ऐसा नहीं है कि एंटी इन्कंबेंसी की हवा और तमाम सारे मुद्दों को लेकर महौल में भारी गरमी की चर्चाओं के बावजूद मतदान के प्रति लोगों में उदासीनता केवल मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के विधानसभा क्षेत्र बुधनी में ही दिखाई दी हो। यदि हम वोट डालने के लिए नहीं निकलने वाले लोगों के इस बार के और पिछली बार के आंकड़ों की तुलना करें तो प्रदेश के कई विधानसभा क्षेत्रों में हालात खराब ही मिलेंगे।
आप सोच रहे होंगे कि जब वोटिंग के हालात इतने खराब रहे हैं और पिछली बार की तुलना में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है तो फिर अंदाज कैसे लगाया जाए कि हवा का रुख किस ओर बहा। मैं भविष्यवक्ता तो नहीं हूं लेकिन इस मामले में बुधनी की ही तरह कुछ और विधानसभा क्षेत्रों की मतदान की स्थिति और वहां के आंकड़ों के हवाले से आपको कुछ संकेत भर दे सकता हूं।
हमने कल भाजपा के सिरमौर नेता शिवराजसिंह चौहान के क्षेत्र की बात की थी। आज बात करेंगे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के जिले छिंदवाड़ा की। छिंदवाड़ा जिले में 2013 में कुल 13 लाख 65532 मतदाताओं में से 81.91 फीसदी यानी 11 लाख 18460 ने वोट डाले थे। जबकि इस बार 2018 में कुल 14 लाख 80503 मतदाताओं में से 12 लाख 42451 ने ही मतदान किया।
अब प्रतिशत से लिहाज से तो छिंदवाड़ा जिला पिछली बार की तुलना में 2.01 फीसदी बढ़त के साथ सर्वाधिक मतदान करने वाला जिला बन गया है। लेकिन हकीकत यह है कि जिले में 2013 में जहां 2 लाख 47072 लोग वोट डालने नहीं निकले थे, वहीं इस बार 2 लाख 38052 लोग वोट डालने बाहर नहीं आए। इस हिसाब से वोट डालने के लिए अतिरिक्त रूप से सिर्फ 9020 लोग ही बाहर निकले।
चलिए अब कांग्रेस के दूसरे दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया के इलाके का रुख करें। सिंधिया गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं। गुना जिले में जहां पिछली बार 1 लाख 97217 लोग वोट डालने नहीं निकले थे, वहीं इस बार 1 लाख 93669 लोग घर से बाहर नहीं आए। यानी गुना जिले में 2018 में महज 3548 मतदाता ही अतिरिक्त रूप से वोट डालने आए।
शिवपुरी जिले में जरूर हालात अच्छे रहे। वहां 2013 में 2 लाख 94903 लोगों ने वोट नहीं डाला था तो इस बार 2 लाख 74444 लोगों ने वोट नहीं डाला। यानी इस जिले में पिछली बार की तुलना में 20 हजार 459 ज्यादा लोग वोड डालने के लिए घरों से बाहर निकले। यहां यह भी याद रखना होगा कि शिवपुरी जिले के कुछ हिस्से सिंधिया घराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया के संसदीय क्षेत्र में आते हैं तो शिवपुरी विधानसभा क्षेत्र से उनकी बुआ और शिवराजसिंह सरकार की केबिनेट मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया चुनाव लड़ रही हैं।
भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं की बात करें तो केंद्रीय मंत्री और पार्टी की मध्यप्रदेश चुनाव अभियान समिति के मुखिया नरेंद्रसिंह तोमर के संसदीय क्षेत्र ग्वालियर में भी हालात खराब ही रहे। वहां 2013 में जहां वोट न डालने वालों की संख्या 5 लाख 20659 थी, वहीं इस बार यह बढ़कर 5 लाख 34621 रह गई। यानी पिछली बार की तुलना में यहां 13 हजार 962 मतदाता वोट डालने के लिए कम निकले।
इसी तरह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और सांसद राकेशसिंह के संसदीय क्षेत्र जबलपुर में भी मतदाता बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं दिखाई दिए। जिले में 2013 में 4 लाख 99 हजार 133 लोगों ने वोट नहीं डाला था, तो इस बार 4 लाख 93 हजार 138 लोग वोट डालने नहीं आए। यानी अतिरिक्त रूप से सिर्फ 5995 मतदाताओं ने इस बार वोट डालने में रुचि दिखाई।
अब जरा सत्ता की चाबी कहे जाने वाले मालवा क्षेत्र के केंद्र इंदौर का हाल देख लीजिए। यह भी भाजपा व कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं का गढ़ है। यहां तो हालत यह रही कि पिछली बार की तुलना में इस बार वोट नहीं डालने वालों की संख्या में 81 हजार 896 लोगों का इजाफा हो गया। विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सीतासरन शर्मा और भाजपा के बागी पूर्व मंत्री सरताजसिंह की कांटे की टक्कर वाले होशंगाबाद क्षेत्र में वोट न डालने वालों की संख्या में 2364 की बढ़ोतरी हो गई। प्रदेश की राजधानी और वीआईपी लोगों के गढ़ भोपाल में इस बार 54 हजार 437 कम लोग वोट डालने निकले।
लेकिन कुछ जगहों का मतदान खास संकेत भी देता है। मसलन किसान आंदोलन के लिए खासे चर्चित हुए नीमच और मंदसौर जिलों में क्रमश: 10 हजार 909 और 9 हजार 523 अधिक लोगों ने इस बार मतदान किया। मतदान के ट्रेंड पर समग्र निगाह डालें तो एक बात उभर कर आ रही है कि जहां किसी न किसी वजह से लोगों में कोई गुस्सा था या जो इलाके विपक्षी दल कांग्रेस के प्रभाव वाले हैं वहां वोट के प्रति अरुचि दिखाने वालों की संख्या कम है वहां लोग वोट डालने निकले हैं। जैसे कांग्रेस सांसद कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र वाले झाबुआ जिले में पिछली बार की तुलना में इस बार वोट डालने वालों की संख्या 26 हजार 468 अधिक रही।
यह बात यदि कोई संकेत है तो इसका निष्कर्ष मैं पाठकों पर छोड़ता हूं। इन आंकड़ों के आधार पर मैं ज्यादा तो कुछ नहीं कह सकता, लेकिन जो लोग हमेशा की तरह इस बार भी ऊंट की करवट की दिशा पर टकटकी लगाए बैठे हैं, उन्हें पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वास्तव में ऊंट पहाड़ से नीचे उतर तो आया है ना। क्योंकि जब तक वह पहाड़ पर रहेगा, आपको उसकी करवट क्या, उसकी काया भी ठीक से दिखाई नहीं देगी। करवट का पता तो तभी चल सकता है जब वह आपकी आंखों के सामने, चंद कदमों की दूरी पर हो…
आगे बात करेंगे चुनाव में हवा और जमीन के रिश्ते पर…