पत्रकारिता को गांव भर की भौजाई न बनाइए

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एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार और जीटीवी के पत्रकार रोहित सरदाना के बीच चल रही खुला पत्र स्‍पर्धा पर वरिष्‍ठ पत्रकार संतोष मानव का दोनों के नाम एक पत्र—

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प्रिय रवीशजी-सरदानाजी
सादर नमस्कार,
प्रिय इसलिए कि आप दोनों पत्रकारिता के पेशे में मुझसे बहुत बाद आए हैं और जी इसलिए कि यह अपना संस्कार है और इसलिए भी कि आप दोनों मुझसे ज्यादा नामा और दामा वाले हैं। अब आप दोनों यह सवाल नहीं उठाइएगा कि कम नामा-दामा वाले को आप लोगों पर लिखने का हक है या नहीं?  अपन लिखते कैसा हैं, यह काम मैंने हमेशा अपने पाठकों, मागदर्शकों, साथियों-सहयोगियों पर छोड़ा, लेकिन अपन पढ़ते ठीक-ठाक हैं, इसलिए आप दोनों का पत्र फेसबुक पर अक्षर-अक्षर पढ़ गया। अच्छा लगा। टीवी की दुनिया के लोग पढ़ते-लिखते हैं, इससे अच्छी बात क्या होगी?

खैर, रवीशजी आपका पूरा पत्र दो बार पढ़ गया। आप अक्सर खुला पत्र लिखते रहते हैं। मोबाइल के जमाने में पत्र लिखना किसी की संवेदनशीलता का परिचायक है। आपसे मेरी एक मुलाकात है। आप शायद बीजेपी की कार्यकारिणी की बैठक कवर करने नागपुर आए थे। वहां, मैं भी था। अपने तब के अखबार के लिए। लगभग उसी समय बरखा दत्त टीवी पर एक कार्यक्रम लेकर आई थीं। 16-17 साल हो गए नाम ठीक-ठाक याद नहीं। इतना याद है कि दत्त किसी नेता के साथ चाय के साथ चर्चा करती थीं। व्यक्ति की जानकारी नहीं हो, तब भी कई बार पसंद-नापसंद अपने आप हो जाता है। समझ लीजिए कि एक छवि दिमाग में बैठ जाती है- बेवजह। जैसे अपने दिमाग में बैठा है कि बरखा है, तो बकवास ही करेगी। वैसे उनसे न अपना परिचय है, न लेना-देना। प्रसून वाजपेयी पूर्व सहकर्मी हैं, मित्र हैं पर अपन पत्रकार प्रसून के कम से कम फैन नहीं हैं। अपन को लखनऊ वाले कमाल खान अच्छे लगते हैं और एबीपी वाले दिबांग, तो कहना यह है कि यह सहज मानवीय प्रवृति है कि कोई किसी को पसंद करे या न करे। इस पर किसी का जोर नहीं।

अपन भटक गए न! खैर, मुद्दे पर आते हैं। हम लोग भाजपा प्रवक्ता की प्रेस ब्रीफिंग का इंतजार कर रहे थे। इस इंतजार के बीच मैंने आपको इंगित करके कह दिया था कि क्या बकवास कार्यक्रम लेकर आई हैं बरखा। और आपने भी कुछ निगेटिव टिप्पणी उस कार्यक्रम को लेकर की थी। संदर्भ से हटकर बातें हो गई न! आपके पत्र का मूल कथ्य क्या है? शायद यह कि जमाना कितना बदल गया है, मोदी राज के कारण। लोग असहनशील हो गए हैं। आप चाहें तो इससे इंकार कर सकते हैं। मुझे गदहा, पाजी, बेवकूफ कह सकते हैं। आप लिख रहे हैं कि खिलाफ लिखने-बोलने पर भी पहले भाजपा वाले चाय पिलाते थे, अब गालियां मिलती है। मां के लिए भी खराब शब्द लिखते हैं। दलाल बोलते हैं। यह क्या है भाई? अगर आपको लगता है कि आपकी पत्रकारिता सच्ची और अच्छी है, तो शिकायत का क्या मतलब? किसी की परवाह क्यों? जिससे जो बनता है, कर ले। माफ कीजिए मेरा मकसद आपको चिढ़ाना नहीं है। लेकिन, क्या आपकी पत्रकारिता सच्ची है? जब आप दिल्ली के हाट की रिपोर्ट करते हैं, तो बड़े अच्छे और सच्चे लगते हैं। जब आप दिल्ली की गंदी बस्ती कापसहेडा जाते हैं, तो संवेदनशील पत्रकार लगते हैं । लेकिन जैसे ही राजनीतिक रिपोर्ट करते हैं- इंसाफ का तराजू कहीं न कहीं झुक जाता है। यह मेरा आकलन है, संभव है आप इसे गलत कहें। कहेंगे भी। अगर पत्रकारिता सच्ची है, तो किसकी परवाह और क्यों? जिसको उखाड़ना है, उखाड़ ले। यह गलत है कि हम किसी को हमेशा कठघरे में खडा करें। कहें कि मेरे साथ अन्याय हो रहा है। फैसला दर्शकों पर छोडि़ए न। हमारा असली न्यायाधीश तो वही है न। किसी पार्टी या व्यक्ति की ऐसी-तैसी।

इसे आत्मप्रशंसा न मानें-मुझे याद है कि एक दबंग विधायक ने भरे बाजार मुझसे कहा कि गोलियों से भून दूंगा। मैंने अपने तब के संपादक हरिवंशजी को फोन किया। जानते हैं, उन्होंने क्या कहा- यह ईमानदार पत्रकारिता का पुरस्कार है। डरना नहीं। अगर इस पेशे में हैं, तो यह लगा रहेगा। इसलिए कहा कि आपको लगता है कि आपकी पत्रकारिता सच्ची और अच्छी है, तो गालियों को लेकर क्या रोना? कहिए कि और बको। कैसे बिहारी हो भाई? आप कहेंगे-मौका मिला तो लगा बड़ाई छांटने। पर यह बड़ाई नहीं है। एक और किस्सा सुनिए। नागपुर में थे। एक सूदखोर के खिलाफ सीरिज चालू की। उसने फोन पर गंदी-गंदी गालियां बकीं। कहा कि उड़ा देंगे। बिहार भेज देंगे। अपन रोए नहीं भाई। उसको उसी की बोली में सुनाया। दूसरे रोज उसके घर के बगल में किराए का मकान लिया। वह तो हमारे तब के संपादक विनोदजी को पता लग गया। और उन्होंने खरी-खोटी सुनाई। कहा कि साहसी होना अच्छी बात है। दुस्साहसी न बनो। उन्होंने मकान कैंसिल करवाया। जबरिया पुलिस आयुक्त के पास भेजा। मुझे याद है कि पुलिस आयुक्त से यह भी कहा कि मेरे आदमी का बाल भी बांका हुआ तो ईंट से ईंट बजा दूंगा। अब यह लंबी कहानी है कि कैसे वह सूदखोर रासुका में गिरफतार हुआ।

मेरा कहना है कि पत्रकारिता कर रहे हैं तो दामन में सिर्फ फूल नहीं, कांटे भी आएंगे। फिर आंसू क्या बहाना। जुल्म भयो रामा, अजब भयो रामा…। देखो, देखो। बचाओ। दुत्त…। ऐसा बोलते हैं। यह गलत ही हो और होगा भी कि आपने अपने भाई को बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस का टिकट दिलवाया। फेसबुक पर खूब चला। मैं पढ़ा और हंसा। टिकट ही तो दिलवाया। क्या गलत किया। दुनिया कुछ भी करे तो ठीक है। सारी ईमानदारी मनसा-वाचा-कर्मणा की ठेकेदारी वेतनभोगी पत्रकार की। बड़ी नाइंसाफी। है न भाई। अब विरोधी है कोई तो वह तो हमारे हंसने पर भी सवाल उठाएगा! क्यों हंसा? अरे हंसा, जाओ कबाड़ लो। ऐसी दबंगई चाहिए अब। अकबर साहब से क्या पूछ रहे हैं? इसी साहब ने नरेंद्र मोदी को क्या-क्या नहीं लिखा, बोला। 89 में किशनगंज से कांग्रेस के उम्मीदवार थे। पोस्टर छपा था- माटी का बेटा लौट आया। अपने को लगता था, पत्रकार बनेंगे तो अकबर जैसा। नागपुर यूनिवर्सिटी के मास काम डिपार्टमेंट में था। अकबर आए, तो हुलसकर मिला। अब मिलने की इच्छा नहीं। लगता है, किसके जैसा पत्रकार? हंसी फूटती है। फिर चचा गालिब याद आते हैं- हमको मालूम है, जन्नत की हकीकत, दिल बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है।  और पत्रकारिता?

किसी पत्रकार का इंटरव्यू पढा था- जिसे मैंने देवालय समझा था, वह वेश्‍यालय से भी गया-गुजरा है। तब बहुत गुस्सा आया था और आज लगता है, सच के बहुत करीब था बेवकूफ। बेवकूफ ही रहा होगा, जो सच बोला। आज सच बोलने वाले को बेवकूफ ही कहा जाता है। सारे रेकेटियर…! कौन सा वाद नहीं है, हमारी पत्रकारिता में। गिना दूं? चलिए छोडिए। और पत्रकारिता की आजादी? किसकी आजादी। कैसी आजादी। तभी तक जब तक दादा प्रणय राय, चंद्रा साहब चाहें। कहने को बहुत कुछ है। पर न बोलवाइए। बोलेंगे तो बोलेगा कि बोलता है। बस आपसे निवेदन है कि अपने आप को टटोलिए। आपको लगता है कि अपन ठीक हैं, तो हाथी चले बाजार, कुकुर भौंके हजार…। अगर आप थोड़का-सा भी एंड-बेंड हैं तो सुधार लीजिए। तब भी गाली न मिलने की गारंटी नहीं है, कम भले हो जाए। सलाह मान कर असहनशीलता का रोना बंद कीजिए।

और भाई सरदाना। आपने कोई मुद्दे कि बात नहीं की है। विभिन्न नाम लेकर आप सिर्फ और सिर्फ यह जताने-बताने की कोशिश करते रहे हैं कि रवीश की बात में खोट है। वे मौका व व्यक्ति देकर अपनी बात कहते हैं। एक दूसरे को गरियाने से कुछ नहीं होगा। पत्रकारिता तो वैसे भी अबरा की मौगी हो गई है। अब उसे गांव भर की भौजाई न बनाइए। वैसे भी मैं आप नामा-दामा वालों को समझाने की हैसियत नहीं रखता। लेकिन, भारत के संविधान ने धारा 19 ए के तहत अपनी बात रखने का अधिकार दिया है, उसका उपयोग कर लिया। कोई बात बुरी लगी, हो तो पाल कर रखिएगा। मिलने पर फरिया लेंगे।
आपका ही

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श्री संतोष मानव की फेसबुक वॉल से साभार

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