या तो किसानों को इंसान मानो या उन्‍हें अपने हाल पर छोड़ दो

समय की तासीर, उसकी फितरत या उसके मिजाज को समझना बहुत मुश्किल है। समय कब कैसे अपने रंग बदलेगा इसके बारे में कयास लगाना भी आसान नहीं। कहते हैं समय सारे घाव भर देता है। लेकिन क्‍या सचमुच ऐसा होता है? हो सकता है समय कुछ घाव या फिर बहुत सारे घाव अपने बहाव के साथ भर देता हो, लेकिन क्‍या यह सच नहीं है कि कई घाव समय के साथ भरने के बजाय और हरे होते चले जाते हैं। जिन पर वार होता है वे आहत या घायल लोग अपने घावों को समय के साथ भर जाने की इजाजत न देते हुए क्‍या उन्‍हें पालते पोसते हुए ही पलटवार के लिए समय का इंतजार नहीं करते? यानी समय के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाना चाहिए, उसके बारे में तो बस यही कह सकते हैं कि समय तेरी बलिहारी है, आज कोई राजा है तो कल वह भिखारी है…

आप सोचते होंगे कि यह बंदा आज इतना दार्शनिक क्‍यों हो चला है? समय की चकरी पर बैठकर ऐसी बहकी बहकी बातें क्‍यों कर रहा है? तो मसला यूं है कि कुछ बातों को लेकर, समय ने ही भीतर के घावों को हरा कर दिया है। हाल ही में जब मध्‍यप्रदेश में किसानों को भिखारी के कटोरे में फेंकी जाने वाली इकन्‍नी दुअन्‍नी की तर्ज पर दी गई खैरातनुमा बीमा राशि की खबरें देखीं तो समय के बहाव के साथ अतीत में बह गई कई घटनाएं अचानक आंखों के सामने तैर गईं।

ऐसी घटनाओं में सबसे पहले याद आई वो घटना जो यूपीए के जमाने की है। जब योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में गरीबी की सीमा रेखा तय करते हुए एक हलफनामा दिया था। उस हलफनामे में कहा गया था कि यदि ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाला कोई व्‍यक्ति प्रतिदिन 26 रुपए तक और शहरी क्षेत्र में रहने वाला 32 रुपए तक खर्च कर पाता है, तो ही उसे गरीब माना जाएगा। इसका अर्थ यह था कि जो व्‍यक्ति ग्रामीण क्षेत्र में 27 रुपए प्रतिदिन और शहरी क्षेत्र में 33 रुपए प्रतिदिन खर्च करता है वह गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गया है। उसे वे सारी सुविधाएं नहीं मिल सकतीं जो किसी गरीब को मिलनी चाहिए।

समय ने ही मुझे झिंझोड़ कर याद दिलाया कि जैसे ही योजना आयोग का यह हलफनामा सामने आया था, तत्‍कालीन विपक्ष (यानी आज के सत्‍ता पक्ष) ने उस समय सत्‍ता में बैठी यूपीए सरकार के लत्‍ते ले लिए थे। सरकार को जवाब देते नहीं बना था कि आखिर 27 रुपए रोज में किसी का घर कैसे चल सकता है। उस समय तरह तरह के सर्वे हुए थे। लोगों ने भोजन की थाली से लेकर चाय, बिस्‍कुट, समोसा आदि के रेट बता-बताकर सरकार की नाक में दम कर दिया था। यह साबित कर दिया था कि सरकार गरीबों को भूखा मार देना चाहती है। ऐसे ही कई सारे प्रसंगों को लेकर उस सरकार की हवा लगातार बिगड़ती चली गई और नतीजा यह हुआ कि 2014 में उसे सत्‍ता से अपदस्‍थ होना पड़ा।

यूपीए सरकार डूबने के जो प्रमुख कारण थे उनमें भ्रष्‍टाचार, महंगाई आदि के अलावा एक बड़ा कारण देश की ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था की अनदेखी और किसानों की लगातार होती आत्‍महत्‍याएं भी थीं। अजीवन कर्ज में डूबे रहने को अभिशप्‍त किसानों के पास उस समय भी आत्‍महत्‍या ही एकमात्र विकल्‍प था और आज सत्‍ता सिंहासन के चौकीदार बदलने के बाद भी उनके पास वही एकमात्र विकल्‍प मौजूद है। सरकारें उस समय भी एक तरह से किसानों/ग्रामीणों की मजबूरी का ऐसे ही मजाक बनाया करती थीं और वे आज भी उनका उपहास करने से बाज नहीं आ रहीं। सच्‍ची बात तो यह है कि न तो उस समय किसानों से हमदर्दी रखने वालों का मकसद किसानों की भलाई था और न आज हमदर्दी जताने वालों का ऐसा कोई लक्ष्‍य है। यह भलाई के बजाय किसानों के नाम पर सत्‍ता की मलाई खाने का उपक्रम है, इसके अलावा कुछ नहीं…

फर्क सिर्फ इतना आया है कि उस समय एक पक्ष था जो बहुत ऊंची आवाज में चीख कर, चिल्‍ला कर या कानफोड़ू शोर मचाकर इस बात पर सरकार की नींद हराम कर सकता था कि आखिर कैसे कोई व्‍यक्ति सिर्फ 27 रुपए रोज में अपनी जिंदगी बसर कर सकता है। लेकिन आज कोई कान फोड़ना तो दूर, ऊंची आवाज में भी यह बोल नहीं पा रहा कि आखिर खेत में पूरे साल की मेहनत चौपट होने का मुआवजा सिर्फ 17 रुपए कैसे हो सकता है?

2014 से पहले तो फिर भी बात 26 रुपए प्रतिदिन जैसी सम्‍मानजनक राशि की थी, लेकिन नए निजाम में तो यह सिर्फ 17 रुपए रह गई है और वह भी पूरे साल भर की मेहनत के एवज में। अब थोड़ा अंकगणित लगाकर देखें और इस राशि को साल के 365 दिनों में बांटें तो हासिल होगा 0.046 रुपए प्रतिदिन। यानी किसान/ग्रामीणों की औकात 26 रुपए प्रतिदिन से भी घटकर 0.046 रुपए तक आ पहुंची है। यहां अच्‍छे और बुरे दिनों का तुलनात्‍मक अध्‍ययन न भी करें, तो भी यूपीए के समय उछल उछल कर सरकार के मुंह पर कालिख पोतने वालों से कोई आज यह तो पूछे कि क्‍या सुनहरा रंग इतने ही पैसों में आ जाता है?

वर्तमान हालात को देखते हुए मैं सोचता हूं कि समय के पास जरूर कोई ऐसा रसायन होता होगा जो काले को सुनहरा और सुनहरे को काला कर देता है। यदि ऐसा है तो हमें क्‍या करना चाहिए? क्‍या हम इंतजार करें कि आज की सत्‍ता के रसायन शास्‍त्री इस काला पड़ते रंग को सुनहरे रंग में तब्‍दील करने का कोई नुस्‍खा जरूर खोज लेंगे या फिर हम अपना रसायन तैयार करते हुए समय की बलिहारी का इंतजार करें?

आप क्‍या कहते हैं बताइएगा…

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