आपका यह बुलडोजर किसी दिन दलदल में न उतर जाए

आज की बात की शुरुआत फेसबुक पर आई एक पोस्‍ट से…

अरुण जेटली जी की पत्‍नी उन्‍हें कभी कभार यूं ही दफ्तर में फोन लगाकर उनका हालचाल पूछ लिया करती थीं। ऐसे ही एक दिन दोपहर बाद उन्‍होंने फोन किया-

पत्‍नी- कैसे हो?

जेटली- ठीक हूं…

पत्‍नी- और आज लंच में क्‍या खाया?

जेटली- तुम्‍हें बस ये ही बातें करनी आती हैं क्‍या??? क्‍या खाया, क्‍या पिया, कौनसा गाना सुना! मैं देश का वित्‍त मंत्री हूं और ये मेरे काम करने का समय है…

पत्‍नी- ओके ओके, अच्‍छा ये बताओ how should the RBI fight these inflationary trends with minimum intervention in the money markets? And what should be the role of finance ministry in controlling inward foreign remittances???

जेटली- (थोड़ी देर की चुप्‍पी के बाद…)

दाल चावल खाए हैं…. दही और सलाद भी था….

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यह पोस्‍ट मैंने वरिष्‍ठ मीडियाकर्मी सुरेश अवस्‍थी जी की फेसबुक वॉल से उठाई है। मूल रूप से इसे उन्‍होंने अंग्रेजी में पोस्‍ट किया था, लेकिन जहां जरूरी था, मैंने संवादों को हिन्‍दी में अनूदित भर कर दिया है।

इस पोस्‍ट की पहली लाइन में ही अवस्‍थीजी ने लिखा है कि इसे फेसबुक पर डालने के पीछे किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। (With malice towards none) मैं थोड़ी देर सोचता रहा कि आखिर अवस्‍थी जी ने अपनी पोस्‍ट की शुरुआत में यह लाइन क्‍यों लिखी? क्‍या हमारे जीवन से सहज हास्‍य और व्‍यंग्‍य इतना दूर हो गया है कि हम किसी भी स्‍वस्‍थ हास्‍य को सहज भाव से ले ही नहीं सकते?

और जब सहज हास्‍य के लिए जीवन में जगह समाप्‍त होती जा रही है तो फिर आलोचनाओं के लिए स्‍थान ही कहां बचेगा? स्‍वयंभू होते इस समाज और व्‍यवस्‍था में यदि सबकुछ स्‍वीकार्य ही माना जाना है तो फिर मनुष्‍य के मनुष्‍य होने का अर्थ ही क्‍या रह जाता है?  हमारे यहां तो पदार्थ में भी जीवन की धारणा पर बात होती रही है, लेकिन यहां तो जीते जागते मनुष्‍य को ही जीवित इकाई माने जाने से इनकार हो रहा है।

इस समय अरुण जेटली चर्चा में क्‍यों है? इसलिए कि देश में यह धारणा बन रही है कि हमारी अर्थव्‍यवस्‍था के साथ सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा। और चूंकि जेटली देश के वित्‍त मंत्री हैं इसलिए सारी निगाहें और सारी उंगलियां उनकी ओर उठ रही हैं कि वे बताएं आखिर ऐसा क्‍यों व कैसे हो रहा है? अब यदि देश के वित्‍त मंत्री से ही देश की वित्‍तीय और आर्थिक सेहत पर सवाल नहीं होगा तो किससे होगा?

पूर्व वित्‍त मंत्री यशवंत सिन्‍हा ने यही तो कहा है ना कि भारत के आर्थिक हालात चिंता में डालने वाले हैं। तो इस पर बहस या विमर्श क्‍यों नहीं होना चाहिए। क्‍यों सारे विमर्श के दरवाजे बंद किए जा रहे हैं। क्‍यों ठकुरसुहाती न कहने वालों के मुंह बंद किए जा रहे हैं। क्‍यों हर उस बात को खारिज करने की कोशिश हो रही जो मुझे नहीं जंचती या मुझ पर अथवा मेरे किए पर सवाल उठाती है।

यदि देश में प्रधानमंत्री या वित्‍त मंत्री नामकी संस्‍था है, तो देश की तरक्‍की या आर्थिक गतिविधियों को लेकर सवाल उन्‍हीं से तो होंगे। क्‍या हम प्रधानमंत्री या वित्‍त मंत्री से अचार पापड़ के स्‍वाद पर बात करें या फिर उनसे सिर्फ मौसम का हाल पूछ कर चुप हो जाएं। सवाल करने वाला हर व्‍यक्ति या हर मंच हमें विरोधी क्‍यों लग रहा है?

पिछले लंबे समय से मीडिया में भी यह बात अनुभव की जा रही है कि उसकी समालोचना या समीक्षाओं को भी टेढ़ी नजर से देखा जा रहा है। सिर्फ और सिर्फ पक्षधरता का ही आग्रह (या दुराग्रह) चारों तरफ पसरा पड़ा है। मीडिया से एक तरह की दुश्‍मनी पाली जा रही है। छोटा मीडिया तो जैसे अंतिम सांसें गिन रहा है। चौतरफा पड़ने वाले दबाव उसे जीने नहीं दे रहे और उसकी जीजीविषा उसे मरने से रोक रही है। लेकिन ऐसा कब तक?

आखिर यह क्‍यों भुला दिया जा रहा है कि आलोचना का स्‍वर दबा देने या मीडिया को खत्‍म कर देने से क्‍या ये सारी समस्‍याएं हल हो जाएंगी? क्‍या ऐसा कोई दिन कभी भविष्‍य में आएगा ही नहीं जब उन लोगों को इसी मीडिया की जरूरत महसूस होगी जिसे आज वे कुचल डालने पर आमादा हैं। अतीत में क्‍या इसी मीडिया ने उनके सुनहरे पथ के लिए रास्‍ते आसान नहीं बनाए थे।

ज्‍यादा दूर क्‍यों जाएं। यशवंत सिन्‍हा वाला मामला ही ले लीजिए। उन्‍होंने एक अखबार में लेख लिखा। बहुत तीखा लिखा। तंत्र को झकझोर दिया। उसका जवाब कैसे आया? आपने भी तो उसका जवाब देने के लिए इसी मीडिया का ही सहारा लिया ना… यशवंत सिन्‍हा का लेख एक अखबार में छपा तो उनके लिखे को काउंटर करते हुए उनके बेटे से लिखवाया गया लेख दूसरे अखबार ने प्रकाशित किया।

मैं यहां अखबारों की विशेष पक्षधरता या उनके राजनीतिक अथवा कारोबारी आग्रह दुराग्रह की बात नहीं कर रहा। न ही मैं इस तरह की बहस में पड़ना चाहता हूं। लेकिन मूल बात यह है कि यदि आप पर किसी मंच से हमला हुआ तो आपको पलटवार का मौका देने के लिए कोई दूसरा मंच भी मौजूद था ना? क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों का समाज में बने रहना जरूरी है, ताकि चीजें प्राकृतिक न्‍याय के सिद्धांत पर चलती रहें, प्रकृति का वह संतुलन बना रहे।

याद रखें, उजाले की अहमियत इसीलिए है क्‍योंकि उसके बरक्‍स अंधेरा भी खड़ा हुआ है। अंधेरा है तो आप उजाले की मौजूदगी का दावा कर सकते हैं, उसका अहसास कर और करवा सकते हैं। यदि कमियां अहंकार के बुलडोजर के नीचे इसी तरह कुचली जाती रहीं तो शायद एक दिन ऐसा भी आए जब आपको पता भी न चले कि आपका यह बुलडोर सख्‍त सतह से कब दलदल में उतर गया।

 

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