वोटों की इस लड़ाई में सेना को टारगेट मत बनाइए

देश में इन दिनों बड़ा विचित्र मुकदमा चल रहा है। यह मुकदमा जनता की अदालत में है और इसे देश के विपक्षी दलों ने देश की ही सरकार पर दायर किया है। आरोप ये है कि भारत ने पुलवामा की आतंकी वारदात में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो जाने के बाद पाकिस्‍तान के खिलाफ जो एयर स्‍ट्राइक की उसके सबूत कहां हैं?

पुलवामा से पहले ऐसा ही हमला उरी में हुआ था। उरी की उस घटना पर एक फिल्‍म बनी है। पिछले दिनों रिलीज हुई उस फिल्‍म का एक डायलॉग बहुत चर्चित हुआ था- ‘’हाउज द जोश? … हाई सर…’’ और इसी डायलॉग की तर्ज पर इन दिनों देश में जोश बहुत हाई चल रहा है। लेकिन इस जोश का देश या देशभक्ति से कोई लेनादेना नहीं है, यह जोश सिर्फ वोट कबाड़ने की जुगाड़ भर है।

वायुसेना की एयरस्‍ट्राइक को लेकर कांग्रेस के कपिल सिब्‍बल, पी. चिदंबरम, मनीष तिवारी, दिग्विजयसिंह, नवजोतसिंह सिद्धू, तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बैनर्जी, दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित विपक्ष के कई नेता सरकार से पूछ रहे हैं कि इतनी बड़ी कार्रवाई से कुछ हासिल हुआ या नहीं, और यदि हासिल हुआ है तो सरकार देश को उसके सबूत दिखाए। भारत की कार्रवाई में ये जो 300-400 आतंकियों के मारे जाने की चर्चाएं चल रही हैं उनका प्रमाण कहां है।

उधर सरकार की तरफ से कई सारे मंत्रियों के अलावा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन सवालों को लेकर विपक्ष पर हमलावर हो रहे हैं। उनका कहना है कि यह सेना का मनोबल गिराने की कोशिश है। भारतीय सेना ने पाकिस्‍तान की सीमा में घुसकर इतनी बड़ी कार्रवाई की है और विपक्ष उस पर भरोसा करने से ही इनकार कर रहा है। भाजपा के छुटभैये नेता ऐसे सवाल करने वालों को देशद्रोही बता रहे हैं।

शायद विपक्ष के सवालों से बढ़ते दबाव और सरकार पर विपक्ष के लगातार हो रहे हमले से पैदा हो रही अप्रिय स्थिति का ही परिणाम था कि सोमवार को वायुसेना अध्‍यक्ष बीएस धनोआ को मीडिया के सामने आकर कहना पड़ा कि सेना सिर्फ टारगेट हिट करने जाती है, उसका काम लाशों को गिनना नहीं है। यदि सवाल यह है कि क्‍या हमने टारगेट हिट किया तो उसका जवाब है हां, हमने टारगेट हिट किया। अगर हमने जंगल में बम गिराए होते तो पाकिस्‍तान को जवाबी कार्रवाई करने की जरूरत क्‍या थी?

मैं समझता हूं किसी भी सेनाध्‍यक्ष को इससे ज्‍यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है, उसे कहना भी नहीं चाहिए। सेना का काम राजनीतिक लुच्‍चेबाजी या वोटो की सौदेबाजी को लेकर होने वाले सवालों का जवाब देना नहीं है। सेना का काम उसे मिले आदेशों का सफलतापूर्वक पालन करना है और यदि हमारे वायुसेना प्रमुख कह रहे हैं कि उन्‍होंने अपने टारगेट को हिट किया तो वे सही ही कह रहे होंगे।

पर सवाल दूसरा है। ऐसा नहीं है कि सेना प्रमुख इस सवाल के मंतव्‍य को न समझ रहे हों, लेकिन उनकी विवशता है या राजनीति उन्‍हें इस धर्मसंकट में डाल रही है कि वे ऐसे सवालों का सामना करने को मजबूर हैं। असली सवाल ‘टारगेट’ का ही है? सेना का टारगेट भले ही दुश्‍मन रहा हो, आतंकी रहे हों लेकिन विपक्ष का टारगेट मोदी हैं और मोदी का टारगेट विपक्ष। और दोनों का संयुक्‍त महाटारगेट है लोकसभा चुनाव में मिलने वाले वोट।

सरकार अपनी छाती चौड़ी कर यह साबित करना चाहती है कि सिर्फ वही इस देश को सुरक्षित रख सकती है। (शायद मोदी है तो मुमकिन है का नारा इसीलिए गढ़ा गया है) उधर विपक्ष को लग रहा है कि यदि जनता में यह संदेश उसी रूप में चला गया जैसा सरकार की मंशा है तो चुनाव में उसका पटिया उलट सकता है। इसलिए सरकार की ओर से पकाई जाने वाली खीर में नीबू निचोड़ने का काम हो रहा है।

पर भविष्‍य में इसके जो घातक परिणाम होंगे उसकी चिंता दोनों ही पक्षों को नहीं है। देश में सेना का जिस तरह राजनीतिक इस्‍तेमाल और राजनीतिकरण किया जा रहा है वह बहुत बड़े खतरे का संकेत है। राजनीति के लिए इस तरह सेना को पहले कभी टूल नहीं बनाया गया। देश की रक्षा करने वाले सैन्‍य बल राजनीतिक दलों के बीच फुटबॉल बना दिए गए हैं।

पिछले दिनों हुई घटनाओं को जरा बारीकी से देखिए। पुलवामा के तत्‍काल बाद देश का सुर एक था। सभी ने कहा इस घड़ी में वे सरकार के साथ हैं और देश के दुश्‍मनों को यह संदेश साफ समझ लेना चाहिए कि वे भारत को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते, देश उनकी साजिशों का मुंहतोड़ जवाब देगा। लेकिन चंद दिनों के भीतर ये सुर बदल गए। 21 विपक्षी दलों ने बाकायदा प्रस्‍ताव पारित कर आरोप लगाया कि सरकार पुलवामा और उसके बाद हुई घटनाओं को राजनीतिक फायदे के लिए इस्‍तेमाल कर रही है। और अब उसी हमले को आगे बढ़ाते हुए पूछा जा रहा है कि यदि भारत ने इतनी सफल एयर स्‍ट्राइक की है तो उसके सबूत कहां हैं?

इस राजनीतिक लुच्‍चई में सबसे गंभीर बात जो मुझे लगती है वो इस आशय के बयान हैं कि हम सेना के साथ हैं पर सरकार के साथ नहीं। तो क्‍या अब हम सरकार और सेना को अलग अलग मानकर चल रहे हैं। क्‍या हम यह कहना चाह रहे हैं कि सेना को सरकार की नहीं सुननी चाहिए, या फिर सेना को राजनीतिक नेतृत्‍व से परे, स्‍वतंत्र रूप से अपने फैसले कर लेने चाहिए?

कल सरकार कांग्रेस की थी, आज सरकार भाजपा की है, हो सकता है आने वाले कल में सरकार किसी और की हो। सेना को अंतत: सरकार के नियंत्रण में ही काम करना होगा। आपको याद होगा कोलकाता पुलिस कमिश्‍नर के खिलाफ सीबीआई कार्रवाई के दौरान भी सुरक्षा बलों व केंद्रीय एजेंसियों का आह्वान कर डाला गया था कि वे सरकार के आदेशों को न मानें। सेना और सरकार को इस तरह आमने सामने खड़ा करना लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है।

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