वैसे तो केंद्रीय बजट आने के बाद कुछ दिनों तक उसे लेकर राजनीतिक हलचल और उठापटक हमेशा से ही होती आई है। लेकिन इस बार मामला कुछ ज्यादा पेचीदा नजर आ रहा है। पहला मुद्दा बजट को लेकर मध्यवर्ग के असंतोष से उपजी राजनीतिक चिंता का है तो दूसरा सेंसेक्स में हो रही लगातार गिरावट का। सेंसेक्स जहां कारोबारी जगत का प्रतिनिधित्व करता है वहीं मध्यवर्ग इस देश के मुखर वर्ग का।
शायद यही कारण रहा होगा कि प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक में अपने सांसदों से कहा कि वे जनता के बीच जाएं और बजट की खूबियां बताएं। संसद में बजट प्रस्तुत किए जाने के बाद से प्रधानमंत्री अपने सांसदों को दो तीन बार यह सीख दे चुके हैं। आपको याद होगा कि वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा बजट पेश किए जाने के बाद खुद प्रधानमंत्री ने बहुत लंबे भाषण के जरिए बजट की ‘खासियतें’ लोगों को समझाई थी।
लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार को खुद भी अहसास हो रहा है कि किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य देने और 50 करोड़ लोगों के लिए स्वास्थ्य संरक्षण योजना का ऐलान करने सहित कई कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद बजट को लेकर महौल नकारात्मक है। इसीलिए अब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने सांसदों को यह जिम्मा सौंपा है कि वे लोगों के बीच जाएं और विपक्ष के विपरीत प्रचार का काउंटर करते हुए लोगों को बताएं कि बजट कितना ‘लोककल्याणकारी’ है।
प्रधानमंत्री ने लोगों तक बजट की बात पहुंचाने को, 2019 का चुनाव जीतने के लिए भी जरूरी बताया है। उन्होंने तो यहां तक सलाह दे डाली है कि सांसद बूथ स्तर तक जाकर टिफिन पार्टियां करें। अपने साथ टिफिन लेकर जाएं और लोगों के बीच बैठकर खाना खाएं। सरकार की योजनाओं को लोकप्रिय बनाने और उनका प्रचार-प्रसार करके ही आगामी चुनाव जीते जा सकते हैं।
लेकिन सत्तारूढ़ दल में सांसदों और जन प्रतिनिधियों की जो स्थिति है वह कुछ और ही कहानी कहती है। और यह कहानी क्या है इसे जानने के लिए ज्यादा दूर जाने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ दिल्ली और भोपाल के दो तीन उदाहरण ही काफी हैं। पहला उदाहरण मध्यप्रदेश के मुरैना से सांसद अनूप मिश्रा का है। अनूप मिश्रा पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के भानजे हैं और मध्यप्रदेश में कैबिनेट स्तर के मंत्री रह चुके हैं। उन्हें पार्टी के मुखर और तेजतर्रार नेताओं में माना जाता है।
इन्हीं अनूप मिश्रा ने पिछले दिनों संसद में कहा कि ”अगर जवाबदेही तय नहीं होगी तो मोदी जी कितने भी सपने देख लें वे पूरे नहीं हो सकते। योजनाएं जमीन पर नहीं उतरेंगी तो आम जनता को उसका फायदा नहीं मिल पाएगा। हर योजना के साथ जवाबदेही फिक्स होनी चाहिए।”
अपनी ही सरकार की योजनाओं का कच्चा चिट्ठा खोलते हुए मिश्रा बोले-”पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में बहुत सारी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है। लेकिन कई स्टेट और जिलों में इन योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक से नहीं होने से जनता को उनका लाभ नहीं मिल पा रहा।”
अपने संसदीय क्षेत्र मुरैना के तहत आने वाले श्योपुर की चर्चा करते हुए अनूप ने कहा- ”क्षेत्र में 703 ग्राम पंचायतों में अभी तक सिर्फ 133 खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) बन पाई हैं।” पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का यह बयान उस योजना की जमीनी हकीकत उजागर करता है जो सरकार और खुद प्रधानमंत्री का सबसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है।
अब जरा दूसरा उदाहरण ले लीजिए। बुधवार को भोपाल नगर निगम की बैठक में एक और जनप्रतिनिधि का दर्द आंसुओं के रूप में छलक आया। अपने वार्ड में काम नहीं होने से खफा सत्तारूढ़ दल भाजपा की ही पार्षद सीमा यादव ने परिषद की बैठक में रोते हुए इस्तीफे की पेशकश कर दी।
घटनाक्रम बताता है कि सरकारी तंत्र से सीमा यादव संभवत: लंबे समय से त्रस्त रही होंगी। शायद वे मन बना कर ही बैठक में आईं थी कि यदि सदन में उनकी पीड़ा नहीं सुनी गई तो वे पद छोड़ देंगी। इसी इरादे से वे अपना इस्तीफा भी लिखकर लाई थीं। परिषद की बैठक खत्म होने से ठीक पहले उन्होंने रोते हुए कहा-‘’मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रही हूं, इसलिए मैं इस्तीफा दे रही हूं।‘’
यह पहला मौका नहीं है जब भोपाल नगर निगम की किसी पार्षद ने रोते हुए अफसरों को अपनी पीड़ा बताई हो। इससे पहले पिछले साल अप्रैल माह में पार्षद नीलम बघेल ने भी जनसुनवाई के दौरान एडीएम से कहा था- ‘’मैडम! हम कब तक जनसुनवाई में शिकायतें करें आप कोई कार्रवाई तो करती नहीं। न तो आपने अतिक्रमण हटाया और न अवैध नल कनेक्शनों पर कार्रवाई हुई।‘’
नीलम बघेल ने साफ साफ पूछा था कि प्रशासन कार्रवाई करने से कतरा क्यों रहा है। आखिर जनता की लड़ाई में प्रशासन साथ नहीं देगा तो हमारे पार्षद रहने का भी क्या अर्थ है। अब हमारे पास और कोई चारा नहीं बचा है इसलिए ये रहा मेरा इस्तीफा आप इसे स्वीकार कर लें।
आप यदि पुराने अखबारों के पन्ने पलटें तो हर स्तर के जनप्रतिनिधियों का ऐसा ही दर्द आपको हर जिले में नजर आएगा। इन हालात में जब प्रधानमंत्री सांसदों से कहते हैं कि जनता के बीच जाकर बजट की खूबियां बताओ, मुख्यमंत्री विधायकों से कहते हैं कि लोगों के पास जाकर कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी दो, तो ऐसा लगता है कि शिखर और जमीन के बीच में कोई तालमेल ही नहीं है।
बजट यदि सचमुच लोगों का हित करने वाला है तो फिर ऐसा क्यों होना चाहिए कि उसे जाकर बार-बार लोगों को समझाना पड़े। जनकल्याणकारी योजनाएं यदि वास्तव में लोगों तक पहुंच रही हैं, वास्तव में यदि उनका क्रियान्वयन हो रहा है, लोगों को उनसे लाभ मिल रहा है, तो फिर लोगों के बीच जाकर उनका ढिंढोरा पीटने की जरूरत क्यों पड़ रही है।
दो ही स्थितियों में ऐसा हो सकता है। या तो देश की जनता बेवकूफ है जो खुद अपने ही कल्याण की बात समझने लायक बुद्धि भी नहीं रखती, या फिर देश की राजनीति इतनी ज्यादा समझदार है कि जो मानकर चलती है कि भेड़ों के झुंड को हांकना कौनसी मुश्किल बात है…
आप को क्या लगता है?