाएंगे तो वे पत्थर और बन्दूकें किसे हाथों में थमाएंगे।
नहीं तो क्या वजह है कि कथित आज़ादी की मांग करने वाले महिलाओं के संगठन दुख्तरान-ए-मिल्लत की महिलाओं के लिए कोई पाबंदी या फतवे नहीं हैं, लेकिन वहीं की महिलाएं अगर ‘प्रगाश’ नाम का एक म्यूजिकल बैंड बनाती हैं तो उन्हें इसी आजादी और इस्लाम के नाम पर उसे बन्द करना पड़ता है? आखिर क्यों मलाला यूसुफजई और तस्लीमा नसरीन जैसी महिलाओं को इस्लाम के नाम पर विरोध का सामना करना पड़ता है?
आज जरूरत इस बात की है कि पढ़े लिखे और सभ्य मुसलमान इस बात को समझें कि कुछ मुठ्ठी भर लोगों के सनकीपन से पूरी कौम बदनाम हो रही है। वे सभी एक होकर इन असामाजिक तत्वों का विरोध करें। ऐसा कौन सा धर्म है जो किसी रचनात्मकता का विरोध करना सिखाए? वो समाज कैसे आगे बढ़ सकता है जिसमें महिलाओं को अपनी आजादी के लिए संघर्ष करना पड़े?
जो लोग खुद सामने आए बिना सोशल मीडिया जैसे उदार माध्यम का दुरुपयोग ‘मज़लूम कौशर’ नाम का पेज बनाकर कट्टरता फैलाने में कर रहे हैं, उन्हें जनता इसी माध्यम पर हालांकि माकूल जवाब दे चुकी है, लेकिन यह जवाब असरदार तभी होगा जब इस पर ठोस सरकारी मुहर भी लगे। जिससे सरकार, कानून और प्रशासन नाम की कोई चीज़ है इसका अहसास न सिर्फ जायरा और पूरे देश को हो बल्कि इनकी ताकत का अंदाजा अलगाववादियों को भी हो।
यह समझ से परे है कि क्यों वहाँ की सरकार न तो अपनी आवाम को उनकी सुरक्षा का एहसास करा पा रही है और न ही अलगाववादियों को भय का। क्यों एक तरफ कश्मीर का आम आदमी डर के साए में जीने को मजबूर है तो दूसरी तरफ इन कट्टरपंथियों के हौसले इतने बुलंद हैं?