‘’कभी कभी घर से यहां वहां जाते समय… स्कूल और कोचिंग जाते समय जरूर ऐसा हुआ कि किसी शराबी या किसी बदमाश ने हमसे बदतमीजी की। बहुत बुरा लगा… मैं पढ़ लिखकर कुछ बनना चाहती हूं और अपने मां-बाप का सपना पूरा करना चाहती हूं… उनको कुछ कर दिखाना चाहती हूं।‘’
छतरपुर जिले के एक गांव की स्कूली बच्ची सुरभि ने जब बच्चों की स्थिति को लेकर किए गए एक सर्वेक्षण के दौरान यह बात कही तो वह कुछ भी गलत नहीं कह रही थी। कायदे से यह बात न सिर्फ अकेले सुरभि की है और न ही छतरपुर जिले की। यह पूरे मध्यप्रदेश या कि पूरे देश की समस्या है।
आज जब दुनिया ‘विश्व बाल दिवस’ मना रही है, तब बच्चों की समस्याओं को बच्चों के ही नजरिये से देखना, समझना और उनका निदान करना जरूरी लगता है। दरअसल जब भी बच्चों को लेकर बात होती है तो हमारा नजरिया कुछ और ही होता है। हम बच्चों को या तो बच्चा समझकर बात करते हैं या खुद को बड़ा समझकर…
अव्वल तो बच्चों से सवांद होता ही नहीं और होता भी है तो बहुत औपचारिक या खानापूरी के लिए। और यही कारण है कि बच्चे न तो खुद अपनी समस्याएं घर और बाहर खुलकर बता पाते हैं और समस्याओं का ठीक ठीक पता न होने से समाज भी फौरी तौर पर उन्हें एड्रेस करने लगता है।
शनिवार को भोपाल में यूनीसेफ और विकास संवाद संस्था ने मिलकर दस गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बच्चों को लेकर किए गए सर्वे के आंकड़े जारी किए तो लगा कि बहुत दिनों बाद किसी ने सही मायने में बच्चों के बीच जाकर उनकी सुध लेने की कोशिश की है। इस सर्वे की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें बच्चों ने ही अपनी बात कही है। समस्याएं भी उन्हीं की जुबानी हैं और उन्हें हल करने के तौर तरीके भी उन्हीं के द्वारा सुझाए गए हैं।
राजधानी में यह रिपोर्ट जारी किए जाते समय जब प्रदेश के विभिन्न जिलों से आए बच्चों ने कभी हिचकिचाते हुए तो कभी थोड़ा साहस दिखाते हुए, अपनी समस्याएं बताईं तो लगा कि हम लोग बच्चों को एड्रेस करना तो दूर उलटे उनकी अनदेखी कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें अपने आसपास हो रही घटनाओं या स्थितियों की जानकारी न हो। वे सब समझ भी रहे हैं और विपरीत हालात का शिकार भी हो रहे हैं।
याद रखा जाना चाहिए कि बच्चे की संवेदनशीलता का स्तर बड़ों से कहीं अधिक होता है। बच्चा खुद को ठीक से अभिव्यक्त भले न कर पाए, लेकिन वह जिस स्तर पर चीजों को महसूस करता है उस स्तर पर हम कभी सोच भी नहीं सकते। उनकी बातों में कहीं कोई जोड़ घटाव या दुराव छिपाव नहीं है। वे सीधे सीधे अपनी बात कह देते हैं, अब यह हम पर निर्भर करता है कि, टेढ़ी ही बातों को समझने के आदी हो चुके हम, उनकी सीधी सादी बातों को कितना समझ पाते हैं।
मध्यप्रदेश में बच्चों के साथ होने वाली यौन शोषण की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसे में सर्वेक्षण के दौरान बच्चों से पूछा गया यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण था कि क्या उन्हें स्कूल जाते समय डर लगता है? जरा बच्चों का जवाब देखिए- 35 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें शराब पीकर घूमने वालों से बहुत डर लगता है। इसके बाद 12 फीसदी बच्चे, खासकर लड़कियां रास्ते में खड़े रहने वाले आवारा लड़कों से डरती हैं।
8 प्रतिशत बच्चों ने अपने स्कूल की बस के ड्रायवर और कंडक्टर से डर लगने की बात कही, जबकि 28 फीसदी ने कहा कि उन्हें रास्ते में घूमने वाले कुत्तों और आवारा मवेशियों से डर लगता है। 17 फीसदी ने अन्य कारणों से डर लगने की बात की। यानी बच्चे सिर्फ शराबियों और आवारा लड़कों से ही नहीं बल्कि अपनी स्कूल बस के ड्रायवर और कंडक्टर से भी डरते हैं।
खैर… इन कारणों पर तो घर परिवार वालों या स्कूल वालों का ध्यान चला जाता है, लेकिन आवारा कुत्तों और मवेशियों की बात बहुत कम हो पाती है। ध्यान रखना होगा कि जो बच्चे पैदल स्कूल जाते हैं, उन्हें सबसे ज्यादा ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। यौन शोषण जैसी घटनाएं तो मीडिया में रिपोर्ट हो भी जाती हैं लेकिन कुत्तों के काटने और मवेशियों के कारण घायल होने वाले बच्चों का कोई विधिवत आंकड़ा कभी सामने नहीं आ पाता।
ऐसे ही जब बच्चों से यह सवाल किया गया कि क्या कभी उनके रिश्तेदार या आसपास के किसी वयस्क आदमी ने ऐसा व्यवहार किया जो उन्हें आपत्तिजनक लगा हो? तो 12 प्रतिशत ने माना कि उनके साथ यौन शोषण की घटनाएं हुई हैं। 6 फीसदी का तो कहना था कि वे अपने घर में ही यौन हिंसा के शिकार हुए हैं। बच्चों में डर की स्थिति देखिए कि 6 फीसदी ने कहा कि उनके साथ गलत बात हुई तो है पर उन्होंने किसी को बताया नहीं। जबकि केवल 2 प्रतिशत का कहना था कि उन्होंने खुद पर यौन हिंसा करने वाले व्यक्ति को रोका।
इसी सवाल के जवाब को लेकर छतरपुर जिले की ही छात्रा पूजा का यह कमेंट देखिए, उसने कहा- ‘’ज्यादातर लड़कियों को घर से बाहर इसलिए नहीं भेजा जाता कि कोई बाहर का आदमी हमारी बेटियों को गलत नजर से न देखे। यदि लड़के हर लड़की को बहन की नजर से देखें तो हम भी आजादी से बाहर आ जा सकती हैं।
लड़का और लड़की में भेद न करने के तमाम नारों और बयानों के बावजूद स्थितियां आज भी कोई बहुत ज्यादा सुखद नहीं हैं। जब बच्चों से पूछा गया कि वे किन बातों को गलत मानते हैं तो 56 प्रतिशत ने कहा कि भाई या पिता द्वारा खाना बनाने को गलत मानते हैं। 44 फीसदी ने लड़कियों के वाहन चलाने, 36 प्रतिशत ने लड़का लड़की को समान समझने को गलत बताया जबकि 29 फीसदी का कहना था कि लड़कियों का उच्च शिक्षा प्राप्त करना ठीक नहीं है।
ये सारे सवाल सिर्फ एक सर्वेक्षण का हिस्सा या निष्कर्ष नहीं बल्कि समाज के लिए आईने की तरह हैं, जिसमें बचपन का असली चेहरा देखा जा सकता है। विश्व बाल दिवस के दिन जरूरत है ऐसे सवालों को एड्रेस करने की…
कल इसी सर्वे पर कुछ और बात करेंगे…